स्वामी प्रभुपाद- मुक्ति की प्राप्ति

Edited By Prachi Sharma,Updated: 31 Dec, 2023 09:41 AM

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जो लोग संशय से उत्पन्न होने वाले द्वैत से परे हैं जिनके मन आत्म साक्षात्कार में लीन हैं जो समस्त जीवों के कल्याण कार्य करने में सदैव व्यस्त रहते हैं

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लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषय: क्षीणकल्मषा:।
छिन्नद्वैधा यतात्मान: सर्वभूतहिते रता:।।5.25।।

अनुवाद एवं तात्पर्य : जो लोग संशय से उत्पन्न होने वाले द्वैत से परे हैं जिनके मन आत्म साक्षात्कार में लीन हैं जो समस्त जीवों के कल्याण कार्य करने में सदैव व्यस्त रहते हैं और जो समस्त पापों से रहित हैं, वे ब्रह्मनिर्वाण (मुक्ति) को प्राप्त होते हैं।

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केवल वही व्यक्ति सभी जीवों के कल्याण कार्य में रत कहा जाएगा जो पूर्णतया कृष्णभावनाभावित है। जब व्यक्ति को यह वास्तविक ज्ञान हो जाता है कि कृष्ण ही सभी वस्तुओं के उद्गम हैं तब वह जब कर्म करता है तो सबों के हितों को ध्यान में रख कर करता है। परमभोक्ता, परमनियन्ता तथा परमसखा कृष्ण को भूल जाना मानवता के क्लेशों का कारण है। अत: समग्र मानवता के लिए कार्य करना सबसे बड़ा कल्याण कार्य है।

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कोई भी मनुष्य ऐसे श्रेष्ठ कार्य में तब तक नहीं लग पाता जब तक वह स्वयं मुक्ति न हो। कृष्णभावनाभावित मनुष्य के हृदय में कृष्ण की सर्वोच्चता पर बिल्कुल संदेह नहीं रहता। वह इसीलिए संदेह नहीं करता क्योंकि वह समस्त पापों से रहित होता है। ऐसा है वह दैवी प्रेम। जो व्यक्ति मानव समाज का भौतिक कल्याण करने में ही व्यस्त रहता है, वह वास्तव में किसी की भी सहायता नहीं कर सकता। शरीर तथा मन की क्षणिक उदासी संतोषजनक नहीं होती।

जीवन संघर्ष में कठिनाइयों का वास्तविक कारण मनुष्य द्वारा परमेश्वर से अपने संबंध की विस्मृति में ढूंढा जा सकता है। जब मनुष्य कृष्ण के साथ अपने संबंध के प्रति पूर्णतया सचेष्ट रहता है तो वह वास्तव में मुक्तात्मा होता है, भले ही वह भौतिक शरीर के जाल में फंसा हो।

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