स्वामी प्रभुपाद : जिसने मन को जीत लिया है, उसके लिए मन सर्वश्रेष्ठ मित्र

Edited By Prachi Sharma,Updated: 09 Mar, 2024 07:23 AM

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जिसने मन को जीत लिया है, उसके लिए मन सर्वश्रेष्ठ मित्र है, परन्तु जो ऐसा नहीं कर पाया, उसके लिए मन सबसे बड़ा शत्रु बना रहेगा।

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बंधुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित:।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥6.6॥

अनुवाद एवं तात्पर्य: जिसने मन को जीत लिया है, उसके लिए मन सर्वश्रेष्ठ मित्र है, परन्तु जो ऐसा नहीं कर पाया, उसके लिए मन सबसे बड़ा शत्रु बना रहेगा। अष्टांगयोग के अभ्यास का प्रयोजन मन को वश में करना है, जिससे मानवीय लक्ष्य प्राप्त करने में वह मित्र बना रहे। मन को वश में किए बिना योगा यास करना मात्र समय को नष्ट करना है।

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जो साधक अपने मन को वश में नहीं कर सकता, वह सतत् अपने परम शत्रु के साथ निवास करता है और इस तरह उसका जीवन तथा लक्ष्य दोनों ही नष्ट हो जाते हैं।

जीव का स्वरूप यह है कि वह अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करे। अत: जब तक मन अविजित शत्रु बना रहता है, तब तक मनुष्य को काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि की आज्ञाओं का पालन करना होता है परन्तु जब मन पर विजय प्राप्त हो जाती है तो मनुष्य इच्छानुसार उस भगवान की आज्ञा का पालन करता है, जो सबके हृदय में परमात्म स्वरूप स्थित है।

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वास्तविक योगा यास हृदय के भीतर परमात्मा से भेंट करना तथा उनकी आज्ञा का पालन करना है। जो व्यक्ति साक्षात कृष्णभावनामृत स्वीकार करता है, वह भगवान की आज्ञा के प्रति स्वत: समर्पित हो जाता है।

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