क्यों ग्रहण काल में बरतनी चाहिए सावधानी ?

Edited By Jyoti,Updated: 09 Jul, 2019 10:28 AM

why should be careful in the eclipse period

हिंदू धर्म के विभिन्न शास्त्रों में सूर्य और चंद्र ग्रहण का विशेष महत्व है। अगर ज्योतिष शास्त्र  की मानें तो सूर्य व चंद्र ग्रहण मात्र एक दिवस न होकर एक पर्व की भांति हैं।

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हिंदू धर्म के विभिन्न शास्त्रों में सूर्य और चंद्र ग्रहण का विशेष महत्व है। अगर ज्योतिष शास्त्र  की मानें तो सूर्य व चंद्र ग्रहण मात्र एक दिवस न होकर एक पर्व की भांति हैं। किंतु पर्व कृपा प्राप्ति के साथ-साथ यह सजगता का भी पर्व है। यही कारण है कि सूर्य और चंद्र ग्रहण के समय खास प्रकार की सावधानियां बरतने की मान्यता है। कहा जाता है कि ग्रहण के समय ब्रह्मांड में होने वाले अभूतपूर्व परिवर्तनों का प्रभाव न केवल मनुष्य पर बल्कि पशुओं, पक्षियों और वनस्पतियों आदि पर भी पड़ता है।

चलिए आगे जानते हैं ग्रहण काल से जड़ी कुछ खास बातें-
शास्त्रों और खगोलीय दृष्टिकोण के अनुसार सूर्य ग्रहण तीन प्रकार के होते हैं। जब चंद्रमा पूर्ण रूप से पृथ्वी को अपने छाया क्षेत्र में ले लेता है तो इस स्थिति को पूर्ण सूर्य ग्रहण कहा जाता है। पूर्ण सूर्य ग्रहण में पृथ्वी पर अंधकार जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। चंद्रमा सूर्य के प्रकाश को पूरी तरह से रोक देता है। आंशिक सूर्य ग्रहण में जब सूर्य व पृथ्वी के बीच चंद्रमा आता है तो सूर्य पर उसकी आंशिक छाया ही पड़ती है। यह स्थिति आंशिक सूर्य ग्रहण कहलाती है। इसी प्रकार जब सूर्य का केवल मध्य भाग ही चंद्रमा के छाया क्षेत्र में आता है तो स्थिति को वलयाकार सूर्य ग्रहण कहा जाता है। चंद्र ग्रहण में चंद्रमा और सूर्य के बीच पृथ्वी आ जाती है। ऐसी स्थिति में चंद्रमा पृथ्वी की छाया से होकर गुजरता है। ऐसी स्थिति केवल पूर्णिमा के दिन ही होती है।
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आध्यात्मिक दृष्टि से सूर्य और चंद्र ग्रहण का विशेष महत्व बताया गया है। सूर्य को शक्तियों का भंडार कहा गया है। संसार के समस्त पदार्थों की संरचना सूर्य की रश्मियों के माध्यम से ही होती है। यदि सूर्य और उसकी रश्मियों के प्रभावों को समझा जाए तो इसके आश्चर्यजनक परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। सूर्य की प्रत्येक रश्मि में विशेष अणु होते हैं। अणुओं के इस संगम से ही परमाणु की रचना होती है। ग्रहण काल में सूर्य अपनी पूर्ण क्षमता से इन रश्मियों को विकीर्ण करता है। ग्रहण का अर्थ-लेना अथवा स्वीकार करना है। हमारे ऋषि मुनियों ने सूर्य ग्रहण के प्रभावों पर गहन अनुसंधान किया था। सूर्य ग्रहण के समय अपने भीतर के अंधकार को मिटाने के लिए दैविक आराधना, पूजा-अर्चना, दान पुण्य और स्नान आदि का विशेष विधान है। सूर्य और चंद्र ग्रहण का प्रभाव समस्त मानवता पर पड़ता है। ग्रहण के समय केवल मनुष्य ही प्रभावित नहीं होता, बल्कि समूची प्रकृति पर ग्रहण का प्रभाव पड़ता है। ग्रहण काल में देखने को मिलता है कि अनायास पशुओं में नकारात्मकता और उत्तेजना जन्म लेने लगती है। पक्षी अपने घोंसलों में छिप जाते हैं और कई प्रकार के पुष्प अपनी पंखुडिय़ां समेट लेते हैं।

सूर्य और चंद्र ग्रहण के समय अनेक प्रकार के खगोलीय परिवर्तन भी होते हैं जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य जीवन अनेक प्रकार से प्रभावित होता है। वैदिक काल और शास्त्रों में कहा गया है कि ग्रहण काल में विशेष प्रकार की सजगता जरूरी है क्योंकि ग्रहण अंधकार का विषय माना गया है।

ऋग्वेद में कहा गया है कि राहु सूर्य को ग्रसता है जिसके कारण सूर्य अंधकारमय हो जाता है। इस अंधकार से मनुष्य जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं इसलिए वैदिक काल में इस अंधकार को दूर करने के लिए अनेक प्रकार के आध्यात्मिक अनुष्ठान बताए गए हैं। शास्त्रों में निहित है कि सूर्य और चंद्र ग्रहण के समय विशेष प्रकार के मंत्र मनुष्य की रक्षा करते हैं। आध्यात्मिक अनुष्ठानों और दिव्य बीज मंत्रों के प्रभाव से ग्रहण की नकारात्मकता समाप्त हो जाती है।

सनातन और वैदिक परम्परा के अनुसार ग्रहण के समय अनेक प्रकार की सावधानियां बरतनी चाहिएं। ऐसी मान्यता है कि ग्रहण के समय कीटाणु समस्त वातावरण में बहुलता से फैल जाते हैं। यही कारण है कि ग्रहण के समय खाद्य वस्तुएं दूषित हो जाती हैं।
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सावधानियां-
* सूर्य और चंद्र ग्रहण के समय खाने की वस्तुओं में तुलसी और कुशा डाल देनी चाहिए। मान्यता है कि ग्रहण के समय उत्पन्न होने वाले कीटाणु तुलसी और कुश में एकत्र हो जाते हैं जिन्हें ग्रहण के बाद फैंक दिया जाता है। ग्रहण के बाद स्नान करने का विधान बनाया गया है ताकि इस अवधि में हमारे शरीर में जो भी कीटाणु प्रवेश करें वे नष्ट हो जाएं। कीटाणु नष्ट होने से मनुष्य अपनी ऊर्जा को पुन: प्राप्त कर लेता है।

ग्रहण काल में भोजन के लिए मना किया गया है। ऐसी मान्यता है कि ग्रहण के समय में उत्पन्न होने वाले कीटाणु सभी प्रकार की खाद्य वस्तुओं और जल को दूषित कर देते हैं। यह भी कहा गया है कि सूर्य और चंद्र ग्रहण के समय मनुष्य के पेट की पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है इसलिए भोजन करने से अनेक प्रकार की शारीरिक व्याधियों की आशंका रहती है। कीटाणुओं और उनसे होने वाली व्याधियों से बचने के लिए ही ग्रहण काल में भोजन को वॢजत बताया गया है।

पौराणिक मान्यता के अनुसार चंद्र ग्रहण के समय कफ की प्रधानता बढ़ती है जबकि सूर्य ग्रहण के समय पेट, नेत्र और पित्त प्रभावित होते हैं। गर्भवती महिलाओं के लिए ग्रहण काल में विशेष प्रकार की व्यवस्थाएं  की गई हैं। गर्भवती स्त्री को सूर्य व चंद्र ग्रहण नहीं देखना चाहिए क्योंकि इसके दुष्प्रभाव से गर्भस्थ शिशु विकलांग भी हो सकता है। कई स्त्रियों में ग्रहण काल के दौरान गर्भपात की आशंका भी रहती है।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार चंद्र और सूर्य ग्रहण के समय गर्भवती स्त्री के उदर भाग पर गोबर और तुलसी का लेप किया जाना चाहिए ताकि राहू और केतु गर्भस्थ शिशु को स्पर्श न कर सकें। ग्रहण रूपी अंधकार को राहू और केतु भी माना गया है। ये दोनों छाया ग्रह हैं इसलिए इनकी छाया से गर्भवती स्त्री को बचना चाहिए।

सूर्य और चंद्र ग्रहण के समय गर्भवती महिलाओं को कैंची या चाकू का प्रयोग नहीं करना चाहिए। ऐसी मान्यता है कि कैंची या चाकू से कुछ काटने पर गर्भस्थ शिशु के अंग कट जाते हैं। ग्रहण काल में सभी वर्गों के लिए व्यवस्था की गई है कि ग्रहण लगने से पूर्व स्नान आदि से निवृत्त होकर पूजा-पाठ, यज्ञ आदि करना चाहिए।

ग्रहण की अवधि में तेल लगाना, भोजन करना, सोना, केश विन्यास करना, मंजन करना, स्त्री प्रसंग करना आदि वॢजत हैं। ग्रहण समाप्त हो जाने के बाद भी तुरंत स्नान करना चाहिए। ग्रहण काल में बालकों, रोगियों व वृद्धों के लिए कोई नियम नहीं हैं।
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