ऊर्जा संकट के बीच जर्मनी को सौर ऊर्जा के रूप में मिला उपहार

Edited By DW News,Updated: 15 Aug, 2022 02:37 AM

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ऊर्जा संकट के बीच जर्मनी को सौर ऊर्जा के रूप में मिला उपहार

यूक्रेन-रूस युद्ध ने रूसी गैस पर जर्मनी की अत्यधिक निर्भरता को उजागर किया है और उसे ऊर्जा के दूसरे विकल्पों की तलाश के लिए विवश भी किया है. सौर ऊर्जा इन विकल्पों में से एक है जिसका जर्मनी पहले से ही उपयोग कर रहा है.यूरोप इस समय कई तरह के संकटों से घिरा हुआ है. जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा की बढ़ती मांग, यूक्रेन में युद्ध और तेल और गैस के वितरण में रूस की बदली भूमिका की वजह से ऐसा लगता है कि यह महाद्वीप एक नए युग में पहुंच गया है. इन सब स्थितियों में जर्मनी भी एक कोने में फंस गया है. जर्मनी अपने उद्योगों को चलाने के लिए सस्ते आयातित प्राकृतिक गैस पर बहुत निर्भर है. जर्मनी में कई बिजलीघर भी बिजली बनाने के लिए गैस का इस्तेमाल करते हैं. इसलिए तत्काल कोई भी विकल्प तलाशना लगभग असंभव है. जर्मनी में ऊर्जा संकट से निपटने के लिए कई तरह के विकल्पों पर चर्चा हो रही है. इनमें ऊर्जा की मांग को घटाने से लेकर उन परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को चालू रखना भी शामिल है, जिन्हें इस साल के अंत तक बंद कर देना है. इसके अलावा बड़े बड़ी बड़ी पवन चक्कियां भी चल रही हैं. हालांकि बहुत से लोग इन्हें अपने घरों के आस-पास नहीं लगाना चाहते हैं. यह भी पढ़ेंः 2022 होगा अक्षय ऊर्जा के नये रिकॉर्ड का साल जर्मन सौर ऊर्जा उद्योग के लिए एक बड़ा अवसर पर्यावरण कार्यकर्ता हमेशा से ये मानते रहे हैं कि बिजली जलाये रखना है तो उसका जवाब ऊर्जा के नवीनीकृत या अक्षय स्रोतों में ही ढूंढना होगा. हालांकि इनके लिए जरूरी आधारभूत संरचना के निर्माण में अभी वक्त लगेगा. वहीं कुछ जानकार सौर ऊर्जा में फिर भविष्य तलाश रहे हैं तो कुछ कहना है कि सौर ऊर्जा में तेजी आ रही है. यूक्रेन में युद्ध से पहले ही ऊर्जा सुरक्षा को प्राथमिकता सूची में रखते हुए जर्मन सरकार ने वादा किया था कि साल 2030 तक पवन और सौर ऊर्जा जैसे ऊर्जा के नवीनीकृत स्रोतों की कुल बिजली उत्पादन में 80 फीसदी हिस्सेदारी होगी, जबकि अभी इनकी हिस्सेदारी महज 42 फीसदी है. सरकार ने कह रखा है कि साल 2035 तक बिजली का उत्पादन कार्बनमुक्त हो जाएगा. यह भी पढ़ेंः रसभरी और बिजली एक साथ एक ही खेत में यह एक महत्वाकांक्षी योजना है लेकिन जर्मनी इस पर आगे बढ़ चुका है. व्यापारिक मामलों की रिपोर्टिंग करने वाली पत्रिका पीवी मैगजीन ने लिखा है कि जुलाई लगातार तीसरा महीना था जब ऊर्जा उत्पादन रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच गया था. एक महीने में फोटोवोल्टाइक सिस्टम से 8.23 टेरावाट घंटे बिजली पैदा की गई जो कि कुल बिजली उत्पादन का पांचवां हिस्सा थी. इससे ज्यादा सिर्फ लिग्नाइट से चलने वाले बिजली संयंत्र ही थे जिनसे करीब 22 फीसद बिजली का उत्पादन हुआ. साल 2021 में जर्मनी ने अपनी ऊर्जा उत्पादन क्षमता में पांच गीगावॉट की क्षमता और जोड़ा जो कि साल 2020 की तुलना में दस फीसदी ज्यादा थी. इस तरह से कुल सौर ऊर्जा क्षमता 59 गीगावॉट हो गई. पीवी मैगजीन ने जनवरी में लिखा था कि सौर ऊर्जा ने जर्मनी में पवन ऊर्जा को पीछे छोड़ दिया. फ्राइबुर्ग स्थित फ्राउनहोफर इंस्टीट्यूट फॉर सोलर एनर्जी सिस्टम्स में फोटोवोल्टाइक मॉड्यूल्स और पॉवर प्लांट रिसर्च के प्रमुख हैरी विर्थ कहते हैं कि पिछले साल का सौर ऊर्जा उत्पादन जर्मनी में कुल बिजली खपत का करीब नौ फीसद था. डीडब्ल्यू से बातचीत में विर्थ कहते हैं, "सरकार का लक्ष्य साल 2032 तक करीब 250 गीगावाट सौर ऊर्जा का उत्पादन करने का है. अनुमानों के मुताबिक, साल 2030 तक बिजली की खपत बढ़कर 715 टेरावाट हो जाएगी. इसलिए अगर हम मान लें कि 2032 में 730 टेरावाट घंटे बिजली चाहिए, तो हमें अपनी कुल बिजली खपत में से करीब तीस फीसदी हिस्सा फोटोवोल्टाइक बिजली के लिए रखना होगा.” ऊर्जा विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि ज्यादा से ज्यादा सोलर पैनल लगाने के लिए कीमती जमीन का इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं है. इन्हें इमारतों की छत के अलावा इमारतों के बाहरी हिस्सों पर भी लगाया जा सकता है और यहां तक कि इलेक्ट्रिक गाड़ियों के बाहर भी. विर्थ कहते हैं, "यह ना सिर्फ जहां लगे हैं, वहीं के लिए बिजली पैदा करेंगे बल्कि इस बिजली का इस्तेमाल अन्य जगहों के लिए भी हो सकेगा.” यह भी पढ़ेंः तीन सालों में सौर, पवन ऊऱ्जा क्षमता को दोगुना करेगा चीन जर्मन सौर ऊर्जा में विदेशी निवेश ऐसा नहीं है कि सौर ऊर्जा को लेकर सिर्फ शोधकर्ता ही सोच-विचार कर रहे हैं बल्कि व्यावसायिक जगत के लोग भी इस बारे में काफी गंभीर हैं. जुलाई में पुर्तगाल की क्लीन एनर्जी फर्म ईडीपी रेनोवेवीज ने घोषणा की कि वो जर्मनी की क्रोनोस सोलर परियोजना में 70 फीसदी भागीदारी करने पर सहमत हो गई है. क्रोनोस सोलर प्रोजेक्ट 254 अरब डॉलर की परियोजना है. इस कंपनी के पोर्टफोलियो में 9.4 गीगावॉट की सौर परियोजनाओं को पूरा करने का उल्लेख है जो कंपनी ने जर्मनी, फ्रांस, नीदरलैंड और यूनाइटेड किंग्डम में विभिन्न चरणों में किया है. इसमें से करीब पचास फीसदी काम कंपनी ने जर्मनी में किया है. ईडीपीआर का दावा है कि वो अक्षय ऊर्जा का उत्पादन करने वाली दुनिया की चौथी सबसे बड़ी कंपनी है. कंपनी के मुताबिक, साल 2022 में महज छह महीनों में उसने 17.8 टेरावॉट घंटे बिजली का उत्पादन किया है. ईडीपीआर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी मिग्वेल स्टिलवेल डी एंद्रे कहते हैं कि उन्हें खासकर जर्मनी से काफी उम्मीदें हैं क्योंकि अक्षय ऊर्जा के मामले में यह यूरोप का एक प्रमुख बाजार है. ब्रेक पर जर्मन नीति कई लोगों को जर्मनी की सौर ऊर्जा विकास का दृष्टिकोण कुछ ज्यादा ही लुभावना लग सकता है. एक समय जर्मनी सौर ऊर्जा के मामले में अग्रणी देशों में शुमार था और कई साल तक दुनिया भर में कुल सौर ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा अकेले साझा कर रहा था. उस शुरुआती सफलता में सरकारी समर्थन की भी अहम भूमिका थी. इस सरकारी सहयोग के चलते कुछ लोगों को बड़ी राहत मिली क्योंकि बिजली की दरें कम हो गईं लेकिन इससे बिजली कंपनियों के मुनाफे में भी कमी आई जिसकी वजह से नियमों में बदलाव की मांग तेज होने लगी. नए नियमों और अक्षय ऊर्जा स्रोत अधिनियम में बदलाव के कारण फीड इन टैरिफ घट गया जिसकी वजह से सौर ऊर्जा के मामले में जो तेजी दिख रही थी, वह धीमी पड़ने लगी. फीड इन टैरिफ की वजह से कंपनियों को लंबे समय तक ग्रिड एक्सेस मिल जाती है और बाजार मूल्य से ऊपर की कीमत की गारंटी मिल जाती है जिससे नई कंपनियों को पैर जमाने में काफी सहूलियत होती है. कम वित्तीय प्रोत्साहन के साथ उद्योग को प्रतिस्पर्धियों के लिए खुला छोड़कर एक तरह से उपेक्षित किया गया. सौर ऊर्जा की आधारभूत संरचना की गति लाल फीताशाही, सप्लाई चेन बैकलॉग, अकुशल तकनीकी श्रमिक और उत्पादित बिजली के स्टोरेज की समुचित व्यवस्था नहीं होने के कारण भी धीमी होती गई. विर्थ कहते हैं, "यूक्रेन में युद्ध और ऊर्जा के मामले में रूस पर यूरोप की निर्भरता को लेकर बहस छिड़ गई है. ऐसी स्थिति में पीवी के विस्तार की महत्वाकांक्षा को मजबूती प्रदान करेगा.” लेकिन इस इलाके में सौर ऊर्जा के लिए सबसे बड़ी चुनौती चीन से मिल रही है. चीन पर अत्यधिक निर्भरता चीन ने शुरुआती दौर में फोटोवोल्टाइक तकनीक में काफी दिलचस्पी दिखाई है अमेरिका, जापान और जर्मनी को इस बात के लिए धन्यवाद दिया कि उन्होंने उत्पादकों को सरकारी सब्सिडी दी. आज सभी बातें सौर ऊर्जा पर केंद्रित हो गई हैं. इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी की एक नई रिपोर्ट कहती है, "चीन ने करीब पचास अरब डॉलर का निवेश पीवी सप्लाई क्षमता में किया जो कि यूरोप की तुलना में दस गुना ज्यादा है. साथ ही सोलर पीवी चेन में साल 2011 से लेकर अब तक तीन लाख से ज्यादा रोजगार सृजित किए.” आज दुनिया भर में सोलर पैनल बनाने की कुल क्षमता का 80 फीसदी हिस्सा चीन का है और फोटोवोल्टाइक मैन्युफैक्चरिंग उपकरण बनाने वाली दस शीर्ष कंपनियां चीन की ही हैं. रिपोर्ट के मुताबिक, इन तथ्यों के आधार पर कई अविश्सनीय वास्तविकताएं भी सामने आई हैं, मसलन, "दुनिया भर में बन रहे हर सात में से एक पैनल में एक ही देश की सामग्री लगी हुई है.” अर्थव्यवस्था के इन मानदंडों ने कीमतें कम कर दीं और चीन में यूरोप की तुलना में सौर ऊर्जा से जुड़े उपकरण 35 फीसद तक कम कीमत में बन सकता है. इसकी वजह से चीन इस मामले में ताकतवर हो गया और इस उद्योग के लिए अपरिहार्य हो गया है. इस उद्योग को विस्तार देने और बाजार में अपनी पैठ बढ़ाने के लिए यूरोप को नई खोजों में निवेश करना होगा और सौर ऊर्जा के विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता में रखना होगा. विर्थ कहते हैं कि जर्मनी में कई उच्च तकनीक युक्त फोटोवोल्टाइक निर्माता और शोध संस्थान हैं लेकिन सौर ऊर्जा के उपकरणों को बनाने वाली सिर्फ एक कंपनी है जो कि उच्च गुणवत्ता वाली हेट्रोजंक्शन तकनीक में निपुण है. यह ठीक है कि इस समय यूरोप का फोटोवोल्टाइक उद्योग बिखरा हुआ है और उस तरह से नहीं है जैसा कि कभी हुआ करता था, फिर भी विर्थ सौर ऊर्जा तकनीक की बढ़ती मांग को देखते हुए इसके भविष्य को बेहतर देख रहे हैं.

यह आर्टिकल पंजाब केसरी टीम द्वारा संपादित नहीं है, इसे DW फीड से ऑटो-अपलोड किया गया है।

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