मनमानी वसुंधरा की, कीमत चुकाई पार्टी ने

Edited By Anil dev,Updated: 13 Dec, 2018 10:52 AM

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चुनाव से करीब छह महीने पहले शुरू हुई सत्ता विरोधी हवा को न पहचानना सूबे की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की बड़ी भूल रही। इसी के चलते महारानी को सत्ता से हाथ धोना पड़ा। उनके मंत्रिमंडल के 20 मंत्री चारों खाने चित हो गए और पार्टी का प्रदर्शन 2008 से भी...

नई दिल्ली: चुनाव से करीब छह महीने पहले शुरू हुई सत्ता विरोधी हवा को न पहचानना सूबे की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की बड़ी भूल रही। इसी के चलते महारानी को सत्ता से हाथ धोना पड़ा। उनके मंत्रिमंडल के 20 मंत्री चारों खाने चित हो गए और पार्टी का प्रदर्शन 2008 से भी कमजोर रहा। राजस्थान में वसुंधरा राजे और पार्टी आलाकमान के बीच आपसी मनमुटाव, प्रदेश अध्यक्ष अशोक परनामी को हटाने के बाद दूसरा प्रदेश अध्यक्ष बनाने में टकराव से लेकर टिकटों के बंटवारे में सीएम के जबरदस्त दबाव ने चुनावों में पार्टी का जनाधार गिराने में भूमिका निभाई। इसलिए पार्टी की हालत 2008 से भी बुरी हो गई, जब राजे ने सत्ता गंवाने के बावजूद अपने बल पर पार्टी को 78 सीटें दिलाई थी। इस बार रथ 73 सीटों से आगे न बढ़ सका। 

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सर्वे में मिल चुके थे सत्ता विरोधी हवा के संकेत
विधानसभा चुनाव से पहले पूरे प्रदेश में पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व की ओर से कराए गए सर्वे में सत्ता विरोधी हवा के संकेत मिल चुके थे, लेकिन वसुंधरा के वजूद और धमकियों के आगे पार्टी नेतृत्व को झुकना पड़ा। यहीं से राजस्थान में भाजपा की किस्मत की नई पटकथा लिखनी शुरू हुई। इसको पर्दे पर लाने में जहां बड़े नेताओं की भूमिका कम नहीं रही तो मतदाताओं ने भी कसर नहीं छोड़ी। इस चुनाव में पार्टी कार्यकर्ताओं का गुस्सा खुलकर तब सामने आया जब यह नारा चलाया गया था कि मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं। यह नारा कर्मचारी वर्ग का था, लेकिन पार्टी के ही असंतुष्ट वर्ग ने इसको हवा दी। पार्टी नेतृत्व की मंशा थी कि मुख्यमंत्री राजे को नहीं हटाकर उनके मंत्रिमंडल के दागी मंत्रियों और करीब 100 ऐसे विधायकों को टिकट न दिए जाएं, जो अपने क्षेत्र में कमजोर पड़ रहे हैं। वसुंधरा इस पर सहमत नहीं हुईं। नतीजा वही सामने आया जिसका आशंका थी।  

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वसुंधरा अब लड़ेंगी लोकसभा चुनाव
अब यह लगभग तय लग रहा है कि वसुंधरा राजे न तो नेता प्रतिपक्ष जैसे पद पर रहेंगी और न ही राज्य की राजनीति में ज्यादा सक्रिय रहेंगी। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि वे लोकसभा चुनाव के माध्यम से केंद्र की राजनीति में जाएंगी और वहां अपना रुतबा बढ़ाने का प्रयास करेंगी।

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काम न आए योगी 
योगी आदित्यनाथ के दौरे काम नहीं आए, बल्कि हनुमान की जाति बता उन्होंने धर्मनिष्ठ लोगों को आहत ही किया। पार्टियों के स्टार प्रचारकों के दौरों व निम्न स्तर की भाषा के हथियारों से लड़े गए इस युद्ध में विकास का मुद्दा ही नहीं नोटबंदी, जीएसटी और महंगाई जैसे मुद्दे तक हवा हो गए।

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