फांसी की बजाय सीने पर गोली खाकर वीरगति को प्राप्त होना चाहते थे शहीद भगत सिंह

Edited By Sonia Goswami,Updated: 28 Sep, 2018 09:21 AM

bhagat singh birth anniversary

आज भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह की 111वीं जयंती है। भगत सिंह आजादी के ऐसे नायक रहे, जिनके ऊपर सबसे ज़्यादा फिल्में बनी हैं। आजादी के लिए उनकी लड़ाई और कठोर संघर्ष, शादी के लिए घर से भाग जाने के किस्से लगभग सभी ने सुने होंगे, लेकिन आज हम...

नई दिल्लीः आज भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह की 111वीं जयंती है। भगत सिंह आजादी के ऐसे नायक रहे, जिनके ऊपर सबसे ज़्यादा फिल्में बनी हैं। आजादी के लिए उनकी लड़ाई और कठोर संघर्ष, शादी के लिए घर से भाग जाने के किस्से लगभग सभी ने सुने होंगे, लेकिन आज हम आपको उनकी ज़िंदगी से जुड़ा वह किस्सा बताएंगे, जब उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई गई। क्या आप जानते हैं कि भगत सिंह ने अपने लिए कैसी शहादत के सपने देखे थे?

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भगत सिंह सैनिकों जैसी शहादत चाहते थे। वह फांसी की बजाय सीने पर गोली खाकर वीरगति को प्राप्त होना चाहते थे। यह बात उनके लिखे एक पत्र से जाहिर होती है। उन्होंने 20 मार्च 1931 को पंजाब के तत्कालीन गवर्नर से मांग की थी कि उन्हें युद्धबंदी माना जाए और फांसी पर लटकाने की बजाय गोली से उड़ा दिया जाए, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उनकी यह मांग नहीं मानी।

 

भगत लाहौर के नैशनल कॉलेज में पढ़ते थे। 5 फुट, 10 इंच के भगत सिंह को नाटकों में अभिनय करने का बहुत शौक था। साथ ही वह फिल्में देखने के भी शौकीन थे। अंग्रेज अफसर जॉन सॉन्डर्स को मारने से पहले भी उन्होंने 'अंकल टॉम्स केबिन' फिल्म देखी थी। यह अमेरिकी लेखक हैरिएट बीचर स्टो के गुलामी के खिलाफ लिखे गए एक नॉवेल पर आधारित थी।  

 

जब भगत सिंह ने कानपुर जाने के लिए घर छोड़ा था, उस वक्त उनके माता-पिता उनकी शादी करवाने की कोशिश में थे। तब भगत सिंह ने उनसे कहा कि अगर वह परतंत्र भारत में शादी करेंगे तो उनकी दुल्हन केवल मौत होगी। इसके बाद उन्होंने घर छोड़कर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसिएशन जॉइन कर ली।

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सुखदेव के साथ मिलकर उन्होंने लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने का फैसला करते हुए लाहौर में सुपरिंटेंडेंट ऑफ पुलिस जेम्स स्कॉट को मारने की योजना बनाई, लेकिन, गलत पहचान के चलते जॉन स्कॉट की जगह असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट ऑफ पुलिस जॉन सॉन्डर्स को मौत के घाट उतार दिया।

 

एक सिख होने के बाजवूद उन्होंने अपने बाल कटवाए और अपनी दाढ़ी भी साफ करवा ली, ताकि जॉन स्कॉट को मारने के बाद उन्हें कोई पहचानकर अरेस्ट न कर ले। जॉन सॉन्डर्स की हत्या के बाद वह भागकर लाहौर से कलकत्ता चले गए थे। इस घटना के एक साल बाद उन्होंने और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली के सेंट्रल असेंबली हॉल में बम फेंका और इन्कलाब जिंदाबाद का नारा बुलंद किया। इस मौके पर उन्होंने अपनी गिरफ्तारी का भी विरोध नहीं किया।

 

बम फेंकने की घटना की जांच के दौरान ही ब्रिटिशर्स को जॉन सॉन्डर्स की हत्या में भगत सिंह कि संलिप्तता के बारे में भी पता चला। अपने ट्रायल के दैरान होने वाली पेशी में भी भगत सिंह ने अपना बचाव करने की जगह आजादी की अपनी विचारधारा को ही प्रचारित-प्रसारित करने का काम किया।

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7 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई। उनकी सजा पर अंतिम मुहर 14 फरवरी 1931 को लगी थी, जब प्रिवी काउंसिल में अपील खारिज होने के बाद कांग्रेस पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष मदन मोहन मालवीय ने इरविन के समक्ष भगत सिंह की फांसी माफ करने के लिए एक दया याचिका लगाई थी। इस याचिका को खारिज कर दिया गया था।

 

जेल प्रवास के दौरान भगत सिंह विदेशी और देशी कैदियों के बीच जेल में होने वाले भेद-भाव के खिलाफ भूख हड़ताल की। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 24 मार्च 1931 को फांसी दी जानी थी, लेकिन पूरे देश में प्रदर्शन हो रहे थे और लाहौर में भीड़ जुटने लगी थी। इस कारण भीड़ के किसी तरह के उन्माद से बचने के लिए उन तीनों को तय समय से 11 घंटे पहले 23 मार्च 1931 को शाम 7 बजकर 33 मिनट पर फांसी पर लटका दिया गया।


जिस वक्त भगत सिंह जेल में थे, उन्होंने कई किताबें पढ़ीं। कहते हैं कि फांसी पर जाने से पहले भी वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनकी फांसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने तय समय से पहले फांसी दिए जाने पर कोई सवाल नहीं किया, बल्कि सिर्फ इतना कहा था, 'ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।' फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले, 'ठीक है अब चलो।'


उनकी मृत्यु की खबर को लाहौर के दैनिक ट्रिब्यून तथा न्यू यॉर्क के एक पत्र के डेली वर्कर ने छापी। इसके बाद भी कई मार्क्सवादी पत्रों में उन पर लेख छपे, लेकिन भारत में उन दिनों मार्क्सवादी पत्रों के आने पर प्रतिबन्ध लगा था, इसलिये भारतीय बुद्धिजीवियों को इसकी खबर नहीं थी।

 

कहते हैं कि फांसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाए, इसके डर से अंग्रेजों ने पहले तीनों शहीदों के मृत शरीर के टुकड़े किए, फिर उन्हें बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गए, जहां घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा। गांव के लोगों ने आग जलती देखी तो वहां जमा होने लगे। उसी दौरान वहां लाला लाजपत राय की बेटी पार्वती देवी और भगत सिंह की बहन बीबी अमर कौर सहित हजारों की संख्या में लोग पहुंच गए। इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गए।

 

लोगों ने तीनों शहीदों के अधजले शवों को आग से निकाला और फिर उन्हें लाहौर ले जाया गया, जहां 24 मार्च की शाम हजारों की भीड़ ने पूरे सम्मान के साथ उनकी शव यात्रा निकाली। उनका अंतिम संस्कार रावी नदी के किनारे उस जगह के पास किया गया जहां लाला लाजपत राय का अंतिम संस्कार हुआ था और भगत सिंह हमेशा के लिए अमर हो गए।

 

कहा जाता है कि कोई भी मैजिस्ट्रेट इस फांसी का गवाह नहीं बनना चाहता था। ऑरिजनल डेथ वॉरंट एक्सपायर होने के बाद खुद जज ने वॉरंट पर साइन किए और इन तीनों की फांसी को सुपरवाइज किया। कहते हैं कि भगत सिंह फांसी के फंदे तक मुस्कुराते हुए पहुंचे और ब्रिटिश हुकूमत को ललकारते हुए उनके आखिरी शब्द थे- ब्रिटिश साम्राज्यवाद मुर्दाबाद। इस भारतीय शहीद को जब फांसी दी गई, उस समय उनकी उम्र मात्र 23 साल थी। उनकी शहादत से प्रेरणा लेकर कई और नौजवान आजादी के युद्ध में कूद पड़े।

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