आदमी को मूल स्वभाव के अनुसार ही काम करना चाहिएः आशुतोष

Edited By Seema Sharma,Updated: 30 Aug, 2018 09:59 AM

man should work according to original nature ashutosh

पत्रकारिता में सर्वोच्च कुर्सी को छोड़ आम आदमी पार्टी में शामिल होने वाले और फिर साढ़े चार साल बाद राजनीति से तौबा करने वाले आशुतोष अब फिर से मूल जिंदगी जीने में लग गए हैं। अब वह अपने आप को राजनीति के लिए फिट नहीं मान रहे हैं।

नई दिल्लीः पत्रकारिता में सर्वोच्च कुर्सी को छोड़ आम आदमी पार्टी में शामिल होने वाले और फिर साढ़े चार साल बाद राजनीति से तौबा करने वाले आशुतोष अब फिर से मूल जिंदगी जीने में लग गए हैं। अब वह अपने आप को राजनीति के लिए फिट नहीं मान रहे हैं। आशुतोष ने बुधवार को पंजाब केसरी/नवोदय टाइम्स/जग बाणी/हिन्द समाचार कार्यालय में राजनीति और पुराने दिनों को लेकर चर्चा की।

तो, पिंजरे से मुक्ति मिल गई?
कह सकते हैं। मेरा मानना है कि जहां मन न लगे, वहां से हट जाना चाहिए। पिछले दो-तीन महीने से मन उखड़ा हुआ था।

ये क्या मैसेज भी है कि आदमी जिस मूल काम को करे, उसे वही करना चाहिए?
मूल काम करना चाहिए। पत्रकारिता शुरू से अच्छी लगती थी। 23-24 साल गुजारे हैं। सब कुछ जानते-समझते हैं, लेकिन एक वक्त के बाद समझ में आता है कि मूल काम ज्यादा बेहतर ढंग से कर सकते हैं।
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चार साल के राजनीतिक करियर में क्या सीख है?
राजनीति बुरी चीज नहीं है। प्रैक्टिकल अनुभव के बाद कह सकता हूं। यहां अच्छे लोगों को जाना चाहिए। दिक्कत यहां आती है कि यदि आपका वह मूल स्वभाव नहीं हो, तो वहां काम नहीं कर पाएंगे।
 

यानी, आदमी को मूल स्वभाव से हटकर काम नहीं करना चाहिए?
ऐसा भी नहीं है, कुछ लोग दिशा बदलकर बहुत अच्छा करते हैं। विदेशों में तो लोग दिशा बदलते हैं फिर वापस मूल काम पर आ जाते हैं। हमारे देश में ऐसा नहीं है। राजनीति में है तो पत्रकारिता नहीं कर सकता। एक ठप्पा लगा दिया जाता है। कहा जाता है निष्पक्ष नहीं हो सकते। देश में इसको लेकर बदलाव होना जरूरी है।

बतौर राजनीतिक विश्लेषक टी.वी. चर्चा में हिस्सा लिया, कैसी अनुभूति रही?
टी.वी. की दुनिया को सालों जिया है। दोबारा वहीं पहुंचा तो खुद को घर पर होने जैसा पाया। देखना होगा कि लोग कब तक मुझे निष्पक्ष तौर पर स्वीकार कर पाएंगे। जैसे आज एक सवाल के जवाब में कहा कि नक्सलियों के संदर्भ में कांग्रेस, सी.पी.एम. व भाजपा किसी को बोलने का अधिकार नहीं है। ये बात एक पत्रकार कह सकता है, जो कि राजनेता नहीं कह सकता।
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कोरेगांव की घटना पर क्या कहना चाहते हैं? क्या ये कार्रवाई अतिरेक में जाकर हो रही है?
भीमा कोरेगांव का मसला अर्बन नक्सली नहीं, बल्कि दलितों का मसला है। इससे पहले ऊना में दलितों की पिटाई और रोहित वेमुला की हत्या काफी सुॢखयों में रहीं। दोनों मसलों के बाद भीमा कोरेगांव का मसला हुआ। यहां दलितों ने माना कि हिन्दू राष्ट्र-ब्राह्मणवाद का पतन हो गया। हमारे लिए उत्थान का प्रश्न है, जिसे सैलिब्रेट करना था। इस पर 5 लोगों को गिरफ्तार करते हैं। जो लोग भीमा कोरेगांव की हिंसा में शामिल रहे, उन्हें गिरफ्तार नहीं करते तो जमीन पर रहने वाला दलित उसी अंदाज में लेगा कि मेरे ऊपर अत्याचार करने वाले खुले घूम रहे हैं। ये काम मोदी जी जैसा शार्प राजनीतिज्ञ नहीं समझ पा रहा हो, ऐसा संभव नहीं है। मुझे तो लगता है कि मोदी के खिलाफ साजिश की जा रही है और उनसे सच छिपाया जा रहा है।

जबसे आपने ‘आप’ को ज्वाइन किया, तब से मीडिया दो धड़ों में बंटता दिख रहा है। ऐसे बदलाव पर क्या कहेंगे?
2014 के बाद से पूरे देश का बुद्धिजीवी वर्ग दो खेमों में बंट गया है। एक दक्षिण पंथ, दूसरा आप उसे लिबरल या लैफ्ट कह सकते हैं। ऐसा हिन्दुस्तान में पहले नहीं था। यह नई चीज है। ऐसे में टी.वी. चैनल्स भी इसमें बंटे हुए हैं तो हैरानी वाली बात नहीं है। अगर, एंकर वामपंथ या दक्षिणपंथ की बात करता है, तो दिक्कत नहीं है। समस्या यह है कि आज के कुछ बड़े चैनल्स सुबह से लेकर शाम तक मोदी जी का गुणगान करते हैं और विपक्ष को निशाने पर लेते हैं। यह पत्रकारिता नहीं है। यह दुखद है।
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आज की राजनीति में आप नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी व केजरीवाल को किस तरह देखेंगे?
देखिए, मैं फिर कहता हूं कि अभी मैं पूर्वाग्रह से ग्रसित हूं। आज अरविंद केजरीवाल को बुरा कहूंगा तो लोग कहेंगे कि देखो पार्टी छोड़कर गया है तो गाली दे रहा है। अच्छा कहूंगाकि तो कहेंगे कि देखो फिर चमचागिरी कर रहा है। मैं सही पात्र नहीं हूं। यह जरूर बता सकता हूं कि राहुल गांधी, नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार नेता के तौर पर कैसे हैं? इनका निष्पक्ष आकलन किया है। हो सकता है कि 6 महीने बाद अरविंद केजरीवाल या ‘आप’ सरकार का आकलन निष्पक्ष तौर पर कर पाऊं।

2019 के चुनाव को लेकर आपको क्या लगता है? 
2019 का चुनाव नरेंद्र मोदी को जिताने या हराने के लिए ही होगा। 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी ने खुद को मसीहा के तौर पर देश में पेश किया था, उस समय कांग्रेस को हराने के लिए चुनाव हुए, इस बार देश मोदी से पांच सालों का हिसाब लेगा। उसी के अनुसार वोट पड़ेंगे।  
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गुप्ता टाइटल वाली बात अब क्यों याद आई?
ऐसा नहीं है कि यह बात अभी याद आई। 2014 के लोकसभा चुनाव में नाम के साथ गुप्ता लगाने पर मैंने विरोध किया था। लेकिन, मुझे समझाया गया था कि चुनाव जीतने के लिए ऐसा करना पड़ता है। यही नहीं गुप्ता जुडऩे के बाद समाज के लोग मेरा सम्मान करने के लिए आने लगे। मैंने, मना कर दिया तो मेरे पिता जी से शिकायत की गई। यह सब भूलने वाला नहीं है। हां, आज जब आप नेता आतिशी के नाम से टाइटल हटाने का मामला उठा तो मेरे भीतर का पत्रकार जाग गया और मैंने गुप्ता टाइटल वाली बात ट्वीट कर दी।
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पत्नी ने समझाया था कि सहन नहीं कर सकते तो छोड़ दो
आम आदमी पार्टी छोड़ दी, अब पत्रकार की हैसियत से रहना कितना संभव होगा?

पहली बात यह है कि जब मैं राजनीति में आया तो ज्यादातर लोग मुझे पत्रकार मानते थे। मैं  खुद को संपादक समझता था। जब कोई पत्रकार मुझसे से सवाल पूछता था, तो लगता था कि इसकी हिम्मत कैसे हो रही है? डेढ़-दो महीनों के बाद पत्नी ने मुझे समझाया कि अब सुधर जाओ। अब संपादक नहीं हो। जैसे तुम सवाल करते थे, वैसे ही पत्रकार करेंगे। अगर, सहन नहीं कर सकते, तो सब छोड़ दो। इसके बाद खुद को बदला। अब 5 साल बाद कह सकता हूं कि राजनीतिज्ञ तो कभी नहीं बन पाया, पत्रकार ही रहा। जब आम आदमी पार्टी में थे तो पार्टी का अनुशासन था। अब बंदिशें नहीं हैं।

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