India's Red Corridor: लाल गलियारों की नई हकीकत, बंदूकों की जगह अब नशे की खेती; जानिए कैसे बदल रहा है पूर्वी भारत का चेहरा

Edited By Updated: 28 Aug, 2025 07:09 PM

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पूर्वी भारत का लाल गलियारा जहां कभी माओवादी हिंसा का असर था अब नशे की खेती का केंद्र बन रहा है। झारखंड, बिहार और ओडिशा के कई जिले अफीम और गांजे की खेती से जुड़े हैं। गरीब किसान मजबूरी में इसमें शामिल हो रहे हैं और नक्सली व ड्रग माफिया उन्हें सुरक्षा...

नेशनल डेस्क: पूर्वी भारत का ‘लाल गलियारा’ कभी माओवादी हिंसा और बंदूकों की गूंज के लिए जाना जाता था लेकिन अब इन इलाकों की तस्वीर धीरे-धीरे बदल रही है। उग्रवाद अब कम हो रहा है लेकिन ध्यान देने वाली बात ये है कि इसके साथ एक नई समस्या भी जन्म ले रही है अफीम और गांजे की खेती। यह खेती अब यहां की गरीब जनता, बचे हुए कुछ नक्सली और अंतरराज्यीय ड्रग नेटवर्क का मजबूत सहारा भी बन चुकी है।

बता दें कि माओवाद एक राजनीतिक विचारधारा है जो चीन के नेता माओ त्से तुंग के सिद्धांतों पर आधारित है। इसमें माना जाता है कि गरीब और किसानों को सरकार और पूंजीपतियों के खिलाफ हथियार उठाकर अपनी आवाज बुलंद करनी चाहिए ताकि समाज में बराबरी लाई जा सके। वहीं माओवादी हिंसा का मतलब इस विचारधारा को मानने वाले नक्सली या उग्रवादी समूह... सरकार, पुलिस और आम लोगों पर हमला करते हैं। वे बम धमाके, गोलीबारी और अपहरण जैसी हिंसक घटनाएँ भी करते हैं ताकि अपनी मांगें सरकार से मनवा सकें।

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ड्रग माफियाओं का स्वर्ग

पिछले दो दशकों से झारखंड, बिहार और ओडिशा जैसे राज्य नक्सली हिंसा से सबसे ज्यादा प्रभावित रहे लेकिन सुरक्षा बलों और सरकार की योजनाओं ने माओवाद को काफी हद तक कमजोर कर किया है। बंदूकें भले ही अब कम चल रही हों, मगर इन इलाकों में नशे का कारोबार उतनी ही तेजी से फलफूल रहा है। लोगों का मानना है कि माओवादी बहुल इलाके अब ड्रग माफियाओं के लिए ‘स्वर्ग’ बन चुके हैं। यहां अफीम और गांजे की खेती से होने वाला मुनाफा सीधा अंतरराष्ट्रीय बाजार तक पहुंच बना चुका है और ये लगातार जारी है।

जंगल बन रहे अफीम का गढ़

झारखंड के कई जिले जैसे चतरा, पलामू, हजारीबाग, खूंटी, पश्चिमी सिंहभूम और रांची के कुछ इलाके अफीम की खेती के बड़े केंद्र बन गए हैं। इन इलाकों की जमीन और मौसम दोनों अफीम के लिए बहुत ही सही मानी जाती है। अफीम के पौधों से एक दूधिया गाढ़ा रस निकलता है। यही रस सूखने पर नशे वाला पदार्थ बन जाता है और इसे आगे प्रोसेस करके हेरोइन जैसी ड्रग तैयार की जाती है। जिसकी कीमत काले बाजार में लाखों रुपये होती है। यही कारण है कि गरीब किसान भी मजबूरी और लालच में आकर अफीम और गांजे की खेती में अब धीरे-धीरे शामिल हो रहे हैं।

आपसी मिलीभगत से चलता है पूरा सिस्टम

यह जानते हुए दुख भी होगा कि इन नक्सल प्रभावित इलाकों में खेती से आमदनी बहुत ही कम है। ज्यादातर ग्रामीण या तो भूमिहीन हैं यानि उनके पास जमीन ही नही है या फिर उनकी खेती इतनी उपजाऊ नहीं है कि घर का खर्च चल सके। ऐसे में नशे की खेती उनके लिए कमाई का आसान जरिया बन गई है। नक्सली और बड़े ड्रग गिरोह किसानों को सुरक्षा और पैसा भी देते हैं ताकि वे अफीम और गांजे की खेती आसानी से कर सकें। इसके बदले में किसानों को उनकी जमीन पर अफीम या गांजे की खेती करनी पड़ती है। इस आपसी मिलीभगत ने पूरे लाल गलियारे को धीरे-धीरे ‘ग्रीन जोन’ यानी नशीली खेती का केंद्र बना दिया है।

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लाल गलियारा क्या है?

भारत के जिन जिलों में नक्सलियों का प्रभाव सबसे ज्यादा है, उन्हें ‘लाल गलियारा’ कहा जाता है। बता दें मार्च 2025 तक यह गलियारा सात राज्यों के 18 जिलों तक सीमित हो चुका है। इनमें झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और मध्य प्रदेश शामिल हैं। साल 1967 के नक्सलबाड़ी आंदोलन से शुरू हुआ यह विद्रोह दशकों तक सरकार और ग्रामीण आदिवासियों के बीच संघर्ष का कारण बना रहा। नक्सली दावा करते थे कि वे शोषित और जमीन से वंचित किसानों के हक के लिए लड़ रहे हैं।

सरकार की कमी पूरी करते थे नक्सली

लाल गलियारे के ज्यादातर राज्य जैसे झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ गरीब और पिछड़े हैं। यहां का मानव विकास सूचकांक कम है, बेरोजगारी और अशिक्षा ज्यादा है। बिजली, पानी और स्वास्थ्य सेवाओं जैसी बुनियादी सुविधाएं कई इलाकों में अब भी नदारद हैं। यही कारण रहा कि लोग नक्सलियों का समर्थन करते रहे क्योंकि वे इन इलाकों में वे काम करने लगे जो कहीं न कहीं जो सरकार की जिम्मेदारी थी, जैसे वे पानी की टंकियां बनवाते, गरीबों को पैसा बांटते और यहां तक कि छोटे-छोटे विवाद भी आपस में ही सुलझा लेते थे।

सरकार का दावा और सच्चाई

भारत सरकार का कहना है कि नक्सली आम लोगों को सरकारी योजनाओं का फायदा नहीं लेने देते। लेकिन सच्चाई यह भी है कि राज्य की अनुपस्थिति ने लोगों को नक्सलियों के सहारे जीने पर मजबूर कर दिया। अब जब नक्सलवाद कमजोर हुआ है तो वही खाली जगह ड्रग माफियाओं ने भरनी शुरु कर दी है। गरीब जनता को जितना सहारा पहले नक्सलियों से मिला था, अब उतना ही फायदा उन्हें नशे की खेती से हो रहा है।

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कितने जिले अब भी प्रभावित हैं?

2000 के दशक के अंत तक देश में करीब 180 जिले नक्सलियों के असर में थे। लेकिन सरकार की सख्त कार्रवाई और विकास योजनाओं से हालात अब धीरे-धीरे सुधरने लगे है। जानकारी के अनुसार अप्रैल 2024 तक प्रभावित जिलों की संख्या घटकर 38 रह गई है। इनमें से 6 जिले अभी भी सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। झारखंड में अब सिर्फ पश्चिमी सिंहभूम को सबसे ज्यादा असर वाला जिला माना जाता है लेकिन अब भी अफीम और गांजे की खेती झारखंड के कई और जिलों में फैल रही है।

अफीम और गांजा कैसे पहुंचता है अंतरराष्ट्रीय बाजार तक?

झारखंड और बिहार में उगाए गए अफीम और गांजे को सबसे पहले लोकल लेवल पर इकट्ठा किया जाता है। इसके बाद यह ड्रग नेटवर्क के जरिए पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और नेपाल तक पहुंचाया जाता है। नेपाल से यह पूरी खेप अंतरराष्ट्रीय बाजारों जैसे दक्षिण-पूर्व एशिया और यूरोप तक भी भेजी जाती है। यही कारण है कि नशे की खेती को खत्म करना आसान काम नहीं है।

सरकार रोक पाएगी इस ‘नशे के लाल गलियारे’ को?

सरकार ने कई बार अफीम की खेती नष्ट करने के लिए कई अभियान चलाए हैं, लेकिन हर बार ये खेत दोबारा उग आते हैं। कहीं न कहीं इसका सबसे बड़ा कारण ग्रामीणों की मजबूरी और मुनाफे का लालच है। वास्तव में जब तक इन इलाकों में रोजगार, शिक्षा और बुनियादी सुविधाएं नहीं पहुंचेंगी तब तक अफीम और गांजे की खेती को खत्म करना संभव नही है।

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