सुशासनः चुनौतियां एवं समाधान

Edited By Punjab Kesari,Updated: 15 Sep, 2017 11:58 AM

good governance  challenges and solutions

प्रजातांत्रिक शासन पद्धति के पार्दुभाव के बाद प्रशासन कला का व्यापक रूप में क्षेत्र विस्तार हुआ, इसमें सभी नागरिकों, सामाजिक संस्थाओं और संगठनों, विधायिका और कार्यपालिका, मीडिया, प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक, उद्यमियों सभी राजनीतिक दलों आदि ...

प्रजातांत्रिक शासन पद्धति के पार्दुभाव के बाद प्रशासन कला का व्यापक रूप में क्षेत्र विस्तार हुआ, इसमें सभी नागरिकों, सामाजिक संस्थाओं और संगठनों, विधायिका और कार्यपालिका, मीडिया, प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक, उद्यमियों सभी राजनीतिक दलों आदि को इनमें भागीदारी निभाने का अवसर प्राप्त हुआ। सुशासन के निष्पादन और उसे साकार करने में अपना सहयोग देने और अपने उत्तरदायित्व को रचनात्मक रूप से निभाने का मौका मिला। समाज के समुचित विकास, उसकी शांति एवं समृद्धि के लिए सुशासन पहली शर्त है। सुशासन के अंतर्गत बहुत सी चीजें आती हैं जिनमें अच्छा बजट, सही प्रबंधन, कानून का शासन, सदाचार आदि। इसके विपरित पारदर्शिता की कमी या संपूर्ण अभाव, जंगलराज, लोगों की कम भागीदारी, भ्रष्टाचार का बोलबाला आदि दुःशासन के लक्षण हैं।

 


आर.एस. तिवाड़ी ने अपने लेख सुशासन जनवादी प्रजातंत्र से उत्कृष्ट प्रजातंत्र में कहा है कि यथार्थ सकारात्मक संभावनाओं को अपनाने के लिए निरंतर वैश्विक बदलावों को मार्गदर्शन की आवश्यकता है जो वास्तविकता में केवल शासन ही कर सकता है। अतः हम कह सकते हैं कि अच्छा शासन एक ऐसी घटना है जो सरकार की तीन शाखाओं, कार्यकारी, विधायी तथा न्यायिक के दक्षतापूर्ण कार्यों पर निर्भर होती है यह तभी संभव है जब सरकार का प्रत्येक अंग सत्यनिष्ठा तथा वचनबद्धता के साथ कार्य करता है। सामान्यतः जब लोग अच्छे या बुरे प्रशासन की बात करते हैं तो उनका इशारा कार्यपालिका की ओर होता है वे प्रशासन के शेष दो अंगों के महत्व को भूल जाते हैं साथ ही अन्य पक्षों को भी भूल जाते हैं जो प्रशासन के स्वरूप के निर्धारण के भागीदार होते हैं आम जनता खुद मीडिया और इसी तरह के अन्य/प्रशासन के अच्छे या बुरे स्वरूप के निर्धारण में सभी का हाथ होता है कम या अधिक।

 

सुशासन सरकार के तीन लक्षण हैं-पारदर्शी, जबावदेही एवं उत्तरदायी सरकार। ये तीनों ही लोकतांत्रिक सरकार के मूलाधार हैं। सरकार मुखयतः जनता के लिए कार्य करती हैं तथा उन्हें सामाजिक, आर्थिक एवं सामान्य सेवाएं प्रदान करती है। ये सेवाएं नागरिक केन्द्रित होने के कारण नागरिकों द्वारा बहुतायत में प्रदान की जाती है। प्रत्येक नागरिक सरकार में सेवा प्रदाता विभाग से यह अपेक्षा करता है कि उसे वांछित सेवा शीघ्र एवं बिना किसी अवरोध के समय पर मिल जाए। विकास की ओर बढ़ रहे लगभग सभी राज्य यह प्रयास कर रहे हैं कि वे अपने नागरिकों को बेहतर सेवाएं समय पर व कुशलतापूर्वक प्रदान कर सुशासन के सिद्धातों के साकार करे। सुशासन की संकल्पना के विश्लेषण से आठ विशेषताएं-भागीदारी,आम सहमति उन्नमुख, जवाबदेह, पारदर्शी, उत्तरदायी, प्रभावी तथा सक्षम, न्यायसंगत तथा समावेशी एवं कानून के शासन का पालन करता है।

 

आज देश के सामने जो प्रमुख निर्णायक प्रश्न खड़े हैं उनमें अच्छा शासन या गुड गर्वनेंस सबसे महत्वपूर्ण है। देश की विशालता उसकी सामाजिक और धार्मिक विविधता, परंपराएं और विश्व स्तर पर हो रही घटनाओं का दबाव हमारे समक्ष कई तरक ही चुनौतियां प्रस्तुत कर रहा है। देश के प्रजातांत्रिक संविधान के तहत हमारी यह प्रतिबद्धता है कि भारत के हर नागरिक को गुणवत्तापूर्ण जीवन जीने की व्यवस्था हो। समाज की एक स्वाभाविक अपेक्षा है कि आम आदमी को न केवल जरूरत की सभी चीजें मिले बल्कि उसके विकास और समृद्धि की संभावना भी बनी रहे। यह दायित्व आज के जनसंख्‍या विस्फोट के दबाव और उसके अनुरूप अपेक्षित संसाधनों की कमी के कारण एक बहुत बड़ी चुनौति बन गया है इसके लिए सक्रिय और प्रभावी शासन तंत्र अनिवार्य रूप से आवश्यक हो गया है।

 

अपने सामाजिक जीवन की यात्रा में मनुष्य ने आज जिस सभ्यता के उच्चतम पायदान को छुआ है उसमें समाज की व्यवस्था के लिए कुछ पद्धतियों का निर्माण क्रांतिकारी था। झुंड और कबीलों में रहने वाला आदमी शारीरिक शक्ति को ही सब कुछ मानता था और जिसमें सबसे ज्यादा ताकत होती थी उसी का रूतबा रहता था। शासन का कोई भी सिद्धात तब तक कारगर नहीं समझा जा सकता, जब तक कि उसे उसके समकालीन समय में न परखा जाए। पूरी दुनिया के नागरिक राष्ट्र-राज्य और इसके विभिन्न अंगों के उच्च स्तरीय परफार्मेस की अपेक्षा रखते हैं। यह जरूरी है कि नागरिकों को राजनीतिक प्रक्रिया में स्वतंत्र, खुले और पूर्ण रूप से भाग लेने का अधिकार मिले। 

 

सुशसान स्थाई राजनीतिक नेतृत्व, कारगर नीति निर्माण और सिविल सेवा पेशेवर लोकाचार के माध्यम से ही संभव है। सुशासन के लिए एक मजबूत नागरिक समाज, स्वतंत्र प्रेस और स्वतंत्र न्यायपालिका का होना पूर्व शर्तें हैं। समाज में ही प्रशासन की अवधारणा निहित है और समाज का स्वरूप प्रशासन के अनुरूप ढलता है तथा प्रशासन ही समाज के स्वरूप को व्यक्तकरता है। समाज के समुचित विकास, उसकी शांति एवं समृद्धि के लिए सुशासन पहली शर्त होती है। 

 

सामान्यतः जब लोग अच्छे या बुरे प्रशासन की बात करते हैं तो उनका इशारा कार्यपालिका की ओर होता है जो प्रशासन के शेष दो अंगों के बारे में भूल जाते हैं। साथ ही, वे अन्य पक्षों को भी भूल जाते हैं जो प्रशासन के स्वरूप के निर्धारण में भागीदार होते हैं- आम जनता खुद, मीडिया और इसकी तरह के अन्य। प्रशासन के अच्छे या बुरे स्वरूप के निर्धारण में सभी का हाथ होता है-कम या अधिक। बिना लोगों की भागीदारी बिना लोगों की आवाज और बिना लोगों के प्रतिनिधित्व के किसी भी कार्यक्रम का कार्यान्वयन महज यंत्रवत होगा। राजनीतिक लाभ उठाने और विरोध के नाम विरोध करते रहने से राष्ट्र का अहित होता है। रचनात्मक विरोध प्रजातंत्र की आत्मा, सुशासन का प्राण है। यह आवश्यक है कि विपक्ष कार्यपालिका पर जागरूक नजर और सतत्‌ निगरानी रखे, लेकिन साथ यह भी जरूरी है कि ऐसा करने में उसकी नियत निरंतर रचनात्मक हो। न्यायिक समीक्षा के तहत पारित आदेशों के प्रति अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने से पूर्व विधायकों और सांसदों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे उनका पूरी तरह अध्ययन, विचार विश्लेषण प्रत्येक दृष्टिकोण से कर लेंगे। सुशासन की स्थापना एवं संचालन-परिचालन में सरकार के विधायिका अंग का भी दायित्व बनता है,इस तथ्य को हमेशा ध्यान में रखकर कार्यवाही की जानी चाहिए।सुशासन के सामने मुख्य चुनौति सामाजिक विकास से जुड़ी हुई। 14 अगस्त, 1947 को अपने भाषण नियति के साथ साक्षात्कार में पं. नेहरू ने इस चुनौति को गरीबी, अज्ञानता, बीमारियों और अपर्याप्त अवसरों की समाप्ति को माना था। सुशासन का मुख्य उद्देश्य गरीबी उन्मूलन और सामाजिक अवसरों के विस्तार का होना चाहिए। 

 

राष्ट्र के प्रशासनिक ढांचे में न्यायपालिका को उच्च एवं निर्णायक स्थान प्राप्त है। न्यायपालिका द्वारा दंड न्याय पद्धति के प्रशासन के उच्चतर मानदंडों की स्थापना की अपेक्षा की जाती है क्योंकि यही सुशासन की कुंजी है। सार्वजनिक सेवा वितरण के मामले में भारतीय प्रशासनिक परिदृश्य की झोली में जहां बहुत थोड़े से सफल उदाहरण हैं वहीं ढेर सारी दयनीय प्रदर्शनी भी हैं। सार्वजनिक सेवा के मामले में सबसे बड़ी कमी सरकारी तंत्र की लचर जवाबदेही है।

 

आम जनता और खासकर सभ्य और श्रेष्ठजनों में गिने चुने लोगों द्वारा अपने दायित्व बोध के प्रति नकारात्मक रवैया भी सुशासन की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। समाज और प्रशासन में गिरावट और अन्य सभी कठिनाइयों के लिए केवल सरकार और प्रशासन को दोष देकर हम अपने हिस्से के दायित्व से नहीं बच सकते, हम भी समान रूप से दोषी हैं। प्रशासनिक मामलों में राजनीतिक हस्तक्षेप तथा राजनेता, अपराधकर्मी तथा नौकरशाह के त्रिकोण को जड़ से समाप्त कर दिया जाना चाहिए। ऐसे तत्व सु-प्रशासन और सामाजिक परिवेश को असीम क्षति पहुंचा रहे हैं। प्रशासन पर आतंकवादी समूह में अनायास दबाव कानूनों तथा हथियारों से इतना सशक्त बना दिया जाए कि कोई भी आतंकवादी प्रशासन की ओर टेढ़ी नजर डालने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। 

 

सुप्रशासन के क्षेत्र में मीडिया की भूमिका सर्वोच्च स्थान रखती है। यह प्रशासन को भटकाव से बचाती है और उसके प्रत्येक काम पर पैनी नजर भी रखती है अब मीडिया औद्योगिक घरानों की बपौती है। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का दोनों अंग टी.आर.पी. और विज्ञापनों के पीछे पागल है। सुप्रशासन से उम्मीद की जाती है कि वह चुपचाप एक तमाशबीन बना नहीं बैठा रहेगा और उपर्युक्त व प्रभावी उपायों के माध्यम से आम नागरिकों की सुरक्षा की भावना को अक्षुण्ण रखेगा। 

सुशासन तभी संभव है जब सरकार के तीनों अंग, समाज के सभी लोग और मीडिया, सभी शुद्ध मन से सहयोग करें अपने दायित्वों को समझें और उनका पूरी तरह निर्वाह करे अपने अधिकारों के प्रति सजग तो रहे पर साथ ही अपने कर्त्तव्यों को नहीं भूलें और पूरी ईमानदारी से उनका पालन करे। सुप्रशासन केवल घर बैठकर बातें करने, दूसरों को दोषी ठहराने में समय बर्बाद करने से नहीं आएगा उसे लाने के लिए हमें मुस्तैद होना होगा, अपने स्वार्थों को त्यागकर जुट जाना होगा। सुशासन सिर्फ संशोधित राजनीतिक विचारों और संस्थानों द्वारा हासिल नहीं किया जा सकता इसके लिए संकीर्ण मानसिकता को त्यागकर मूल्य आधारित एक मजबूत संस्कृति की आवश्यकता होगी।

 

वैसे भी इस मुल्क में अच्छी योजनाएं क्रियान्वयन के स्तर पर ही आकर दम तोड़ती रही है। लाखों करोड़ों के बजटीय आवंटनों और योजना आयोग स्तर पर बनती रही योजनाओं का पूरा लाभ आम आदमी को अब तक नहीं मिल सका है इसके कई कारण हो सकते हैं राजनीतिज्ञों और अफसरों का भ्रष्ट गठजोड़, जनता का जागरूकता न होना, मीडिया की संवेदनहीनता या अपर्याप्त बजटीय प्रावधान। इसी सबके कारण भारत और इंडिया के बीच का बड़ा फर्क आज भी कायम है। यही वजह है कि आबादी का बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे जिंदगी गुजारने को मजबूर है दूसरी तरफ हमारे नीति निर्माता पांच रूपये से लेकर 22 रूपये में दिन बिताने के कुतर्क देते रहे हैं। यह उसी मुल्क की तस्वीर है जहां एक तरफ हर दो घंटे में तीन किसान आत्महत्या करते हैं जबकि दूसरी तरफ लाखों-करोड़ों के घोटालों को हमारे माननीय सामान्य घटना करार देते हैं।

 

वैसे नरेन्द्र मोदी भी मुख्यमंत्री के तौर पर ऊर्जा, कृषि, बुनियादी ढांचा, उद्योग और महिला सुरक्षा जैसे मुद्दों पर खुद को साबित कर चुके हैं। जाहिर है अब प्रधानमंत्री के तौर पर खुद को साबित करने की है। सरकारी कर्मचारियों का कार्यालयों में समय से पहुंचना, फाईलों को जल्द से जल्द निपटाना, ई-टेंडरिंग, स्व-सत्यापन, औचित्यहीन कानूनों को खत्म करना या लोगों के सुझाव जानने के लिए वेबसाइट की लांचिंग जैसे ढेरों कदम मोदी सरकार के सुशासन के दावे को मजबूत करते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि नैतिक रूप से सशक्त सरकार ही सुशासन दे सकती है तो क्या तीन दशक के बाद बहुमत हासिल करने वाली मौजूदा सरकार ही वह सशक्त सरकार है जो इस देश में सुशासन ला सकती है। संघीय ढांचे के लिहाज से यह थोड़ा मुश्किल भरा लगता है दरअसल जरूरी नहीं कि सुशासन दिवस को गैर भाजपाई राज्य सरकरें भी गंभीरता से लें। इसी राजनीति के चलते इस मुल्क में सुशासन का इंतजार बहुत लंबा है लेकिन इस बीच कुछ सवाल भी हैं मसलन क्या लोकपाल जैसे कानून ही सुशासन की गारंटी है या मामला कहीं ज्यादा व्यापक और जटिल है? सवाल यह भी है कि सुशासन लाने के लिए जिम्मेदार क्या सिर्फ राजनेता हैं या इसके लिए हमारी कार्यपालिका कहीं ज्यादा जवाबदेह है?

 


दुर्भाग्य से देश के शासन को संचालित करने वाले कायदे कानून अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे हैं। उनमें से अधिकांश हमारी जरूरतों के हिसाब से ठीक नहीं है क्योंकि वे मूलतः एक उपनिवेश को चलाने के लिए बने थे। आज स्थिति यह है कि उनसे हमारी समस्याओं का समाधान नहीं हो पा रहा है इस दृष्टि से यह जान पड़ता है कि देश की वर्तमान न्यायिक व्यवस्था में बहुत से सुधार लाने की जरूरत है साथ ही शक्ति केन्द्रित होकर राजा और महाराजा की व्यवस्था केंद्रित हुई, जिसमें सत्ता एक व्यक्ति में केंद्रित रहती थी बाकी सभी जनता या प्रजा की कोई आवाज नहीं रहती थी राजशाही भी बहुत दिनों तक एक मात्र व्यवस्था के रूप में केंद्रित रही इसमें आम आदमी की शासन में भागीदारी बहुत थोड़ी रहती थी, प्रजा हित या अहित शासक की पसंद-नापसंद पर निर्भर करता था।

 

प्रजा को प्रजा की दृष्टि से समझ पाना या न समझ पाना राजा की समझदारी और सहानुभूति का मोहताज रहता था, इसके विकल्प के रूप में जनतंत्र की व्यवस्था का बनना और उसका प्रयास मनुष्य के सामाजिकता की महती उपलब्धि थी। जनतंत्र का दूसरा नाम प्रजातंत्र भी है जिसमें प्रजा द्वारा प्रजा के लिए व्यवस्था बनाई जाती है, लागू की जाती है और उसकी सीमा में कर्त्तव्यों का संचालन और निगरानी भी की जाती है। राजशाही से प्रजातंत्र की यह यात्रा आसान न थी तथा आज भी विश्व के कई देश इस व्यवस्था से वंचित हैं और उन देशों की जनता अनेक प्रकार की यातनाएं सह रही हैं।

 

हम भारतीय बड़े सौभाग्यशाली हैं कि आधुनिक युग में हमारा प्रजातंत्र न केवल अक्षुण्ण है बल्कि प्रगति के मार्ग पर आगे बढ़ रहा है। देश में शिक्षा, विज्ञान, स्वास्थ्य और तकनीकी क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति की है ऐसा होने पर भी हम यह दावा नहीं कर सकते कि देश में सब कुछ ठीक ही चल रहा है। भ्रष्टाचार व लालफीताशाही, घोटाले, दूरदर्शिता के अभाव आदि के कारण विकास के प्रयास उतने कारगर नहीं हो सके जितने होनी चाहिए, योजनाओं का लाभ गरीबों और पिछड़ों तक नहीं पहुंच पाया। गरीबी, अशिक्षा व आर्थिक मोर्चों पर हम अभी पिछड़े हुए हैं। आम जनता अनेक कठिनाइयों से जूझ रही है। आज की तमाम समस्याओं और चुनौतियों को देखकर यह दावा नहीं कर सकते कि हमारी वर्तमान व्यवस्था सुशासन अर्थात्‌ अच्छे शासन की कसौटियों पर कितना खरा उतर पाएगी यह आने वाला समय ही बताएगा।

 

सामाजिक, आर्थिक विषमता में वृद्धि के साथ देश में मुकद्दमों की संख्‍या में बड़ी तेजी से वृद्धि हुई है परिवारों का टूटना, गांवों से लोगों का मोह भंग और पलायन के कारण कई तरह की समस्याएं उभरी हैं। साथ ही धोखाधड़ी और घोटालों में भी बहुत ज्यादा बढ़ोतरी हुई है यह सब चौंकाने वाला है और इससे आम आदमी का भरोसा उठता जा रहा है। नई सरकार को इन चुनौतियों से निपटना होगा आम लोगों ने जो आकांक्षा संजोए रखी है उसे पूरा करना सरकार की चुनौती होगी। निस्संदेह रूप से सुशासन की अवधारणा का संबंध नागरिकों के जीवन के अधिकार, स्वतंत्रता और खुशी से जुड़ा हुआ है। 

 

एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह सब कुछ केवल कानून के शासन से ही प्राप्त किया जा सकता है कोई भी व्यक्ति कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा अपने जीवन या स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता। इस तरह राज्य हर व्यक्ति के जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए बाध्य है। किसी भी प्रशासनिक कार्रवाई की वैधता को परखने का न्यायालय को अंतिम अधिकार है। आज न्यायिक जवाबदेही की प्रक्रिया के कारण ही तमाम विधायक और मंत्री जेल भेजे जा चुके हैं। जनजागरूकता के लिए जागरूकता कार्यक्रम चलाने और मौजूदा भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसियों को और सशक्त
बनाने की जरूरत है। सूचना का अधिकार जन प्रशासन के क्षेत्र में सुधार का महत्वपूर्ण संकेत है।

भारत के राष्ट्रीय मूल्य प्रणाली का प्रभाव प्रशासन के अलावा नागरिक सेवा, पुलिस और
न्यायपालिका का बौद्धकि निर्माण करता है। निर्णय लेने में नागरिक समाज की भागीदारी सार्वजनिक क्षेत्र में क्षमता निर्माण और कानून का राज गुणवत्तापूर्ण और समयबद्ध सेवा वितरण के लिए जरूरी है। किसी भी देश में सुशासन सरकार, बाजार और नागरिक समाज से सशक्त बनता है। सुशासन तभी संभव है जब सरकार के तीनों अंग समाज के सभी लोग और मीडिया सभी शुद्धमन से सहयोग करें। अपने दायित्व को समझें और उसका पूरी तरह निर्वाह करें। अपने अधिकारों के प्रति सजग तो रहें पर साथ ही अपने कर्त्तव्यों को भी न भूलें और पूरी ईमानदारी से उनका पालन करें। सुशासन को विकास एवं वैश्वीकरण के स्पष्ट सदृश्य के संदर्भ में देखा जाना चाहिए क्योंकि वर्तमान परिदृश्य में तीन अभिकर्त्ताओं राज्य, बाजार तथा नागरिक समाज के साथ शासन की अवधारणा अधिक प्रचलित हो रही है।


इस प्रकार सुशासन में सरकार, निजी क्षेत्र, गैर सरकारी संगठनों तथा सहकारिताओं के बीच सामंजस्यपूर्ण अर्न्तसंबध होता है। सरकार को जनता के लिए कुशल एवं प्रभावी सेवाओं पर ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता है क्योंकि जागरूक नागरिक वर्ग सरकार की सेवा सुदुर्दगी में अहम भूमिका निभा सकता है।


प्रमाणि‍त किया जाता है कि ‘’सुशासनः चुनौतियां एवं समाधान’’ मेरी मौलिक रचना है।

(डॉ. लाखा राम)

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