पद और धन के लोभ में आकर कर तो नहीं रहे ये भूल, वक्त रहते संभल जाएं अन्यथा...

Edited By ,Updated: 29 Aug, 2016 03:04 PM

religious story

महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद महाराजा युधिष्ठिर ने राज्य का शासन-भार अपने पोते परीक्षित को सौंप दिया। फिर वे चारों भाइयों और द्रौपदी के साथ हिमालय की ओर

महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद महाराजा युधिष्ठिर ने राज्य का शासन-भार अपने पोते परीक्षित को सौंप दिया। फिर वे चारों भाइयों और द्रौपदी के साथ हिमालय की ओर चले गए। परीक्षित जब राजा बने, तो उनके सामने शत्रुओं का कोई भय नहीं था, अत: वह अपना अधिक समय शिकार आदि में बिताने लगे। 
 
एक बार वह शिकार खेलने के लिए जंगल में गए। वहां उन्हें प्यास लगी। पानी की तलाश में भटकते हुए शमीक ऋषि के आश्रम में जा पहुंचे। संयोग की बात, ऋषि उस समय समाधि लगाए थे। परीक्षित ने इस पर कोई ध्यान न दिया। उन्होंने ऋषि से पानी मांगा। समाधि के कारण ऋषि को परीक्षित के आने तथा पानी मांगने का पता ही न चला। 
 
कोई उत्तर न पाकर परीक्षित को बड़ा क्रोध आया। वह ऋषि को दंड देने की सोचने लगे। अचानक ही परीक्षित को एक मरा हुआ सांप दिखाई दिया। क्रोध में तो थे ही। उन्होंने अपने धनुष की नोक से उस सांप को उठाकर, शमीक ऋषि के गले में डाल दिया और चले गए। समाधि में होने के कारण ऋषि को इस बात का पता भी न चला। 
 
कुछ देर बाद शमीक ऋषि का पुत्र शृंगी आश्रम में आया, तो उसने तप करते अपने पिता के गले में मरा हुआ सांप पड़ा देखा। उसे बड़ा क्रोध आया। पता लगा, वह अपवित्र कार्य किसी साधारण आदमी ने नहीं, बल्कि महाराजा परीक्षित ने किया था। उसने दुखी होकर उद्दंड, अविवेकी राजा को शाप दिया, ‘‘आज से सातवें दिन तक्षक नाग के डंसने से परीक्षित की मृत्यु हो जाएगी।’’ 
 
तप समाप्त होने पर शमीक को सारी घटना का पता चला, तो उन्हें बड़ा दुख हुआ। उन्होंने शृंगी से कहा, ‘‘पुत्र! राजा प्यास से दुखी था। भूख-प्यास की पीड़ा विवेक नष्ट कर देती है। परिस्थिति वश राजा के इस अविवेक के लिए तुम्हें इतना कठोर शाप नहीं देना चाहिए था। तुम ऋषि-पुत्र हो, तुम्हारा यह शाप मिथ्या नहीं होगा इसलिए परीक्षित को इसकी सूचना तुरन्त दे देनी चाहिए।’’ 
 
ऋषि के शाप का पता चलते ही परीक्षित घबरा गए। वह अपने बचाव का उपाय सोचने लगे। उन्होंने ठोस स्तंभों वाला बहुत ऊंचा और चिकना महल बनवाया। उस पर किसी प्रकार भी सांप के पहुंचने की आशंका न थी। परीक्षित उसमें ही निवास करने लगे। विषनाशक औषधियां तथा अनेक मांत्रिक भी उन्होंने अपने साथ रख लिए। वह निश्चित हो, सोचने लगे, ‘‘शमीक ऋषि मेरा कुछ न बिगाड़ सके, तो उनके पुत्र के शाप का असर अब कैसे होगा?’’ 
शृंगी के शाप से प्रेरित होकर सातवें दिन तक्षक तपस्वी के भेष में परीक्षित को डंसने जा रहा था। रास्ते में उसे एक वृद्ध विद्वान भी उसी ओर जाता मिला। तक्षक ने पूछा, ‘‘भाई! तुम कौन हो और कहां जा रहे हो?’’ 
 
विद्वान बोला, ‘‘मैं एक मांत्रिक विद्वान हूं। मेरा नाम काश्यप है। राजा परीक्षित को आज शृंगी ऋषि के शाप के अनुसार तक्षक नाग डंसने आएगा। मैं अपने मंत्र-बल से उस सर्प-विष को नष्ट कर, राजा को मरने से बचाऊंगा। इसके बदले मुझे बहुत-सा धन मिलेगा।’’ 
 
तक्षक का माथा ठनका और सोचते हुए बोला, ‘‘अच्छा! क्या तुम मंत्र बल से किसी मृतक को जीवित कर सकते हो?’’ 
 
विद्वान बोला, ‘‘हां, किसी विष-दुर्घटना से होने वाली अकाल मृत्यु को मैं जीवन में बदल सकता हूं।’’ 
 
‘‘मैं सामने के इस वृक्ष को विषदंत से जलाता हूं, तुम अपने मंत्र बल से इसे हरा करो तो मैं तुम्हारी मंत्र-शक्ति को सत्य मानूं।’’ यह कह कर तपस्वी बने तक्षक ने अपनी विष-ज्वाला से वृक्ष को जला दिया। 
 
विद्वान ने मंत्र से सिद्ध जल के छींटें जब वृक्ष पर फैंके, तो वृक्ष में कोंपलें फूट आईं। तक्षक को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने इस मांत्रिक को अपने रास्ते से हटाने की चाल चली। प्रसन्न होकर बोला, ‘‘मैं अपने तपोबल से ज्यादा शक्तिशाली तुम्हारी मंत्र-शक्ति को मानता हूं, पर यह बताओ जिस राजा को तुम बचाने जा रहे हो, उसके आचरण के बारे में जानते हो? वह बहुत अविवेकी है। सदा ब्राह्मणों, तपस्वियों तथा ऋषियों का अपमान करता है। अपने बुरे व्यवहार के लिए ऋषि से क्षमा मांगने की बजाय, ऊंचे भवन में बैठकर तुम जैसे मांत्रिकों की सहायता से ऋषि-शाप की खिल्ली उड़ाना चाहता है।’’ 
 
तक्षक ने देखा कि उसकी बात का असर मांत्रिक पर हो रहा है। वह आगे बोला, ‘‘एक बार और सोच लो। तक्षक का विष साधारण नहीं होगा। फिर उसके साथ शृंगी ऋषि के शाप की भक्ति भी है। यह तो तुम भी जानते हो, ऋषि-शाप बड़ा भयंकर होता है। उसे टाला नहीं जा सकता। कभी-कभी भगवान को भी उसे स्वीकार करना पड़ता है। अगर तक्षक के भयंकर विष तथा ऋषि-शाप के आगे तुम्हारी यह मंत्र शक्ति न चली तो उसका परिणाम बहुत बुरा होगा। धन की बजाय तुम्हें अपनी जान भी गंवानी पड़ सकती है इसलिए मेरी राय है तुम किसी ऋषि-शाप से टक्कर मत लो। जितना धन तुम्हें वहां से मिलने  वाला है, उससे अधिक मैं दे देता हूं। यह लो और वापस लौट जाओ।’’  
 
काश्यप परिस्थिति को समझ गया और वह तपस्वी से धन लेकर लौट गया। उधर तक्षक परीक्षित के लिए ले जाने वाले पूजा के फूलों में कीड़े के रूप में प्रवेश कर, महल में पहुंच गया। अवसर पाकर उसने परीक्षित को डंस लिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई। काश्यप धन लेकर अपने घर लौट आया। दूसरे दिन जब परीक्षित की मृत्यु का समाचार फैला तो लोग काश्यप के पास पता करने के लिए गए कि उसकी मंत्र-शक्ति कैसे निष्फल हो गई। 
 
काश्यप ने सारी बात बताई कि किस प्रकार वह वहां बिना गए ही लौट आया। काश्यप के इस आचरण की लोगों ने बड़ी निंदा की। कहने लगे, ‘‘राजा परीक्षित ब्राह्मणों, साधुओं का अनावश्यक अपमान करते हैं। यह बात तुम्हें पहले ही मालूम थी। अगर तुम राजा की मदद नहीं करना चाहते थे, तो जाना ही नहीं चाहिए था। राजा ने अपनी रक्षा के लिए तुम पर भरोसा किया। तुमने राजा के साथ विश्वासघात किया। तुम जैसा लोभी विद्वान, जो अपने कर्तव्य का पालन न करे, उसे समाज में रहने का कोई अधिकार नहीं। धन के जिस लोभ में तुमने अपना कर्तव्य नहीं निभाया, उस धन के लिए तुम जीवन भर दुखी रहोगे तथा शेष जीवन तुम्हें धनहीन होकर घोर दारिद्रय में बिताना पड़ेगा।’’ 
 
लोभ और विश्वासघात के कारण काश्यप का मंत्र-बल भी व्यर्थ चला गया। 
(श्रीमद्भागवत पुराण से)
गंगा प्रसाद शर्मा
(‘राजा पॉकेट बुक्स’ द्वारा प्रकाशित ‘पुराणों की कथाएं’ से साभार)

 

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