रहस्य: हरि भक्त ध्रुव के वंश में क्रूर जीव क्यों पैदा हुआ?

Edited By ,Updated: 28 Nov, 2016 02:26 PM

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ध्रुव के वनगमन के पश्चात उनके पुत्र उत्कल को राज सिंहासन पर बैठाया गया लेकिन वह ज्ञानी एवं विरक्त पुरुष थे, अत: प्रजा ने उन्हें मूढ़ एवं पागल समझ कर राजगद्दी से हटा दिया और उनके

ध्रुव के वनगमन के पश्चात उनके पुत्र उत्कल को राज सिंहासन पर बैठाया गया लेकिन वह ज्ञानी एवं विरक्त पुरुष थे, अत: प्रजा ने उन्हें मूढ़ एवं पागल समझ कर राजगद्दी से हटा दिया और उनके छोटे भाई भ्रमिपुत्र वत्सर को राजगद्दी पर बिठाया। उन्होंने तथा उनके पुत्रों ने लम्बी अवधि तक शासन किया। उनके ही वंश में एक राजा हुए-अंग। उनके यहां वेन नाम का पुत्र हुआ। 


वेन की निर्दयता से दुखी होकर राजा अंग वन को चले गए। वेन ने राजगद्दी संभाल ली। अत्यंत दुष्ट प्रकृति का होने के कारण अंत में ऋषियों ने उसे शाप देकर मार डाला। वेन की कोई संतान नहीं थी, अत: उसकी दाहिनी भुजा का मंथन किया गया। तब राजा पृथु का जन्म हुआ।


ध्रुव के वंश में वेन जैसा क्रूर जीव क्यों पैदा हुआ? इसके पीछे क्या रहस्य है? यह जानने की इच्छा बड़ी स्वाभाविक है। अंग राजा ने अपनी प्रजा को सुखी रखा था। एक बार उन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया था। उस समय देवताओं ने अपना भाग ग्रहण नहीं किया क्योंकि अंग राजा के कोई संतान नहीं थी। मुनियों के कथनानुसार-अंग राजा ने उस यज्ञ को अधूरा छोड़कर पुत्र प्राप्ति के लिए दूसरा यज्ञ किया। आहुति देते ही यज्ञ में से एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ। उसने राजा को खीर से भरा एक पात्र दिया। राजा ने खीर का पात्र लेकर सूंघा, फिर अपनी पत्नी को दे दिया। पत्नी ने उस खीर को ग्रहण किया। समय आने पर उनके गर्भ से एक पुत्र हुआ, किन्तु माता अधर्मी की पुत्री थी इस कारण वह संतान अधर्मी हुई। यही अंग राजा का पुत्र वेन था।


वेन के अंश से राजा पृथु की हस्तरेखाओं तथा पांव में कमल चिन्ह था। हाथ में चक्र का चिन्ह था। वे विष्णु भगवान के ही अंश थे। ब्राह्मणों ने राजा पृथु का राज्याभिषेक करके सम्राट बना दिया। उस समय पृथ्वी अन्नहीन थी। प्रजा भूखी मर रही थी। 


प्रजा का करुण क्रंदन सुनकर राजा पृथु अति दुखी हुए। जब उन्हें मालूम हुआ कि पृथ्वी माता ने अन्न, औषधि आदि को अपने उदर में छिपा लिया है तो वह धनुष-बाण लेकर पृथ्वी को मारने के लिए दौड़ पड़े। पृथ्वी ने जब देखा कि अब उनकी रक्षा कोई नहीं कर सकता तो वह राजा पृथु की शरण में आईं। जीवनदान की याचना करती हुई वह बोली, ‘‘मुझे मार कर अपनी प्रजा को सिर्फ जल पर ही कैसे जीवित रख पाओगे?’’


पृथु ने कहा, ‘‘स्त्री पर हाथ उठाना अवश्य ही अनुचित है, लेकिन जो पालनकर्ता अन्य प्राणियों के साथ निर्दयता का व्यवहार करता है उसे दंड अवश्य ही देना चाहिए।’’


पृथ्वी ने राजा को नमस्कार करके कहा, ‘‘मेरा दोहन करके आप सब कुछ प्राप्त करें। आपको मेरे योग्य बछड़ा और दोहन-पात्र का प्रबंध करना पड़ेगा।  मेरी सम्पूर्ण संपदा को दुराचारी चोर लूट रहे थे, अत: मैंने वह सामग्री अपने गर्भ में सुरक्षित रखी है। मुझे आप समतल बना दीजिए।’’


राजा पृथु संतुष्ट हुए। उन्होंने मनु को बछड़ा बनाया एवं स्वयं अपने हाथों से पृथ्वी का दोहन करके अपार धन-धान्य प्राप्त किया। फिर देवताओं तथा महर्षियों को भी पृथ्वी के योग्य बछड़़ा बनाकर विभिन्न वनस्पति, अमृत, सुवर्ण आदि इच्छित वस्तुएं प्राप्त कीं। पृथ्वी के दोहन से विपुल संपत्ति एवं धन-धान्य पाकर राजा पृथु अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने पृथ्वी को अपनी कन्या के रूप में स्वीकार किया। पृथ्वी को समतल बनाकर पृथु ने स्वयं पिता की भांति प्रजाजनों के कल्याण एवं पालन-पोषण का कर्तव्य पूरा किया।


राजा पृथु ने सौ अश्वमेध यज्ञ किए। स्वयं भगवान यज्ञेश्वर उन यज्ञों में आए, साथ ही सब देवता भी आए। पृथु के इस उत्कर्ष को देखकर इंद्र को ईर्ष्या हुई। उनको संदेह हुआ कि कहीं राजा पृथु इंद्रपुरी न प्राप्त कर लें। उन्होंने सौवें यज्ञ का घोड़ा चुरा लिया। जब इंद्र घोड़ा लेकर आकाश मार्ग से भाग रहे थे तो अत्रि ऋषि ने उन्हें देख लिया। उन्होंने राजा को बताया और इंद्र को पकडऩे के लिए कहा। राजा ने अपने पुत्र को आदेश दिया। पृथुकुमार ने भागते हुए इंद्र का पीछा किया। इंद्र ने वेश बदल रखा था। 


पृथु के पुत्र ने जब देखा कि भागने वाला जटाजूट एवं भस्म लगाए हुए है तो उसे धार्मिक व्यक्ति समझ कर बाण चलाना उपयुक्त नहीं समझा। वह लौट आया, तब अत्रि मुनि से उसे पुन: पकडऩे के लिए भेजा। फिर से पीछा करते पृथु कुमार को देख कर इंद्र घोड़े को वहीं छोड़ कर अंर्तध्यान हो गए। पृथु कुमार अश्व को लेकर यज्ञशाला में आए। सभी ने उनके पराक्रम की स्तुति की। अश्व को पशुशाला में बांध दिया गया। इंद्र ने छिप कर पुन: अश्व को चुरा लिया। अत्रि ऋषि ने यह देखा तो पृथु कुमार को बताया। पृथु कुमार ने इंद्र को बाण का लक्ष्य बनाया तो इंद्र ने अश्व को छोड़ दिया और भाग गए। इंद्र के इस षड्यंत्र का पता पृथु को चला तो उन्हें बहुत क्रोध आया। ऋषियों ने राजा को शांत किया और कहा, ‘‘आप व्रती हैं, आप किसी का भी वध नहीं कर सकते लेकिन हम मंत्र द्वारा इंद्र को ही हवन कुंड में भस्म किए देते हैं।’’


यह कह कर ऋत्विजों ने मंत्र से इंद्र का आह्वान किया। वे आहुति डालना ही चाहते थे कि वहां ब्रह्मा प्रकट हुए। उन्होंने सबको रोक दिया। उन्होंने पृथु से कहा, ‘‘तुम और इंद्र दोनों ही परमात्मा के अंश हो। तुम तो मोक्ष के अभिलाषी हो। इन यज्ञों की क्या आवश्यकता है? तुम्हारा यह सौवां यज्ञ पूर्ण नहीं हुआ है, इसकी चिंता मत करो। यज्ञ को रोक दो। इंद्र के पाखंड से जो अधर्म उत्पन्न हो रहा है उसका नाश करो।’’


भगवान विष्णु स्वयं इंद्र को साथ लेकर पृथु की यज्ञशाला में प्रकट हुए। उन्होंने पृथु से कहा, ‘‘मैं तुम पर प्रसन्न हूं। यज्ञ में विघ्न डालने वाले इस इंद्र को तुम क्षमा कर दो। राजा का धर्म प्रजा की रक्षा करना है। तुम तत्वज्ञानी हो। भगवत् प्रेमी शत्रु को भी समभाव से देखते हैं। तुम मेरे परमभक्त हो। तुम्हारी जो इच्छा हो, वह वर मांग लो।
राजा पृथु भगवान के प्रिय वचनों से प्रसन्न थे। इंद्र लज्जित होकर राजा पृथु के चरणों में गिर पड़े। पृथु ने उन्हें उठा कर गले से लगा लिया।


राजा पृथु ने भगवान से कहा, ‘‘भगवन्! सांसारिक भोगों का वरदान मुझे नहीं चाहिए। यदि आप देना ही चाहते हैं तो मुझे सहस्र कान दीजिए जिससे आपका कीर्तन, कथा एवं गुणानुवाद हजारों कानों से श्रवण करता रहूं। इसके अतिरिक्त मुझे कुछ नहीं चाहिए।’’


भगवान श्रीहरि ने कहा, ‘‘राजन! तुम्हारी अविचल भक्ति से मैं अभिभूत हूं। तुम धर्म से प्रजा का पालन करो।’’


राजा पृथु ने पूजा करके उनका चरणोदक सिर पर चढ़ा लिया। राजा पृथु की अवस्था जब ढलने लगी तो उन्होंने अपने पुत्र को राज्य का भार सौंप कर पत्नी अर्चि के साथ वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश किया। वह कठोर तपस्या करने लगे। अंत में तप के प्रभाव से भगवान में चित्त स्थिर करके उन्होंने देह का त्याग कर दिया। उनकी पतिव्रता पत्नी महारानी अर्चि पति के साथ ही अग्नि में भस्म हो गईं। दोनों को परमधाम प्राप्त हुआ।  
 

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