जीवन का मार्ग सत्कर्म व परोपकार से करें प्रकाशित, आत्मसम्मान के असंख्य सूरज स्वयं खिल उठेंगे

Edited By Punjab Kesari,Updated: 03 Feb, 2018 10:04 AM

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मनुष्य में मान-सम्मान की गहरी प्यास होती है। समाज भी पद-प्रतिष्ठा की प्राप्ति को प्रोत्साहित करता है। हम हमेशा यश पाने के लिए आतुर रहते हैं। दूसरों द्वारा प्रशंसा और पुरस्कार हमें बड़े ही प्रीतिकर लगते हैं।

मनुष्य में मान-सम्मान की गहरी प्यास होती है। समाज भी पद-प्रतिष्ठा की प्राप्ति को प्रोत्साहित करता है। हम हमेशा यश पाने के लिए आतुर रहते हैं। दूसरों द्वारा प्रशंसा और पुरस्कार हमें बड़े ही प्रीतिकर लगते हैं। कोई हमारा गुणगान करे तो हमारी छाती गर्व से फूल जाती है। असाधारण होने की चाह हमारे भीतर छलांगें मारती रहती हैं। सफलता और मान-सम्मान की मृगतृष्णा हमारे भीतर इतनी तीव्र हो जाती है कि हम उसे पाने के लिए सत्य का मार्ग छोड़ अनैतिकता के पथ पर चलने के लिए भी राजी हो जाते हैं। 


आखिर मान-सम्मान का मोह, दूसरों से मान्यता की लालसा हमारे भीतर क्यों इतनी तीव्र होती है? यह कैसी विडंबना है कि इस सच को जानते हुए कि हम योग्य नहीं, फिर भी दूसरों से मान-सम्मान की अपेक्षा करते हैं! स्वयं अपना सम्मान कर नहीं पाते और अंदर के गहरे अंधकार को छुपाने के लिए बाहर के झूठे प्रकाश के मोह में पड़े रहते हैं। इस मिथ्या मायाजाल में हम इतने गहरे डूब जाते हैं कि सत्य, सदाचार, सहृदयता और संकल्प की सच्ची डोर हमारे हाथ से दूर छिटक जाती है।


नतीजतन जब तक सांस रहती है हमारा चित, हमारा व्यवहार दूसरों की मुठ्ठी में भिंचा रहता है। मन सदा इसी उधेड़बुन में अस्थिर रहता है कि कैसे यह मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा, यश-कीर्ति बची रहे। यह मान-मर्यादा अंदर से जितनी खोखली होती है, उतना ही गहरा हमारे भीतर यह भय बना रहता है कि कहीं यह हमसे छिन न जाए! अपने भीतर की नग्नता का यह अंतर्बोध हमें उस सुख से भी वंचित किए रखता है जिसके लिए हम इस मायावी मान-सम्मान का षड्यंत्र रचते हैं। इतना ही नहीं, इसे गंवा देने का भय हमें कब अधर्मी बना देता है, यह सहज विवेक भी हम गंवा बैठते हैं। भीतर सुख का वृक्ष पनपता देखना चाहते हैं तो हमें खुद को इस मायावी मान-सम्मान के खेल से मुक्त रखना होगा। जीवन का मार्ग सत्कर्म, परोपकार, सत्य के असीम प्रकाश से प्रकाशित रहे तो भीतर आत्मसम्मान के असंख्य सूरज खुद खिल उठते हैं। तब गुण-दोष की व्याख्या,निंदा, आक्षेप, तिरस्कार, अपमान निरर्थक हो जाते हैं।

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