पुत्रदा एकादशी व्रत कथा

Edited By ,Updated: 07 Jan, 2017 09:43 AM

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पौष शुक्ल पक्षीय पुत्रदा एकादशी की महिमा भविष्योत्तर पुराण में श्रीकृष्ण-युधिष्ठिर संवाद में वर्णित हुई है। युधिष्ठिर से भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, पौष शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम पुत्रदा है।

पौष शुक्ल पक्षीय पुत्रदा एकादशी की महिमा भविष्योत्तर पुराण में श्रीकृष्ण-युधिष्ठिर संवाद में वर्णित हुई है। युधिष्ठिर से भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, पौष शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम पुत्रदा है। इस एकादशी का पालन करने से समस्त प्रकार के पाप विनष्ट हो जाते हैं। इस व्रत का पालन करने से व्यक्ति विद्वान तथा यशस्वी बन जाते हैं तथा पुत्रहीन को पुत्र की प्राप्ति होती है। हे युधिष्ठिर पुत्रदा एकादशी की कथा सुनो, जो कि इस प्रकार है-


भद्रावती नामक एक नगरी थी। वहां सुकेतुमान नाम के एक राजा राज करते थे। उनकी रानी का नाम शैव्या था। उनका कोई पुत्र नहीं था। संतान न होने के कारण राजा अौर रानी दोनों ही बहुत दुखी रहते थे। राजा के द्वारा किया हुआ तर्पण पितरों, देवताअों व ऋषियों को ऊष्ण जान पड़ता था इसलिए वे इसको लेने को तैयार न थे। जबकि राजा का अधिकांश समय धर्माचरण, जप-तप आदि में ही व्यतीत होता था। राजा के पितर भी चितिंत थे कि इस राजा के बाद हमारा वंश समाप्त हो जाएगा तथा कोई भी हमें फिर पिंडदान नहीं करेगा। पुत्र के बिना राजा को भी अपने मित्र, मंत्री, सेवक, सेना व संपति आदि कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। कई-कई दिन वे भोजन भी न करते। वह अपने जीवन को व्यर्थ ही मानते थे। 


यदि पुत्र न हो तो देवऋण, पितृऋण व मनुष्यऋण आदि किसी से भी मुक्ति नहीं मिल सकती। पुण्य तथा विष्णु भक्ति के बिना पुत्र, धन, विद्या आदि नहीं मिल सकते, ऐसा सोचकर वे दुखी हृदय से एक दिन चुपचाप घोड़े पर सवार होकर निकल गए तथा घनघोर वन में प्रवेश कर गए। सघन वन में जाकर वे अपने विश्राम का स्थान ढूंढने लगे। वहां उन्होंने बड़, पीपल, खजूर, मौलसिरी, इमली, शाल, तमाल, अर्जुन, बहेड़ा, पलाश आदि वृक्षों को देखा तथा साथ ही उन्होंने वहां के हिरन, बंदर, खरगोश, सांप, जंगली हाथी व शेर आदि जानवरों को भी देखा, रात के समय सियारों की आवाज, उल्लुअों का भयंकर शोर व जंगली जानवरों की दहाड़ सुनकर वे विश्राम न कर सके अौर सारी रात इधर-उधर घूमते ही रहे। इस प्रकार घूमते-घूमते दोपहर होने को आ गई अौर राजा प्यास अौर थकान से व्याकुल हो गए। राजा ने मन ही मन सोचा कि मैंने इतनी पूजा-पाठ, यज्ञ, दान, तर्पण किया, प्रजा को पुत्र के समान प्यार देकर पाला, ब्राह्मणों को भी उत्तम भोजन व उत्तम दक्षिणा देकर सेवा से संतुष्ट किया फिर भी मुझे इतना भीषण दुख क्यों हो रहा है, मैं किस कारण इतना कष्ट पा रहा हूं।


इस प्रकार चिंता से व्याकुल होकर घूमते-घूमते राजा को मानसरोवर की तरह सुंदर कुमुद पुष्पों से भरा एक सरोवर दिखाई दिया जिसमें राजहंस, चक्रवाक, पपीहा आदि जल-पक्षी विहार कर रहे थे। उस सरोवर के तट पर ऋषिगण वेद मंत्रों का उच्चारण कर रहे थे। ये सब देखकर राजा ने घोड़े से उतर कर ऋषियों के निकट जाकर सभी ऋषियों को अलग-अलग प्रणाम किया व उनकी वंदना की। राजा द्वारा इस प्रकार सत्कार किए जाने पर ऋषियों ने राजा से कहा," हे राजन! हम सब आप पर प्रसन्न हैं, आप अपनी इच्छा व्यक्त कीजिए।"


राज ने पूछा," आप सब कौन हैं तथा किस प्रयोजन से इस सरोवर पर आकर एकत्रित हुए हैं।"
 

राजा के प्रश्न के उत्तर में वे बोले," हम लोग विश्वदेव हैं, स्नान करने के लिए यहां पर आए हैं। आज पुत्रदा एकादशी है। पुत्र प्राप्ति की इच्छा से इस एकादशी का व्रत करने वाले को अवश्य ही पुत्र की प्राप्ति होती है।" 


राजा ने कहा," भगवन! हमने तो पुत्र-प्राप्ति हेतु बहुत प्रयत्न किए किंतु सब का सब करा-कराया व्यर्थ हो गया। अभी तक मुझे पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। आज यदि आप मुझ पर प्रसन्न हों तो सुंदर पुत्र की प्राप्ति के लिए आशीर्वाद दाजिए।" 


विश्वदेवों ने कहा," आज पुत्रदा एकादशी है, आप इसका पालन कीजिए। भगवान की कृपा से एवं हम लोगों के आशीर्वाद से तुम्हें अवश्य पुत्र की प्राप्ति होगी।" 


तब राजा ने ऋषियों के निर्देशानुसार पुत्रदा एकादशी का व्रत किया एवं द्वादशी के दिन सही समय पर व्रत का पारण किया। व्रत पूर्ण करके तथा उन विश्वदेव ऋषियों को प्रणाम करके राजा अपने घर को वापस आ गए। विश्वदेव ऋषियों के आशीर्वाद से एवं एकादशी व्रत के पुण्य प्रभाव से रानी ने यथासमय एक पुण्यात्मा व तेजस्वी पुत्र प्राप्त किया। फिर तो राजा की प्रसन्नता का कोई ठिकाना न रहा। यही नहीं, राजा के यहां पुत्र होने से स्वर्ग के पितृ-पुरुष भी परम संतुष्ट हो गए। 


धर्मराज युधिष्ठिर से भगवान श्रीकृष्ण ने कहा," महाराज! इस पुत्रदा एकादशी व्रत का पालन करने से पुत्र प्राप्त होता है तथा स्वर्ग की गति मिल जाती है। हे राजन! बड़ी महत्वपूर्ण एकादशी है यह। अौर तो अौर जो व्यक्ति इस एकादशी व्रत के महात्म्य का कथा श्रवण करते हैं व पाठ करते हैं दोनों को अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है।" 

श्री चैतन्य गौड़िया मठ की ओर से
श्री भक्ति विचार विष्णु जी महाराज
bhakti.vichar.vishnu@gmail.com

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