डाक्टर अपने मरीजों का ‘भरोसा’ न खोएं

Edited By ,Updated: 01 Feb, 2015 03:04 AM

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लंबे समय से डाक्टरों ने अपने मरीजों का भरोसा कायम रखा है। भगवान के बाद मरीज अपनी जिंदगी के लिए सिर्फ डाक्टर पर भरोसा करते हैं। परन्तु मुझे यह कहते हुए दु:ख होता है कि इस भरोसे को ...

लंबे समय से डाक्टरों ने अपने मरीजों का भरोसा कायम रखा है। भगवान के बाद मरीज अपनी जिंदगी के लिए सिर्फ डाक्टर पर भरोसा करते हैं। परन्तु मुझे यह कहते हुए दु:ख होता है कि इस भरोसे को फायदे की खातिर तोड़ा जा रहा है। कुछ विशेष हालातों को छोड़कर मैडीकल प्रोफैशन जो कभी जनकल्याण का एक तरीका समझा जाता था, आज भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है। डाक्टरों द्वारा ली जाने वाली कमीशनें 40 से 50 प्रतिशत तक पहुंचती हैं। यह सब मरीजों की जेबों से आता है, जिनमें से ज्यादातर आम खर्चे भी सहन नहीं कर सकते, ऐसे में कमीशन अदा करना उनके बस का नहीं।

आर्थिक मंदहाली की बात तो क्या करें, मेरे जैसे लोग एक गंभीर मैडीकल परेशानी सहन नहीं कर सकते। अच्छी मैडीकल प्रैक्टिस करने वाला व्यक्ति, जो ठीक-ठाक आमदन रखता है, के लिए भी कमीशनों के चलते इलाज बहुत महंगा हो चुका है। यह महंगाई मैडीकल सहायता के कारण नहीं है, बल्कि इसका कारण कमीशनें हैं जो बहुत बढ़ चुकी हैं और इन्होंने इलाज महंगा बना दिया है। बहुत सारे अस्पताल व सर्जन बिल की राशि का 50 प्रतिशत उन व्यक्तियों को दे रहे हैं, जो उनको मरीज भेजते हैं। बड़ी संख्या में मरीज सिर्फ इसी कारण इलाज की बजाय मौत को चुनते हैं क्योंकि वे भारी खर्च नहीं उठा सकते।

इससे गैर-जरूरी जांचें होती हैं और यहां तक कि अनावश्यक अंग भी लगाए जाते हैं। उदाहरण के रूप में, दिल ब्लॉक होने के मामले में मरीज को 50 प्रतिशत ब्लॉक होने पर स्टैंट की सलाह दी जाती है, जबकि 70 प्रतिशत ब्लॉक होने तक मरीज का दवाओं से ही इलाज हो सकता है। यहां तक कि स्टैंट्स की लागत 38,000 से 90,000 तक आती है, जबकि बाकी की कीमत कमीशनें होती हैं, जिस कारण यह मरीज को महंगा पड़ता है। यहां तक जांच किए जाने की जरूरत है कि एम.आर.आइज, सी.टी. स्कैन्ज व अन्य जांचों के लिए लैबों में भेजने वाले डाक्टरों को अपना हिस्सा मिलता है।

इसी तरह का केस दवा कंपनियों का भी है। जिस तरीके से फार्मास्यूटिकल कंपनियां बढ़ी हैं, उसी तरह डाक्टरों की कमीशनों व फायदों में कई गुणा वृद्धि हुई है। इनमें दोनों नकद व कई तरह के महंगे गिफ्ट और कई बार अलग-अलग तरह की यात्राएं, कॉन्फ्रैंसों के लिए स्पांसरशिप शामिल होती हैं। जिनका उद्देश्य आध्यात्मिक या प्रोफैशनल होने की बजाय सिर्फ पी.आर. सेवाएं होता है। हाल ही में एक एलोपैथिक दवाएं बनाने वाली कंपनी ने एक विदेशी दौरा आयोजित किया, जिसमें बड़ी संख्या में आयुर्वैदिक प्रैक्टीशनर भी शामिल थे, जबकि एलोपैथिक प्रैक्टीशनर की संख्या अधिक होती है।

ये खर्चे सीधे तौर पर मरीजों की जेबों से निकले हैं। कई ऐसी प्रमुख मल्टीनैशनल कंपनियां हैं, जो ब्लड प्रैशर, शूगर या एंटी बायोटिक्स को ऐसे उत्पादों से दो गुना से भी कम रेटों पर बेचती हैं। जबकि लोगों का इन महंगी दवाओं की ओर झुकाव इस सोच के साथ होता है कि ये शायद ज्यादा असरदार हो सकती हैं, परंतु ऐसी दवाओं का भी समान असर होता है।

स्पष्ट तौर पर एक उत्पादक जो एक विशेष साल्ट 2 रुपए का बेचेगा, जो दूसरा 7 रुपए का बेचता है, क्योंकि वह डाक्टरों  को कमीशन नहीं दे सकते। परिणामस्वरूप ज्यादातर डाक्टर महंगी दवाओं की सिफारिश करते हैं, जिनसे मरीजों को घाटा पहुंचता है। परंतु डाक्टर पर अंधविश्वास करके दवाओं बारे सवाल नहीं करते।

ऐसा कहकर मैं यह प्रभाव नहीं छोडऩा चाहता कि हमारा मैडीकल समाज भ्रष्ट है परंतु बहुत सारे डाक्टर अवश्य भ्रष्ट हैं। ऐसे कई ईमानदार डाक्टर भी हैं, जो हमें अलग महसूस करवाते हैं। मेरा उद्देश्य लोगों में जागरूकता पैदा करना है व डाक्टरों को एहसास दिलाना है कि वे कमीशन दिए बगैर भी अच्छा रहन-सहन हासिल कर सकते हैं। ढोंगियों को कमीशन देना बंद करें। चाहे कोई शेखीबाज रैफर  करे या न करे, एक मरीज खुद ही विशेषज्ञ डाक्टर या सर्जन के पास पहुंच जाता है। फिर आप कमीशन क्यों देते हैं और अपने जमीर को क्यों मारते हैं?      
(लेखक पंजाब मैडीकल कौंसिल के चेयरमैन हैं। प्रकट किए विचार व्यक्तिगत हैं।)

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