‘आप’ भी ‘देसी स्टाइल’ राजनीति करने वाली पार्टी

Edited By ,Updated: 26 Mar, 2015 04:34 AM

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आम आदमी पार्टी (आप) में पड़ी फूट के विषय में दो कारणों से आम जनता को ज्यादा चिंतित नहीं होना चाहिए।

(टी.जे.एस. जार्ज) आम आदमी पार्टी (आप) में पड़ी फूट के विषय में दो कारणों से आम जनता को ज्यादा चिंतित नहीं होना चाहिए। पहला यह है कि ‘आप’ भी तो आखिरकार ‘देसी स्टाइल’ की राजनीति करने वाली पार्टी ही है क्योंकि पहले तो इसने लोगों की उम्मीदें जगाईं और फिर राजनीति के सामान्य चलन के अनुसार अन्य पार्टियों की तरह ‘परिपक्व’ हो रही है- यानी कि जैसे-जैसे यह बढ़ रही है इसमें फूट भी पड़ती रहेगी और इस फूट के साथ-साथ ही इसका विकास भी होता रहेगा। 

चिंतित न होने के लिए दूसरा कारण यह है कि ‘आप’ की चुनावी जीत जनसाधारण की बदलाव की आकांक्षा का ही नतीजा थी। यह आकांक्षा बनी रहेगी और यदि ‘आप’ इस पैमाने पर खरी नहीं उतरती तो लोग तब तक अन्य पार्टियों को आजमाते रहेंगे जब तक हमारी व्यवस्था में अपराधियों के जनप्रतिनिधि बनने का सिलसिला थम नहीं जाता। 

जनता को ऐसा लगता था कि ‘आप’ के रूप में उन्हें बदले हुए भारत का लक्ष्य साकार करने का रास्ता मिल गया है। इसी कारण पूरे देश में लोग इसके पक्ष में उत्साहित हुए थे। ‘सिर मुंडाते ही ओले पड़े’ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए ‘आप’ का नेतृत्व प्रारम्भिक दौर में ही जिस तरह फूट का शिकार हुआ है उसके परिणामस्वरूप लोगों का उत्साह ठंडा पडऩा बिल्कुल ही स्वाभाविक है। 

विवाद इस मुद्दे को लेकर पैदा हुआ है कि जिस प्रकार केजरीवाल अपने हाथों में अधिक से अधिक शक्ति केन्द्रित करते जा रहे हैं, उनकी हैसियत ‘आप’ में बिल्कुल वैसी ही बनती जा रही है जैसी कांग्रेस में सोनिया गांधी की। सभी मामलों में केजरीवाल का निर्णय अंतिम होता है। वास्तव में चुनावी अभियान के दौरान वही पार्टी का चेहरा थे और मफलर पहने हुए व खांसते हुए केजरीवाल की छवि ने  भारी संख्या में वोटें बटोरीं। यदि इसी आधार पर वह ‘वन मैन हाई कमान’ की हैसियत हासिल कर सकते हैंतो फिर ‘आप’ और कांग्रेस या भाजपा व ‘आप’ मेंफर्क क्या रह जाता है? इन दोनों पाॢटयों  में भी क्यावर्तमान में केवल एक-एक नेता की ही तूती नहीं बोलती? 

‘आप’ की केन्द्रीय टीम में से इसकी संस्थापक टोली के 2 सदस्यों को बाहर निकालने से पार्टी के अंदर तो केजरीवाल की पोजीशन मजबूत हो जाएगी लेकिन बाहर से वह कमजोर हो जाएंगे। प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव बेशक वोटें बटोरने वाले लोकलुभावन नेता न हों लेकिन वे बहुत उच्च कोटि के वैचारिक हैं और हर बात को स्पष्ट और युक्तिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करने की क्षमता रखते हैं। ‘आप’ की विश्वसनीयता और इसके धारदार प्रचार अभियान में इन दोनों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। उनके समर्थन में 8 तथा विरोध में 11 मत पडऩे से यह स्पष्ट हो गया कि केजरीवाल का जलवा कितना कमजोर हो चुका है। 

‘आप’ के समर्थन में जो युवा वर्ग ज्वारभाटे की तरह उमड़ा था, उसका मोहभंग हो रहा है। विडम्बना देखिए कि इन युवाओं को हताश न होने की प्रेरणा देने का कार्य भी यादव ही निभा रहे हैं। उन्होंने घोषणा की कि वह पार्टी के अंदर ही मौजूद रहेंगे और उन्हें जो भी जिम्मेदारी दी जाएगी, उसे निभाएंगे। यह सचमुच ही ऐसे नेता की निशानी है जो अपनी करनी और कथनी से हमारे सम्मान का पात्र बनताहै। 

बेंगलूर में प्राकृतिक चिकित्सा करवाने के दौरान केजरीवाल को शायद ‘ग्रीन पार्टी’ के बारे में कुछ ङ्क्षचतन-मनन करने का मौका मिला होगा। यह एन.जी.ओ. दुनिया के कई भागों में वातावरण संरक्षण को अपना मुख्य मुद्दा बनाकर उभरा था। इससे संबद्ध कुछ लोगों ने राजनीतिक पाॢटयां गठित कर लीं। प्रारम्भ में इनमें से लगभग सभी ने कुछ गलत कदम उठाए। आखिर जो लोग लंबे समय तक रोष व्यक्त करने वाले प्रदर्शनकारी रहे हों, उन्हें मुख्य धारा की राजनीतिक पाॢटयां बनने के बावजूद अपनी मानसिकता बदलने में देर लगती है। ‘आप’ के अंदर असहमत होने वालों के प्रति सहिष्णुता का स्तर बहुत कम होने के पीछे भी ऐसा ही कारण है। 

समय पाकर सभी समस्याएं सुलझा ली गईं क्योंकि सभी इस बात से सहमत थे कि राजनीतिक कार्रवाइयों का अपना एक विवेक होता है जिसे स्वीकार करना ही पड़ता है। फलस्वरूप उन्होंने अपने संगठनात्मक ढांचे का कायाकल्प करने का अभियान शुरू कर दिया। देशव्यापी पार्टी बनाने की अवधारणा का परित्याग करके क्षेत्रीय स्तर पर संगठन खड़े करने को प्राथमिकता दी गई। 

आज हम देखते हैं कि आस्ट्रेलिया में ग्रीन पार्टी विभिन्न प्रदेशों के स्तर पर पंजीकृत पाॢटयों का एक संघ है। ब्रिटेन में भी 1990 में ग्रीन पार्टी (यू.के.) को भंग करके इंगलैंड, वेल्ज, स्कॉटलैंड तथा उत्तरी आयरलैंड के लिए अलग-अलग ग्रीन पार्टी गठित करने का फैसला किया गया। आंतरिक मतभेदों को हल करने के लिए उन्होंने एक विवाद निपटान समिति गठित की। 

यह प्रयोग सफल रहा क्योंकि नेताओं के बीच वर्चस्व के लिए कोई गंभीर टकराव नहीं था। कुछ संस्थापक नेताओं ने तो स्वेच्छा से उन नेताओं के लिए रास्ता खाली कर दिया जो  राजनीतिक अभियान अधिक प्रभावी ढंग से चला सकते थे। आस्ट्रेलिया में 2013 में ग्रीन पाॢटयों के कम से कम 13 सदस्य सांसद बनने में सफल हुए। इंगलैंड में पहला ग्रीन सांसद 2010 में चुना गया। इस वर्ष मई में नए चुनाव होने जा रहे हैं और ब्रिटेन में ग्रीन पाॢटयों के सदस्यता अभियान को जबरदस्त समर्थन मिल रहा है। यहां तक कि वर्तमान सरकार में गठबंधन सहयोगी लिबरल डैमोक्रेटिक पार्टी को सदस्यता के मामले में पीछे छोड़ते हुए ग्रीन पाॢटयों ने 55,000 सदस्य संख्या का आंकड़ा छू लिया है। 

लंबे समय से परम्परागत दो पार्टी पद्धति के अभ्यस्थ हो चुके ब्रिटेन के लिए यह बदलाव बहुत बड़ी बात है। ‘आप’ जिस बदलाव की शुरूआत करना चाहती है वह तभी साकार होगा जब अलग-अलग विचारों के लोग उस कार्य के लिए एकजुट होंगे जो उनके विचारों और व्यक्तित्वों से कहीं अधिक बड़ा है। भारत जैसे विराट आकार के देश में महासंघ की परिकल्पना को टाला नहीं जा सकता। यह बात कुडनकुल्लम परमाणु संयंत्र विरोधी आंदोलन के नेता के उस सुझाव में निहित थी जिसमें उन्होंने कहा था कि दक्षिण भारत में आम आदमी पार्टी को अपने इस नाम का परित्याग करना होगा और इसकी बजाय ‘साधारण मक्कल काच्चि’ नाम अपनाना होगा। हालांकि इस नाम का अर्थ भी ‘आम आदमी पार्टी’ ही है। 

कुमार बिस्वास जैसे ‘आप’ के स्वच्छंद नेता तो इस प्रकार के सुझाव को शायद समझ भी नहीं पाएं। जहां आगे बढऩे के लिए इस प्रकार की आपसी सूझबूझ तथा ‘लेन-देन’ जरूरी हो वहां नेतृत्व कौन करेगा? मसीहा की भूमिका कौन अदा करेगा? इतिहास ऐसे जवाब मांगने के लिए दस्तक देता है। उस दस्तक का यदि उत्तर न मिले तो इतिहास इंतजार नहीं करता, अपने पथ पर अग्रसर हो जाता है।

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