आत्मा को जगाकर पाएं शैतान के पंजे से छुटकारा और मृत्यु के भय से मुक्ती

Edited By ,Updated: 25 Aug, 2015 09:42 AM

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दिल तेरे में है वो मकीं, बस दिल की आंखें खोल जरा दिल तेरे से वह अलग नहीं, अपने से न उसको समझ जुदा। महापुरुषों की बातें उनके आत्म-अनुभव के आधार पर परखने के बाद ही कही हुई होती हैं इसलिए

दिल तेरे में है वो मकीं, बस दिल की आंखें खोल जरा

दिल तेरे से वह अलग नहीं, अपने से न उसको समझ जुदा।
 
महापुरुषों की बातें उनके आत्म-अनुभव के आधार पर परखने के बाद ही कही हुई होती हैं इसलिए इनमें जीवन की सच्चाई होती है और इनको अपने जीवन में उतार कर ही हम सच्चाई तक पहुंच सकते हैं। महापुरुषों के दिल में आम इंसान के लिए अथाह प्रेम और सहानुभूति होती है। वे सबको जगाना चाहते हैं इसलिए वे हमें सावधान करने के लिए झिंझोड़ते हैं ताकि हम अपने जीवन को समझ कर इससे लाभ उठा सकें। महाराज बीर जी ने भी जीवन का महत्व समझने और इससे लाभ उठाने की शिक्षा देते हुए फरमाया है-
 
है सोचा कभी तू है क्या जिंदगी, कहां से आई भला जिंदगी।
अगर यह न जाना तो जाना है क्या, बशर यूं ही दी है गंवा जिंदगी।
 
हम केवल किताबें पढ़ कर दिल के किवाड़ नहीं खोल सकते। इसके लिए तो हमें महापुरुषों की बातों को अपने अनुभव में उतारने की आवश्यकता है। किसी भी बात की वास्तविकता का पता तो तभी चलता है जब वह बात हमारे अनुभव में उतर जाती है। महापुरुषों की बातों को समझने और उनकी कृपा पाने के लिए सत्संग ही एकमात्र सशक्त और सरल साधन है:
 
मुसल्सल जो सत्संग में आता है बीर, वही राको-कुदरत को पाता है बीर।
नकाारे है वो इक जोत के देखता, अजब फिर वो मस्ती में आता है बीर।
 
सत्संग में आकर हमें वह शक्ति मिलती है, जिससे हम आत्मिक तौर पर जाग जाते हैं। हमारी जुबान खामोश हो जाती है और अंतर की आवाज सुनाई देने लगती है। फिर कुदरत के रहस्य हमारे अंदर ही प्रकट होने शुरू हो जाते हैं और हमारे अंदर नव-जीवन का संचार होता है अर्थात हमारे जीवन का रूपांतरण होना शुरू हो जाता है:
 
ये सत्संग वो शक्ति दिला देता है, जुबां खामशी को लगा देता है। 
सुना देता है सबको कुदरत का राग, अजब दिल की तारें हिला देता है।
 
सत्संग में आना सिर्फ शारीरिक तौर पर उपस्थित होना नहीं बल्कि दिल से सत्संग में शामिल होना है। सत्संग में आना एक औपचारिकता मात्र ही न बन जाए बल्कि इसके लिए हमारे दिल में शौक, लगन और  तड़प होनी चाहिए। हमारा दिल हर पल सत्गुरु के दीदार के लिए तड़पता हो। हमारी आत्मा अपनी तार को गुरु की तार से जोडऩे के लिए बेचैन हो। हमारे अंदर की प्यास गुरु के आनंद सागर की कुछ बूंदों को पाकर शांत होने की न हो बल्कि यह प्यास निरंतर बढ़ती चली जानी चाहिए :
 
प्यास मेरी न बुझने पाए, रोज देखूं यह बढ़ती ही जाए। 
तड़प बढ़ती रहे, जोत जगती रहे, तेरे चरणों में है अरदास मेरी।
बीरा तू चंद्रमा में चकौरी।
 
यही स्थिति आत्मा से इकमिकता वाली होती है। इसमें पहुंच कर ही हमें शैतान के पंजे से छुटकारा मिलता है। जब दिल के किवाड़ खुलते हैं तो रोशनी की किरण अंदर प्रवेश करती है। हमें सच्चाई का अनुभव होता है। शैतान अपनी सारी ताकतों के साथ भाग जाता है और हम मृत्यु सहित सभी प्रकार के भय से मुक्त हो जाते हैं। हमारी आत्मा जाग जाती है और बार-बार कहती है कि ए खुदा, मैं मुसाफिर हूं, मैं धरती पर भ्रमण करने के लिए आई हूं। मैंने अपनी जिंदगी तेरे नाम की, जहां कहोगे, उतर जाऊंगी मैं। जब उतरने का हुक्म होता है तो आत्मा यह गीत गाती है-
 
ब्रह्मलोक से आई थी, ब्रह्मलोक को अब चली।
भूलोक की सैर कर, धर्म अपना निभा चली।
रोशननुमा थी आई, रोशननुमा ही जा रही।
सत्गुरु की गोद में बैठ कर, परम तत्व को पा रही।
 
- एम.एल. नागपाल

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