चुनाव सुधारों के बिना नहीं मिलेंगे भ्रष्टाचार विरुद्ध लड़ाई के ‘वांछित नतीजे’

Edited By ,Updated: 21 Jan, 2017 12:51 AM

the desired outcome of the fight against corruption

गत कई दशकों से हम केवल इसलिए एक के बाद एक संकटों का सामना कर रहे हैं कि विश्वसनीय चुनावी सुधार नहीं हुए हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि...

गत कई दशकों से हम केवल इसलिए एक के बाद एक संकटों का सामना कर रहे हैं कि विश्वसनीय चुनावी सुधार नहीं हुए हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि भारतीय गणराज्य अमीरों, अपराधियों, निहित स्वार्थी तत्वों और अवसरवादी राजनीतिज्ञों के पक्ष में झुक गया है।

क्योंकि नक्कारखाने की तूती के स्वर में स्वर न मिलने वाली तथा समझदारी आवाजों की कोई खास पूछताछ नहीं है इसलिए ऐसा वातावरण बना हुआ है कि किसी प्रकार की भी शक्ति और पहुंच रखने वाले लोग निर्बाध रूप में अपना उल्लू सीधा किए जा रहे हैं।

ऐसे में यह कोई हैरानी वाली बात नहीं कि किसी भी प्रकार की शक्ति, धन और प्रभाव रखने वाले तथा आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोग खुद को अमीर बनाने वाले लोग अंदर ही अंदर हमारी व्यवस्था को दीमक की तरह चाट रहे हैं।

मतदान के माध्यम से लोग अपना गुस्सा अवश्य निकालते हैं लेकिन उन्हें यह एहसास नहीं होता कि व्यवस्था की कुछ बीमारियां भ्रष्ट और अक्षम शासन तंत्र एवं त्रुटिपूर्ण चुनावी सुधारों के ही कारण हैं। एक नुक्सदार प्रणाली वंचित लोगों को गलत संदेश देती है। यानी कि सच्चाई कुछ होती है और लोग कुछ और समझ लेते हैं। यही प्रमुख चुनौती है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा नोटबंदी की नौटंकी और इसके असुखद परिणामों को भुगतने के बाद देश अब 5 राज्यों के चुनावी उन्माद का शिकार है। मायावती की बसपा, मुलायम सिंह की सपा, सोनिया-राहुल गांधी की कांग्रेस और ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रही हैं कि उनके द्वारा संग्रहित भारी-भरकम चुनावी कोष सत्ता तंत्र में फैले भ्रष्टाचार के विरुद्ध लडऩे की नोटबंदी की सॢजकल स्ट्राइक के फलस्वरूप बहुत बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।

सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष तो नोटबंदी को कई तरह के विशेषणों से नवाज सकते हैं लेकिन जनता इस बारे में क्या सोचती है, उसकी थाह पाने के लिए हमें यू.पी., पंजाब, उत्तराखंड और गोवा के 11 मार्च को आने वाले चुनावों का इंतजार करना होगा।

कई वर्षों तक कांग्रेसी नेता ‘गरीबी हटाओ’ की रट लगाते रहे हैं जबकि सत्ता के गलियारों के पीछे भ्रष्टाचार फलता-फूलता रहा है। गरीबों के पक्ष में नारेबाजी करने के बावजूद देश के करोड़ों वंचित लोग पहले की तरह ही अन्याय और दरिद्रता के बोझ से कराह रहे हैं क्योंकि नेता लोग वोट बटोरने के लिए  छल-कपट, धोखाधड़ी और विश्वासघात का खेल खेलते रहते हैं। क्या नोटबंदी का दुखद रास्ता हमारी व्यवस्था में से भ्रष्टाचार और काले धन की जड़ें उखाड़ सकता है और गरीबी उन्मूलन कर सकता है? मुझे तो इस बारे में आशंका है।

उपरोक्त राजनीतिक दलों और काले धन वालों को झटका देने के अलावा नोटबंदी ने दिहाड़ीदार मजदूरों, मध्यवर्गीय गृहिणियों तथा जीवन के हर क्षेत्र से संबंधित सामान्य नागरिकों को प्रभावित किया है। इसने अर्थव्यवस्था के साथ-साथ वृद्धि दर को भी झटका दिया है। लाखों युवा अपनी रोजी-रोटी का जरिया गवा चुके हैं। अर्थव्यवस्था और इसकी वृद्धि दर बुरी तरह प्रभावित हुई है।

इस परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री के लिए राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की नसीहतों पर कान धरना बहुत सार्थक सिद्ध होगा। राष्ट्रपति ने कहा है कि गरीबों की दुख-तकलीफों का निवारण करने के लिए देश को जरूरत से अधिक तवज्जो देनी होगी। उन्होंने मोदी सरकार की बिल्कुल सही खिचाई करते हुए कहा कि ‘‘गरीब लोग लंबे समय तक इंतजार नहीं कर सकते। वे तो तत्काल संकटमोचन चाहते हैं।’’

हमारे देश में गरीबी बहुत बुरी तरह राजनीति की उलझनों में फंसी हुई है और इसी कारण राजनीतिक प्रभुओं और उनके जुंडलीदारों के हाथों में यह बहुत सशक्त हथियार बन गई है। प्रधानमंत्री मोदी को भारत की गरीबी और भ्रष्ट व्यवहारों का असली चेहरा पढऩा होगा। चुनावी वित्त पोषण के माध्यम से ही भ्रष्ट लोग और स्वार्थी तत्व सत्ता की चाबियां घुमाते हैं। इस स्थिति को व्यापक चुनावी सुधारों से ही ठीक किया जा सकता है। यानी कि चुनावी सुधारों के बगैर भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई के वांछित नतीजे हासिल नहीं होंगे।

चुनाव आयोग भी चुनावों में काले धन के प्रयोग के बारे में गंभीर ङ्क्षचता व्यक्त कर चुका है। वास्तव में तो गलत ढंगों से अर्जित पैसा हमारे राजनीतिक तंत्र में कैंसर की तरह फैल चुका है और इसकी प्रगति को पंगु बना रहा है।

शीर्षस्थ अदालत ने तो 1975 में ही इस स्थितिके बारे में ङ्क्षचता व्यक्त की थी लेकिन राजनीतिक नेता‘नोट के माध्यम से वोट’ की नीति पर चलने पर बाज नहीं आए। आज पूरी चुनावी प्रक्रिया में भ्रष्टाचार एक बहुत बड़ा कारोबार बन चुका है। धन-बल के बेलगामप्रयोग ने न केवल राजनीति को अमानवीय बना दिया हैबल्कि परम्परागत जीवन मूल्यों का भी क्षरण कर दिया है।

वैसे तो नोटबंदी अभियान के दौरान प्रधानमंत्री के भ्रष्टाचार विरोधी प्रवचनों को सुनना बहुत अच्छा लगता था लेकिन भ्रष्टाचार बड़ी-बड़ी बातें करने से खत्म होने वाला नहीं है। इस काम के लिए वित्तीय, प्रशासकीय एवं चुनावी प्रणाली में भारी-भरकम सुधार करना होगा। राजनीतिक वित्त पोषण के मामले में तो खास तौर पर सुधारों की जरूरत है।
    

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