जल्लीकट्टू की वापसी और देश की संविधान प्रणाली पर इसका प्रभाव

Edited By ,Updated: 23 Jan, 2017 12:06 AM

jallikattu return

3 वर्ष के प्रतिबंध के बाद आखिरकार जल्लीकट्टू की एक बार फिर तमिलनाडु में वापसी हो गई है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में प्रतिबंध लगा...

3 वर्ष के प्रतिबंध के बाद आखिरकार जल्लीकट्टू की एक बार फिर तमिलनाडु में वापसी हो गई है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में प्रतिबंध लगा दिया था। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पन्नीरसेलवम ने तमिलनाड़ु में 11 स्थानों पर जल्लीकट्टू मुकाबले शुरू होने की घोषणा करते हुए कहा है कि पशुओं के प्रति क्रूरता निवारक कानून (पी.सी.ए.)1960 में संशोधन पर राष्ट्रपति की सहमति तमिलनाडु सरकार को प्राप्त हो गई है।

उन्होंने यह भी घोषणा की कि अध्यादेश का स्थान लेने वाले पी.सी.ए. कानून में संशोधन के लिए विधेयक 23 जनवरी को शुरू होने वाले तमिलनाडु विधानसभा के अधिवेशन में प्रस्तुत करने के बाद स्वीकार कर लिया जाएगा, ताकि जल्लीकट्टू मुकाबलों का निॢवघ्न आयोजन किया जा सके। यही नहीं राज्य सरकार तमिलनाडु में जल्लीकट्टू के विरुद्ध लाङ्क्षबग करने वाले पशु अधिकार संगठन ‘पेटा’ पर प्रतिबंध लगाने के संबंध में कानूनी संभावनाओं पर भी विचार कर रही है।

पोंगल जोकि तमिलनाडु का फसल कटाई का उत्सव है, मुख्यत: राज्य के गांवों में मनाया जाता है और केवल कुछ स्थानों पर ही पोंगल के साथ-साथ जल्लीकट्टू का आयोजन होता है। बेशक कुछ पौराणिक कथाओं में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बैलों को साधने का उल्लेख है, जल्लीकट्टू कभी भी एक धार्मिक उत्सव नहीं था तथा इसे ग्रामीण लड़कों द्वारा मोटे तौर पर एक खेल के रूप में ही अपनाया गया था, जिसके स्तर को बाद में गिराकर सांडों को क्रोध दिलाने या परेशान करने के लिए शराब पिलाना या उनकी आंखों में मिर्च पाऊडर झोंकना शुरू कर दिया गया।

जल्लीकट्टू मुकाबलों में लगभग 2000 लोगों के घायल हो चुकने और कुछ के मरने के बाद वर्ष 2014 में केन्द्र की यू.पी.ए. सरकार मेें भागीदार तत्कालीन द्रमुक सरकार ने जानवरों के विरुद्ध क्रूरता पर रोक लगाने के लिए यह विधेयक पारित किया था। ताजा घटनाक्रम में भी 3 लोगों की जान जा चुकी है।

परन्तु आश्चर्य की बात है कि वर्तमान मुख्यमंत्री द्वारा उपरोक्त सब घोषणाओं के बावजूद पिछले 10 दिनों से प्रोटैस्ट करते आ रहे तमिलनाडु के युवकों ने अपना आंदोलन समाप्त करने से इन्कार कर दिया।

जल्लीकट्टू के आयोजन को ‘एक सांस्कृतिक प्रतीक’ बताते हुए महान संगीतकार ए.आर. रहमान और 5 बार के विश्व शतरंज चैम्पियन विश्वनाथन आनंद भी प्रदर्शनकारियों के समर्थन में उतर आए हैं। इतना ही नहीं, द्रमुक के नेता स्टालिन ने उनके पक्ष में भूख हड़ताल पर बैठने की घोषणा की है और जयपुर साहित्य उत्सव में भाग ले रहे गुरु सद्गुरु भी उनके आंदोलन के समर्थन में आ गए हैं, जिसे ये लोग अराजनीतिक और अधार्मिक प्रोटैस्ट बता रहे हैं।

परन्तु इस बात पर विचार करने का समय आ गया है कि इस प्रोटैस्ट के पीछे वास्तविक कारण क्या है और एक उत्सव के आयोजन की खुशी प्राप्त करने के लिए पशुओं के प्रति क्रूरता क्यों बरती जा रही है?

अनेक तमिल बुद्धिजीवियों का मानना है कि जयललिता के देहांत से उत्पन्न शून्य तथा मुख्यमंत्री पन्नीरसेलवम और जयललिता की भरोसेमंद तथा मुख्यमंत्री पद की अभिलाषी शशिकला के बीच संबंधों के असंतोषजनक समीकरण का परिणाम है जबकि राज्य गंभीर सूखे के दौर से गुजर रहा है तथा राजधानी चेन्नई में भी पानी की भारी कमी महसूस की जा रही है।

वे पूछते हैं कि जब वे इस मुद्दे पर तब भी सड़कों पर नहीं उतरे, जब 110 किसानों ने आत्महत्या कर ली थी तो फिर अब क्यों? वे महसूस करते हैं कि वर्तमान मुख्यमंत्री का नियंत्रण उतना मजबूत नहीं है और यदि इस समय जयललिता होतीं तो हालात यह रूप न धारण करते।

यह भी अजीब बात है कि किसानों के इस उत्सव को मनाने के लिए शहरों में आई.आई.टी. के छात्र और आई.टी. उद्योग के लोग हड़ताल पर बैठे हैं। शायद वे इसलिए इसका समर्थन कर रहे हैं क्योंकि राज्य में सब कुछ बहुत लंबे समय से ठप्प पड़ा है।

लेकिन इस सारे घटनाक्रम में सबसे ङ्क्षचतनीय पहलू केन्द्र और राज्य सरकारों का रवैया है, जहां प्रधानमंत्री ने जल्लीकट्टू को पूर्ण समर्थन प्रदान किया है, वहीं राज्य सरकार और विपक्षी दल भी इस ‘फेसबुक क्रांति’ के फरमानों के आगे आत्मसमर्पण करते हुए झुक गए हैं, जिससे यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या अब हमारे देश में कुछ हजार लोगों के धरने पर बैठने या फेसबुक पर सक्रिय होने से ही कानून बनाए और बदले जाएंगे? क्या विशेषज्ञों से परामर्श करने अथवा समाज पर पडऩे वाले दूरगामी प्रभावों पर कोई विचार नहीं होगा? देखना यह है कि अब सुप्रीम कोर्ट कानून के मुद्दों पर कैसे फैसला लेगा और सरकारें किस प्रकार कानून बनाएंगी। 

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