कोरोना वायरस की शुरुआत चीन से ही क्यों

Edited By ,Updated: 24 Feb, 2020 03:34 AM

why virus started from china only

इस बात पर बहस जारी है कि क्या चीन कोरोना वायरस पीड़ितों की सही संख्या छिपा रहा है। गत सप्ताह से चीन दावा कर रहा है कि नए रोगियों की संख्या कम हुई है परंतु भूकम्प में घायल अथवा मारे जाने वालों की संख्या पर चुप्पी तथा गत वर्ष बाढ़ के हताहतों की जानकारी...

इस बात पर बहस जारी है कि क्या चीन कोरोना वायरस पीड़ितों की सही संख्या छिपा रहा है। गत सप्ताह से चीन दावा कर रहा है कि नए रोगियों की संख्या कम हुई है परंतु भूकम्प में घायल अथवा मारे जाने वालों की संख्या पर चुप्पी तथा गत वर्ष बाढ़ के हताहतों की जानकारी को खबरों को पूरी तरह छिपाने जैसे  चीन के पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए पश्चिमी मीडिया इस पर भरोसा नहीं कर रहा। अब कोविड-19 के नए नाम से जाना जा रहा कोरोना वायरस शर्तिया तौर पर भगवान विष्णु का नया अवतार नहीं है जैसा कि ऑल इंडिया हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय प्रमुख स्वामी चक्रपाणि ने बेतुका दावा किया है वहीं अधिकतर दुनिया इसके उपचार की तलाश में जुटी है। 

 

जानवरों से इंसानों में फैला कोरोना वायरस 

हालांकि, भविष्य में जानवरों से इंसानों में फैलने वाले इस तरह के संक्रमण को रोकने के लिए इस तथ्य को समझने की जरूरत है कि कोरोना तथा सार्स जैसे जानलेवा वायरस की शुरूआत चीन से ही क्यों होती है! माना जा रहा है कि वर्तमान वायरस का प्रकोप फैलने में चीन की दो मूल सांस्कृतिक परम्पराओं ने मदद की। पहला सांस्कृतिक कारण खतरे की चेतावनी के ‘संदेशवाहक’ को सजा देने का चीन का लम्बा इतिहास। 

सोशल मीडिया पर सम्भावित वायरस के फैलने को लेकर चेतावनी जाहिर करने वाले डॉक्टर उन अनेक लोगों में शामिल थे, जिन्हें जनवरी की शुरूआत में वुहान शहर की पुलिस ने थाने में बुला कर अफवाहें न फैलाने की सख्त चेतावनी दी थी। उन्हें एक कागज पर हस्ताक्षर करने को कहा गया जिस पर लिखा था कि जो भी उसने कहा वह झूठ था परंतु वायरस ग्रस्त अनेक रोगियों का उपचार करते हुए इसके सम्पर्क में आने के परिणामस्वरूप गत दिनों उनकी हुई मौत अब एक अन्य कहानी बन चुकी है। इसी प्रकार 2002 में एक अन्य प्रकार के कोरोना वायरस के कारण फैली सार्स महामारी को भी स्थानीय प्रशासन ने एक महीने तक छिपाए रखने का प्रयास किया था और सबसे पहले इसके बारे में चेतावनी देने वाले सर्जन को 45 दिनों तक सेना की हिरासत में रखा गया था। 

देश के लिए शर्मनाक सत्य सामने रखने वाले हर व्यक्ति को सजा देने की परम्परा वर्तमान शी जिंनपिंग के शासन तक ही सीमित नहीं है। इसका इतिहास सम्पूर्ण साम्यवादी शासन के दौरान रहा है। 1956 में माओ के राज में सरकार ने जनता से अपने बारे में तथ्य तथा आलोचनात्मक विचार खुल कर जाहिर करने को कहा था परंतु इसके कुछ महीने पश्चात ही दक्षिणपंथी विरोधी अभियान चलाते हुए उन हजारों शिक्षित लोगों को जेल में डाल दिया गया, देश से निर्वासित कर दिया गया, जिन्होंने सरकार की आलोचना करने की हिम्मत की थी। वास्तव में चीनी भाषा में एक कहावत है कि ‘शवयात्रा को भी शादी की तरह सजाओ’- इसका छिपा मतलब यह हुआ कि सरकार के बारे में सच कहने की बजाय क्यों न उसकी तारीफ में कसीदे पढ़े जाएं। 

 

कोरोना वायरस फैलने का कारण है चीनी लोंगों का भोजन 

तो ‘संदेशवाहक’ का मुंह बंद करने की इस परम्परा के चलते सप्ताह भर में 75 हजार लोग जानलेवा वायरस की चपेट में आ गए। इस बीमारी के फैलने में मददगार दूसरा सांस्कृतिक कारण चीनी लोगों का ‘रोगों को दवाइयों की बजाय भोजन से दूर करने’ में विश्वास है। निर्धनता तथा अशिक्षित होने के चलते यह धारणा लोगों के दिल-दिमाग में गहरे तक घर कर चुकी है और अब यह उनकी सोच का हिस्सा है। 

जंगलों में पाए जाने वाले दुर्लभ पौधे तथा जानवर उपचार के लिए उपयुक्त माने जाते हैं, विशेषकर जब उन्हें ताजा या कच्चा खाया जाए। इन्हें ‘जिन्बू फूड्स’ कहा जाता है। मर्दाना ताकत के लिए सांपों को और वर्तमान कोरोना वायरस तथा उससे पहले सार्स वायरस के वाहक माने जाने वाले चमगादड़ों को नेत्र दृष्टि के लिए अच्छा माना जाता है। इसी तरह जिंदा भालुओं से प्राप्त किए जाने वाले पित्ते को गठिया के इलाज के लिए तथा शेर की हड्डियों को शारीरिक ताकत के लिए उत्तम समझा जाता है। यदि पुरुष ताकत की चाह में यह सब खाते हैं तो चीन की महिलाओं द्वारा सुंदरता के लिए विभिन्न प्रकार के अन्य जानवरों तथा उनसे प्राप्त होने वाली चीजों के उपयोग के बारे में तो चर्चा करना भी बड़ा भयावह है। गरीब लोग कुत्तों का मांस खाते हैं क्योंकि वे कुछ और खरीद नहीं सकते। 

यह बात समझना महत्वपूर्ण है कि जो चीजें अन्य देशों के लोगों के लिए घृणित तथा अमानवीय हैं, वे चीन में उसी तरह कुदरती रूप से स्वीकार्य हैं-लगभग उसी तरह जैसे भारत में गला खराब होने अथवा सर्दी लगने पर अदरक का सेवन प्रचलित है। जब तक सामाजिक मान्यताओं को बदला नहीं जाता, विश्व की कुल जनसंख्या का पांचवां हिस्सा उस आहार को ठीक मानता रहेगा जिसे वे ‘जिन्बू फूड’ पुकारते हैं।

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