‘एक के बाद एक धराशायी होते लोकतंत्र के 4 स्तम्भ’

Edited By Updated: 03 Jan, 2021 05:10 AM

4 pillars of democracy falling one after the other

जैसा कि भारत 21वीं सदी के तीसरे दशक में बढ़ चुका है। इसका भविष्य क्या है? क्या यह संस्थागत पतन या इच्छाशक्ति के रसातल को घूर रहा है। इन सब बातों का जवाब देने के लिए इन रहस्यों को अतीत में झांकना अनिवार्य है। जब आधुनिक

जैसा कि भारत 21वीं सदी के तीसरे दशक में बढ़ चुका है। इसका भविष्य क्या है? क्या यह संस्थागत पतन या इच्छाशक्ति के रसातल को घूर रहा है। इन सब बातों का जवाब देने के लिए इन रहस्यों को अतीत में झांकना अनिवार्य है। जब आधुनिक भारत के संस्थापकों जिनमें से ज्यादातर ब्रिटिश शिक्षित वकील थे, ने एक नए गणतंत्र का निर्माण किया। उस समय विश्व द्वितीय विश्व युद्ध की राख में से उभर कर उठ रहा था। उन्होंने अपने दिल से एक लिखित संविधान के साथ एक संस्थागत डिजाइन तैयार किया। 

पश्चिम के लोकतंत्रों और उदार आदर्शों से प्रेरित होकर वे उन देशों के अनुभव की ओर आकर्षित हुए। लेकिन मुख्य रूप से वैस्टमिंस्टर माडल पर स्थापित थे जो स्वतंत्र विधायिका, एक स्वायत्त न्यायपालिका, एक स्वतंत्र मीडिया और एक जवाबदेह कार्यपालिका पर आधारित था। आजादी के पहले अढ़ाई दशकों के लिए सिस्टम ने बेहतर रूप से कार्य किया। विधायिका निडर थी, न्यायपालिका स्वतंत्र तथा मीडिया ने जमकर जुबान खोली। शीर्ष अदालत के न्यायाधीशों द्वारा लिए गए रूढि़वादी विचार को पलटने के लिए संविधान में संशोधन किए गए। 

केश्वानंद भारती के मामले में सुप्रीमकोर्ट ने 1973 में मूल आधार ढांचे की संरचना की और घोषणा की कि संविधान की कुछ विशेषताएं संसद की संशोधित शक्तियों से परे थीं। इस कारण संविधान की स्कीम, ढांचे तथा निर्माण को शाश्वत काल में बदल दिया। पहला संकट जून 1975 में आंतरिक आपातकाल लागू करने के साथ आया।  जो सांसद सलाखों के पीछे नहीं थे उन्होंने अपनी हिम्मत और अंतर्रात्मा की आवाज खो दी।

न्यायपालिका जो ए.डी.एम. जबलपुर (अब के.एस. पुट्टास्वामी बनाम यू.ओ.आई. 2017 के मामले में खारिज कर दिया गया) के साथ टुकड़े-टुकड़े हो गई, संस्थागत का सबसे निचला बिंदू बन गई। मीडिया ने खुद को बेहतर नहीं बताया। बतौर सूचना एवं प्रसारण मंत्री (आपातकाल अवधि के बाद का समय) एल.के. अडवानी ने भारतीय मीडिया के बारे में चुटकी लेते हुए कहा कि, ‘‘आपको केवल झुकने के लिए कहा गया था लेकिन आप रेंगने लग पड़े।’’

1977 से 1989 तक आपातकाल के अनुभव के बावजूद केंद्र में भारी बहुमत वाली सरकारें और राज्य विधानसभाओं में भी अन्य संस्थान स्वतंत्रता और सम्मान दोनों के लिए सक्षम थे। दुर्भाग्यवश विधायी संस्थाएं इस अवधि के दौरान एक जनहानि बन गईं। संविधान की 10वीं अनुसूची को दलबदल विरोधी अधिनियम (1985) भी कहा जाता है जिसे हार्स ट्रेडिंग के खतरे को रोकने के सही इरादे से लागू किया जो हमारे लोकतंत्र को चूस रही थी।

1991 से न्यायपालिका का सबसे अच्छा समय तब आया जब भारत ने गठबंधन के चरण में प्रवेश किया। 1991 से 1996 के बीच प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव ने एक सिंगल पार्टी सरकार चलाई। इस सरकार के पास पूर्व की सरकारों जैसे शक्तियां नहीं थीं क्योंकि यह बहुमत वाली सरकार नहीं थी। इस समय के दौरान 1993 में सुप्रीमकोर्ट ने सरकार से शीर्ष न्यायपालिकाओं में जजों की नियुक्ति के अधिकार को छीन लिया। 

प्रथम न्यायाधीश केस (1981) बताता है कि नियुक्तियों के मामले में भारत के मुख्य न्यायाधीश के साथ परामर्श पूरा तथा प्रभावी होना चाहिए। दूसरा न्यायाधीश केस (1993) ने कोलेजियम सिस्टम को जारी किया। इसने व्यवस्था दी कि ‘परामर्श’ का मतलब वास्तव में ‘सहमति’ था। इसने आगे कहा कि यह मुख्य न्यायाधीश का निजी विचार नहीं होगा बल्कि एक संस्थागत विचार होगा जो सुप्रीमकोर्ट के दो वरिष्ठ न्यायाधीशों के साथ परामर्श के बाद आएगा। अपने विचार के लिए राष्ट्रपति संदर्भ के साथ तीसरे न्यायाधीश केस (1998) ने कोलेजियम को पांच सदस्यीय निकाय में शामिल किया जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश तथा उनके 4 वरिष्ठ सहयोगी शामिल किए गए। 

1993 से 2014 के मध्य 2 दशकों से भी ऊपर की अवधि के दौरान उच्च न्यायपालिका ने विधि शास्त्र की सीमाओं का विस्तार किया। मीडिया के लिए भी यह स्वर्णम युग था। प्रसारण के उदारीकरण में समाचार, करंट अफेयर्ज टी.वी. चैनलों तथा इन्वैस्टीगेटिव पत्रकारिता ने प्रसार देखा। इंटरनैट की नवीनता ने पत्रकारिता को एक नया डिजिटल आकार दिया। 2014 में बदलाव शुरू हुआ।

25 वर्षों के बाद एक बहुमत सरकार ने केंद्रीयकरण के विचार को आगे बढ़ाया। इस दौरान सबसे पहले मीडिया धराशायी होने लगा। यहां तक कि चुनाव आयोग जो टी.एन. शेषन के कुशल नेतृत्व में 1990 से अच्छा कार्य कर रहा था वह भी प्रभावित हुआ और आज समय यह है कि इसे भी आज निष्पक्ष नहीं माना जा रहा है। 2019 के आम चुनावों के बाद लोकतंत्र के 4 स्तम्भ धराशायी हुए हैं जिसने पहले से ही ढीले पड़े विपक्ष को और कमजोर कर दिया। 

भारतीय संविधान तथा संस्थागत ढांचा जो पिछले कई वर्षों के दौरान बना हुआ था वह उस बिंदू पर आ गया जो पहले कभी नहीं था। अमरीका तथा संस्थाओं ने डोनाल्ड ट्रम्प के खिलाफ आवाज उठाई और उन्हें गिरने पर मजबूर किया। यह एक नवीनतम उदाहरण है इसलिए अब समय है कि भारतीय विपक्षी पाॢटयां एकजुट होकर कार्य करें।-मनीष तिवारी
 

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