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क्या हम वास्तव में एक कार्यशील लोकतंत्र हैं

Edited By ,Updated: 26 May, 2022 03:28 AM

are we really a functioning democracy

हम खुद पर विश्व में सबसे विशाल लोकतंत्र होने पर गर्व महसूस करते हैं जो संविधान में लिखित लोगों के मूलभूत अधिकार प्रदान करता है। हम स्वतंत्र मीडिया, एक स्वतंत्र न्यायपालिका तथा कानूनों को वैध रूप से लागू करने के लिए कड़े प्रावधानों

हम खुद पर विश्व में सबसे विशाल लोकतंत्र होने पर गर्व महसूस करते हैं जो संविधान में लिखित लोगों के मूलभूत अधिकार प्रदान करता है। हम स्वतंत्र मीडिया, एक स्वतंत्र न्यायपालिका तथा कानूनों को वैध रूप से लागू करने के लिए कड़े प्रावधानों की बात करते हैं। 

हम यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त सुरक्षा उपायों तथा नियंत्रणों व संतुलनों की बात करते हैं कि लोकतंत्र के 3 स्तम्भ-विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकें। हम स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनाव करवाने की डींगें भी मारते हैं और दावा करते हैं कि न्याय प्रदान करने में यहां कोई भेदभाव नहीं किया जाता। मगर क्या हम एक वास्तविक कार्यशील लोकतंत्र हैं? क्या हमारे विभिन्न संस्थानों को स्वतंत्र रूप से कार्य करने दिया जाता है? क्या ये सभी संविधान की भावना के अनुरूप कार्य करते हैं? इसे लेकर गंभीर संदेह हैं। 

नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के उल्लंघन को लेकर लगातार रिपोर्ट्स आती रहती हैं जिनमें बोलने की स्वतंत्रता शामिल है। पत्रकारों, लेखकों, अध्यापकों, ओपिनियन लीडर्स तथा सामाजिक कार्यकत्र्ताओं को देशद्रोह तथा अन्य तानाशाहीपूर्ण कानूनों के अंतर्गत गिरफ्तार होने के खतरे का सामना करना पड़ता है यदि वे सरकार के खिलाफ बोलते हैं। 

गत सप्ताह दिल्ली में एक मैट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट ने बोलने की स्वतंत्रता का अधिकारियों को एक सबक दिया है जिसे देश में पुलिस तथा न्यायिक अधिकारियों के लिए पढऩा आवश्यक बनाया जाना चाहिए। जमानत के एक मामले से निपटते हुए मुख्य मैट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट सिद्धार्थ मलिक ने टिप्पणी की कि किसी दूसरे व्यक्ति के विचार  आपको नाराज कर सकते हैं लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उस व्यक्ति ने कोई अपराध किया है तथा विचारों में व्यापक विभिन्नता के बिना लोकतंत्र कुछ नहीं है। 

उन्होंने कहना जारी रखा कि 130 करोड़ से अधिक भारतीयों के साथ किसी भी मुद्दे पर 130 करोड़ अलग विचार हो सकते हैं और किसी व्यक्ति द्वारा नुक्सान की उस भावना को पाले रखने को किसी पूरे समुदाय अथवा समूह को निशाना बनाए जाने के बराबर नहीं रखा जा सकता। जमानत याचिका ब्रिटिशकाल के देशद्रोह कानून से संबंधित थी। 

महत्वपूर्ण है कि इस कानून के अंतर्गत हिरासत में लिए गए या गिरफ्तार किए गए लोगों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है जबकि इसके मुकाबले इस विशेष कानून के अंतर्गत दंड निर्धारणों की संख्या में तेजी से गिरावट आई है जो यह साबित करता है कि ऐसे अधिकतर मामले गंभीर नहीं होते। नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार 2015 में जांच के अंतर्गत आए देशद्रोह के 861 मामलों की तुलना में 2020 तक ऐसी जांच के अंतर्गत आए मामलों की संख्या लगभग 3026 थी। दंडसिद्धि की दर करीब केवल 20 प्रतिशत पर बनी रही। 

खुद न्यायिक प्रणाली की स्थिति खराब है। देश की विभिन्न अदालतों में 4 करोड़ से अधिक मामले लम्बित पड़े हैं जिनमें ऐसे मामले भी शामिल हैं जो 10 वर्षों से अधिक समय से लम्बित हैं। हमारी जेलें विचाराधीन कैदियों से क्षमता से अधिक भरी हैं। दरअसल जेलों में बंद 75 प्रतिशत कैदी ऐसे हैं जो सुनवाई में देरी के कारण मुकद्दमों का सामना कर रहे हैं तथा उन्हें सजाएं नहीं दी जा सकीं। क्या यह दर्शाता है कि एक स्वस्थ लोकतंत्र कार्यशील है? इसके साथ ही सभी स्तरों पर बड़ी संख्या में जजों के पद रिक्त हैं। जिन्हें स्वीकृत संख्या के बावजूद नहीं भरा जा रहा और न्यायिक सेवाओं के लिए अपना नाम दर्ज करवाने के इच्छुक लॉ ग्रैजुएट तथा वकील उपलब्ध हैं। राज्य सरकारों, हाईकोटर््स, सुप्रीमकोर्ट तथा केंद्र सरकार सहित सभी संबंधित पक्षों को इस दयनीय स्थिति के लिए दोष को सांझे तौर पर स्वीकार करना होगा। 

हमारी विधायिका की कार्यप्रणाली भी संतोषजनक से बहुत दूर है। सरकारें स्वतंत्र वाद-विवाद तथा चर्चाओं की इजाजत नहीं देतीं और बिना पर्याप्त दिमाग लगाए विधेयकों को पारित करवा लिया जाता है। विपक्षी दलों को भी रचनात्मक भूृमिका नहीं निभाने के लिए दोष दिया जाना चाहिए। महत्वपूर्ण विधेयक संसदीय समितियों को नहीं भेजे जाते। विधानसभाओं तथा संसद के कार्य घंटों की संख्या में कमी आ रही है तथा इसके साथ ही गुणवत्तापूर्ण वाद-विवाद  गायब होता जा रहा है। यहां तक कि  हमारी सरल बहुमत प्रणाली के परिणामस्वरूप मात्र 30 प्रतिशत या उससे भी कम वोट प्राप्त करने वाले राजनीतिक दल सरकार बना लेते हैं। जहां तक मीडिया की बात है, जिसे  लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, इसके बारे में जितना कम कहा जाए उतना ही बेहतर। कुछ सम्मानजनक अपवादों को छोड़ कर मीडिया अधिकतर सरकार का ही पक्ष लेता है, डर अथवा पक्षपात के कारण। 

यह विवाद का विषय है कि क्या हमारे संविधान निर्माताओं ने इस तरह के लोकतंत्र की कल्पना की थी जिस तरह का इन दिनों कार्यशील है। यह किस तरह की स्वतंत्रता है जिसके लिए करतार सिंह सराभा जैसे शहीदों ने 19 वर्ष की आयु में अपना बलिदान दे दिया था अथवा भगत सिंह ने 23 वर्ष की उम्र में फांसी का फंदा चूमा तथा अनगिनत अन्य जिन्होंने देश के नागरिकों के लिए स्वतंत्रता तथा लोकतंत्र कायम रखने के लिए अपनी जानें बलिदान कर दीं। दुर्भाग्य से इसका उत्तर न है।-विपिन पब्बी 
 

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