Edited By ,Updated: 02 Oct, 2023 04:16 AM

लोकसभा के चुनाव अभी 6 महीना दूर हैं। पर उसकी बौखलाहट अभी से शुरू हो गई है। हर राजनीतिक दल को यह पता है कि गठबंधन की राजनीति से छुटकारा नहीं होने वाला। 30 बरस पहले उजागर हुए हवाला कांड के बाद से गठजोड़ की राजनीति हो रही है।
लोकसभा के चुनाव अभी 6 महीना दूर हैं। पर उसकी बौखलाहट अभी से शुरू हो गई है। हर राजनीतिक दल को यह पता है कि गठबंधन की राजनीति से छुटकारा नहीं होने वाला। 30 बरस पहले उजागर हुए हवाला कांड के बाद से गठजोड़ की राजनीति हो रही है। पर पिछले कटु अनुभवों के बाद इस बार लग रहा था कि शायद 2 ध्रुवीय राजनीति शक्ल ले लेगी। कुछ महीने पहले तक ऐसा लगता था कि छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों का महत्व खत्म हो चला है। मगर विपक्षी दलों ने जिस तरह भाजपा के खिलाफ एकजुट होकर लडऩा तय किया है उससे बिल्कुल साफ है कि गठबंधन की राजनीति अप्रासंगिक नहीं हुई है बल्कि और ज्यादा बड़ी भूमिका निभाने जा रही है।
जिस तरह भाजपा अपने सांसदों, केंद्रीय मंत्रियों व वरिष्ठ नेताओं को आगामी विधानसभा चुनावों में उतार रही है उसकी चिंता साफ नजर आ रही है। इस बात पर भी गौर करने की जरूरत है कि आखिर इसकी जरूरत क्यों आन पड़ी? भाजपा के विरोधी दल तो बाकायदा यह समझाने में लगे हैं कि अगर मोदी जी के पक्ष में जनता खड़ी है और माहौल इतना जबरदस्त है तो भाजपा ऐसे कदम क्यों उठा रही है? क्या वोटर अपने स्थानीय नेताओं से खुश नहीं हैं? क्या स्थानीय नेता स्थानीय मुद्दों को सही से सुलझा नहीं पा रहे? क्या वे अपने शासन काल में जनता की समस्याओं पर ध्यान नहीं दे पाए?
2024 के लोकसभा चुनावों से पहले भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सामने यह सवाल उठाया जा रहा है कि वे पूर्ण बहुमत का आंकड़ा लाएगी कहां से? अगर भाजपा के स्थानीय नेताओं को राज्यों के आगामी चुनावों में टिकट भी नहीं मिल रहा है तो क्या वे पूरी श्रद्धा और समर्पण के साथ भाजपा के लिए प्रचार करेंगे या वह भी राजनीतिक खेमा बदल सकते हैं? विपक्षी दलों के गठबंधन के बाद जितने भी सर्वेक्षण हुए हैं और मोदी के पक्षकारों ने जितने भी हिसाब लगाए हैं उसके हिसाब से आगामी लोकसभा चुनावों में अकेले भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलना आसान नहीं है। जो-जो दल भाजपा के समर्थन में 2014 में जुड़े थे उनमें से कई दल अब भाजपा से अलग हो चुके हैं। ऐसे में यदि विपक्षी दल एकजुट हो कर भाजपा और उनके सहयोगी दलों के खिलाफ एक-एक उम्मीदवार खड़ा करेंगे तो जो गैर-भाजपाई वोट बंट जाते थे वो सभी मिल-जुल कर भाजपा के खिलाफ मुश्किल जरूर खड़ी कर सकते हैं।
ऐसे में भाजपा को गठबंधन के लिए अपनी कोशिशें जारी रखना स्वाभाविक होगा। यह बात अलग है कि पिछले चुनावी प्रचारों से आजतक भाजपा ने ऐसा माहौल बनाए रखा है कि देश में मोदी की लहर अभी भी कायम है। पर जमीनी हकीकत कुछ और है। इसलिए ऐसा माहौल बनाए रखना उनकी चुनावी मजबूरी है। सामान्य अनुभव यह है कि देश के एक तिहाई से ज्यादा वोटर बहुत ज्यादा माथापच्ची नहीं करते और माहौल के साथ हो लेते हैं। बस एक यही कारण नजर आता है कि भाजपा की चुनावी रणनीति में माहौल बनाने का काम धुआंधार तरीके से चलता आया है। मीडिया ने भी जितना हो सकता था, उस माहौल को हवा दी है। लेकिन इन छोटे-छोटे दलों का एन.डी.ए. गठबंधन से अलग होना उस हवा को या उस माहौल को कुछ नुक्सान जरूर पहुंचाएगा। कितना? इसका अंदाजा आने वाले 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों से भी लग जाएगा।
भाजपा को घेरने वाले हमेशा यह सवाल उठाते हैं कि भाजपा अटल बिहारी वाजपेयी के अपने स्वर्णिम काल में भी जादुई आंकड़े के आसपास भी नहीं पहुंची थी। वह तो 20-22 दलों के गठबंधन का नतीजा था कि भाजपा के नेतृत्व में राजग सरकार बना पाई थी। इसी आधार पर गैर-भाजपाई दल यह पूछते हैं कि आज की परिस्थिति में दूसरे कौन से दल हैं जो भाजपा के साथ आएंगे? इसके जवाब में भाजपा का कहना अब तक यह रहा है कि आगे देखिए जब हम तीसरी बार सरकार बनाने के आसपास पहुंच रहे होंगे तो कितने दल खुद-ब-खुद हमारे साथ हो लेंगे।
यह बात वैसे तो चुनाव के बाद की स्थितियों के हिसाब से बताई जाती है। लेकिन चुनाव के पहले बनाए गए माहौल का भी एक असर हो सकता है कि छोटे-छोटे दल भाजपा की ओर पहले ही चले आएं। अब स्थिति यह बनती है कि और भी दलों या नेताओं को चुनाव के पहले ही कोई फैसला लेने का एक मौका मिल गया है। उन्हें यह नहीं लगेगा कि वे अकेले क्या कर रहे हैं। कुल मिलाकर छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों के भाजपा या विपक्षी गठबंधन से ध्रुवीकरण की शुरूआत हो चुकी है। एक रासायनिक प्रक्रिया के तौर पर अब जरूरत उत्प्रेरकों की पड़ेगी। बगैर उत्प्रेरकों के ऐसी प्रक्रियाएं पूरी हो नहीं पातीं। ये उत्प्रेरक कौन हो सकते हैं? इसका अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता।-विनीत नारायण