लैंगिक समानता का मूल चिंतन

Edited By ,Updated: 04 Mar, 2024 06:40 AM

basic idea of gender equality

ईश्वर की बनाई इस सृष्टि में मानव के रूप में जन्म लेना एक दुर्लभ सौभाग्य की बात होती है। और जब वह जन्म एक स्त्री के रूप में मिलता है तो वो परम सौभाग्य का विषय होता है।

ईश्वर की बनाई इस सृष्टि में मानव के रूप में जन्म लेना एक दुर्लभ सौभाग्य की बात होती है। और जब वह जन्म एक स्त्री के रूप में मिलता है तो वो परम सौभाग्य का विषय होता है। क्योंकि स्त्री ईश्वर की सबसे खूबसूरत वह कलाकृति है जिसे उसने सृजन करने की पात्रता दी है। सनातन संस्कृति के अनुसार संसार के हर जीव की भांति स्त्री और पुरुष दोनों में ही ईश्वर का अंश होता है लेकिन स्त्री को उसने कुछ विशेष गुणों से नवाजा है। यह गुण उसमें नैसॢगक रूप से पाए जाते हैं जैसे सहनशीलता, कोमलता, प्रेम,त्याग, बलिदान, ममता।

देखा जाए तो इस सृष्टि के क्रम को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया में जो जिम्मेदारियां ईश्वर ने एक स्त्री को सौंपी हैं उनके लिए एक नारी में इन गुणों का होना आवश्यक भी है। लेकिन इसके साथ ही हमारी सनातन संस्कृति में शिव का अर्धनारीश्वर रूप हमें यह भी बताता है कि स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं प्रतिद्वंद्वी नहीं और स्त्री के ये गुण उसकी शक्ति हैं कमजोरी नहीं। भारत तो वह भूमि रही है जहां प्रभु श्री राम ने भी सीता माता की अनुपस्थिति में अश्वमेध यज्ञ उनकी सोने की मूर्त के साथ किया था।

भारत की संस्कृति तो वह है जहां कृष्ण भगवान को नन्दलाल कहा जाता था तो वो देवकीनंदन और यशोदानंदन भी थे। श्री राम दशरथ नंदन थे तो कौशल्या नंदन होने के साथ-साथ सियावर भी थे। भारत तो वह राष्ट्र रहा है जहां मैत्रेयी गार्गी इंद्राणी लोपामुद्रा जैसी वेद मंत्र दृष्टा विदुषी महिलाएं थीं तो कैकेयी जैसी रानियां भी थीं जो युद्ध में राजा दशरथ की सारथी ही नहीं थीं बल्कि युद्ध में राजा दशरथ के घायल होने की अवस्था में उनकी प्राण रक्षक भी बनीं।

लेकिन इसे क्या कहा जाए कि स्त्री शक्ति के ऐसे गौरवशाली सांस्कृतिक अतीत के बावजूद वर्तमान भारत में महिलाओं को सामाजिक रूप से सशक्त करने की दिशा में सरकारों को महिला दिवस मनाने जैसे विभिन्न प्रयास करने पड़ रहे हैं। समझने वाली बात यह है कि आज जब हम महिलाओं के अधिकारों की बात करते हैं और लैंगिक समानता की बात करते हैं तो हम मुद्दा तो सही उठाते हैं लेकिन विषय से भटक जाते हैं। मुद्दे की अगर बात करें, तो आज महिलाएं हर क्षेत्र में अपने कदम रख रही हैं।

धरती हो या आकाश आई.टी. सैक्टर हो या मैकेनिकल समाजसेवा हो या राजनीति महिलाएं आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ रही हैं। और अपनी कार्यकुशलता के दम पर अपनी प्रतिभा का लोहा भी मनवा रही हैं। आज विश्व के अनेक देशों के शीर्ष पदों पर महिलाएं विराजमान हैं। इसके अलावा आज के आत्मनिर्भर भारत के इस दौर में अनेक महिला उद्यमी देश की तरक्की में अपना योगदान दे रही हैं।

लेकिन यह तस्वीर का एक रुख है। तस्वीर का दूसरा रुख है  2021 की एक सर्वे रिपोर्ट जिसमें यह बात सामने आती है कि 37 प्रतिशत महिलाओं को उसी काम के लिए पुरुषों के मुकाबले कम वेतन दिया जाता है। 85 फीसदी महिलाओं का कहना है कि उन्हें पदोन्नति और वेतन के मामले में नौकरी में पुरुषों के समान अवसर नहीं मिलते। लिंक्डइन की इस सर्वे रिपोर्ट के अनुसार आज भी कार्य स्थल पर कामकाजी महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है। महिलाओं को काम करने के समान अवसर उपलब्ध कराने के मामले में 55 देशों की सूची में भारत 52 वें नम्बर पर है।

इसे क्या कहा जाए कि हम वैश्विक स्तर पर महिला दिवस जैसे आयोजन करते हैं जिसमें महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार देने की बातें करते हैं लेकिन जब तनख्वाह, पदोन्नति, समान अवसर प्रदान करने जैसे विषय आते हैं तो हम 55 देशों की सूची में अंतिम पायदानों पर होते हैं। जाहिर है कि जब इस मुद्दे पर चर्चा होती है तो अनेक तर्क वितर्कों के माध्यमों से महिला सशक्तिकरण से लेकर नारी मुक्ति और स्त्री उदारवाद से लेकर लैंगिक समानता जैसे भारी-भरकम शब्द भी सामने आते हैं। और यहीं हम विषय से भटक जाते हैं। क्योंकि उपरोक्त विमर्शों के साथ शुरू होता है पितृसत्तात्मक समाज का विरोध।

यह विरोध शुरू होता है पुरुषों से बराबरी के आचरण के साथ। पुरुषों जैसे कपड़ों से लेकर पुरुषों जैसा आहार विहार जिसमें मदिरा पान, सिगरेट सेवन तक शामिल होता है। जाहिर है कि तथाकथित उदारवादियों का स्त्री विमर्श का यह आंदोलन उदारवाद के नाम पर फूहड़ता के साथ शुरू होता है और समानता के नाम पर मानसिक दिवालियेपन पर खत्म हो जाता है। हमें यह समझना चाहिए कि जब हम महिलाओं के लिए लैंगिक समानता की बात करते हैं तो हम उनके साथ होने वाले लैंगिक भेदभाव की बात कर रहे होते हैं।

इस क्रम में समझने वाला विषय यह है कि अगर यह लैंगिक भेदभाव केवल महिलाओं द्वारा पुरुषों के समान कपड़े पहनने या फिर आचरण रखने जैसे सतही आचरण से खत्म होना होता तो अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसे तथाकथित विकसित और आधुनिक देशों में यह कब का खत्म हो गया होता। -डा. नीलम महेंद्र

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