अमर शहीद राव तुलाराम के बलिदान की शौर्य गाथा

Edited By ,Updated: 23 Sep, 2023 06:27 AM

bravery story of sacrifice of immortal martyr rao tularam

इंगलैंड की ईस्ट इंडिया कंपनी व्यापार के नाम पर पूरे भारत में अपने पैर जमा चुकी थी। अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो नीति सफल हो चुकी थी। एक-एक करके भारत के सभी भाग अंग्रेजों के चंगुल में फंसते जा रहे थे। गरीब जनता को अंग्रेजों द्वारा बुरी तरह से...

इंगलैंड की ईस्ट इंडिया कंपनी व्यापार के नाम पर पूरे भारत में अपने पैर जमा चुकी थी। अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो नीति सफल हो चुकी थी। एक-एक करके भारत के सभी भाग अंग्रेजों के चंगुल में फंसते जा रहे थे। गरीब जनता को अंग्रेजों द्वारा बुरी तरह से पीसा जा रहा था। इसी दरिंदगी को लेकर देसी सैनिकों और स्वतंत्रता प्रेमी जनता के मन में स्वतंत्रता रूपी भावना की ज्वाला का उदय हुआ। 

अंग्रेजों के दमन से मुक्ति पाने के लिए सन 1857 में स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी सुलग उठी। इस क्षेत्र में इस क्रांति का नेतृत्व वीर केसरी अमर बलिदानी राव तुलाराम ने किया। राव तुलाराम का जन्म एक दिसंबर 1825 को हुआ था। वे रेवाड़ी के प्रभावशाली राज परिवार के प्रमुख नेता व प्रतिनिधि थे। राव तुलाराम एक कुशल प्रशासक एवं सेनानी थे। इनकी प्रजा इनकी न्यायप्रियता, देशभक्ति एवं कुशल प्रशासन से काफी प्रसन्न थी। राव तुलाराम अंग्रेजों के शासन को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। 

अत: 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की बागडोर अपने हाथ में ले ली। इनके एक भाई राव कृष्ण गोपाल ने इनकी प्रेरणा से 10 मई 1857 को मेरठ में सैनिक विद्रोह की बागडोर संभाली और अंग्रेजों का सफाया करके दिल्ली में बादशाह बहादुरशाह जफर को भारत का स्वतंत्र शासक घोषित किया। इधर राव तुलाराम ने भारत की दासता की जंजीरें तोड़कर जिला गुरुग्राम और महेंद्रगढ़ के इलाके को विदेशी साम्राज्य से आजाद कर दिया। कर्नल फोर्ट और अंग्रेजी फौज को गुरुग्राम से मार भगाया। रेवाड़ी के नजदीक अंग्रेजों की छावनी का सफाया कर दिया और एक बड़ी फौज भर्ती करके देश की स्वतंत्रता के लिए अथक प्रयास किया। 

गोकलगढ़ में तोपें ढालने का कारखाना तथा टकसाल कायम करके दिल्ली और आस-पास के क्षेत्रों में देशभक्त नेताओं को हर तरह की सहायता दी। अंग्रेजों के साथ इनकी अंतिम लड़ाई नारनौल से 3 मील दूर नसीबपुर के ऐतिहासिक रण स्थल पर 16 नवंबर 1857 को हुई। राव तुलाराम के नेतृत्व में हरियाणा और राजस्थान के क्षेत्रों में देशभक्त सूरमाओं ने इकट्ठा होकर आखिरी टक्कर ली और पूरी ताकत के साथ लड़े। अंग्रेजों के पास ज्यादा फौज, भारी गोला-बारूद एवं तोपें होते हुए भी देशभक्तों के सामने इनके कदम नहीं टिक सके। पहले ही दिन  के युद्ध में कर्नल जेरार्ड अपने बहुत से सैनिकों सहित राव तुलाराम के हाथों मारे गए। 

इस युद्ध में लगभग पांच हजार सैनिक कुर्बान हो गए थे और आज भी यहां वर्षा होती है तो नसीबपुर के मैदान की मिट्टी लाल हो जाती है। कर्नल जेरार्ड व अंग्रेजी सैनिकों के मारे जाने के बाद देशद्रोही पंजाब व राजस्थान की रियासतें अंग्रेजों की मदद के लिए पहुंच गईं तथा स्वतंत्रता के दीवानों को घेर लिया। एक-एक देशभक्त कई-कई दुश्मनों को मारकर कुर्बान हो गया। राव तुलाराम को जख्मी हालत में युद्ध स्थल से उठाकर उनके साथियों ने सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया। रावकृष्ण गोपाल और राव रामलाल जैसे योद्धा भी इस जंग में काम आए। 

यद्यपि इस लड़ाई में विजय अंग्रेजों के हाथ आई, फिर भी अंग्रेजी फौज को राव तुलाराम और उनके साथियों के अद्भुत साहस और वीरता को देखकर दांतों तले उंगली दबानी पड़ी। राव साहब हिम्मत हारने वाले सेनानी नहीं थे। उन्होंने अपनी बची-खुची सेना को फिर से संगठित किया और हजारों कठिनाइयों के बावजूद अंग्रेजी फौजों को चकमा देकर भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई जारी रखने के लिए कालपी में तात्या टोपे और नाना साहेब से जा मिले। परंतु अभी भी देश का भाग्य चक्र अंधकार में था। अत: वहां भी इनके प्रयत्न सफल नहीं हो सके और भारतीय सूरमा एक-एक करके समाप्त होते गए और अंग्रेजों के पैर जमते गए। एक बार फिर राव तुलाराम ने अपने अद्भुत साहस, दूरदर्शिता और नैतिकता का परिचय दिया। कुछ साथियों को लेकर अपनी जान हथेली पर रख कर अंग्रेजों की कड़ी निगरानी से बचते-बचाते भारत का सर्वप्रथम दूत बनकर विदेशों में पहुंचे, ताकि वहां की सहायता से भारत को स्वतंत्र किया जा सके। 

काबुल में भारत से बचकर निकले हुए विद्रोहियों को इकट्ठा करके पहली आजाद हिंद फौज बनाई। दुर्भाग्यवश भारत मां का यह बहादुर एवं कत्र्तव्यनिष्ठ सपूत अपने देश से हजारों मील दूर मातृभूमि की बेडिय़ां काटने के प्रयत्नों में बीमार होकर हमसे सदा के लिए विदा हो गया।(लेखक हरियाणा के सामाजिक एवं अधिकारिता, सैनिक व अद्र्धसैनिक कल्याण मंत्री हैं।)-ओम प्रकाश यादव

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