बिहार चुनाव में ‘जातिवाद’ का बोलबाला

Edited By ,Updated: 23 Oct, 2020 04:03 AM

casteism  dominated in bihar election

बिहार में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। वहां हर कोई हर किसी की लुटिया डुबोने में लगा है। लेकिन हर कोई हर किसी के सहारे चुनाव जीतने के फेर में  भी है। कुल मिलाकर चार पाॢटयां हैं। चार नेता हैं और चारों आपस में बुरी तरह से गुत्थमगुत्था हैं। पहले नेता हैं...

बिहार में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। वहां हर कोई हर किसी की लुटिया डुबोने में लगा है। लेकिन हर कोई हर किसी के सहारे चुनाव जीतने के फेर में  भी है। कुल मिलाकर चार पाॢटयां हैं। चार नेता हैं और चारों आपस में बुरी तरह से गुत्थमगुत्था हैं। पहले नेता हैं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार। उनकी पार्टी है जनता दल यूनाइटेड। नीतीश का गठबंधन बीजेपी से है और प्रधानमंत्री मोदी इसके चेहरे हैं। विपक्ष में हैं लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के बेटे  तेजस्वी यादव। चौथे नेता हैं चिराग पासवान। 

बिहार की जनसंख्या करीब 12 करोड़ है। इसमें से 9 करोड़ वोटर हैं। इन 9 करोड़ में भी 60 प्रतिशत 35 साल से कम उम्र के हैं। ज्यादातर गांवों में रहते हैं या फिर दूसरे राज्यों में नौकरी की तलाश के लिए चले गए हैं। बिहार में 80 प्रतिशत से ज्यादा लोग गांवों में रहते हैं। गांवों में गरीबी बहुत है। यहां 50 प्रतिशत लोग गरीबी की सीमा रेखा के नीचे रहते हैं। बिहार की हालत खस्ताहाल है। वहां की प्रति व्यक्ति आय 47 हजार रुपए है जबकि भारत की औसत प्रति व्यक्ति आय एक लाख 36 हजार के आसपास है। बिहार करीब करीब हर क्षेत्र में पिछड़ा हुआ है। अफसोस की बात है कि जयप्रकाश नारायण जे.पी. के आंदोलन से निकले लालू प्रसाद यादव ने 15 साल शासन किया, उसके बाद जेपी आंदोलन से ही निकले नीतीश कुमार ने 15 साल राज किया लेकिन बिहार नहीं बदला, बदहाल ही रहा। बीमार राज्यों की श्रेणी में तब भी था और आज भी है। 

अब ऐसे बीमार राज्य में विकास पर जाति हावी है। यह  अपने आप में चिंता और दुख की बात है। ऐसा नहीं है कि दूसरे राज्यों में जाति हावी नहीं होती लेकिन बिहार की कहानी कुछ अलग है। यहां 51 प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग यानि ओ.बी.सी. हैं। सवर्ण जातियां यानी अपर कास्ट करीब 15 प्रतिशत  है। दलितों की आबादी 16 फीसदी है। मुस्लिम आबादी करीब17 प्रतिशत है। अब असली खेल इन जातियों के अंदर जाने पर समझ में आता है। अपर कास्ट 15 फीसदी में पांच फीसदी ब्राह्मण हैं, पांच प्रतिशत ही भूमिहार हैं, राजपूतों की संख्या चार फीसदी है और एक प्रतिशत कायस्थ हैं। 

आगे चलिए। ओ.बी.सी. 51 फीसदी हैं लेकिन इसमें से 30 फीसदी ई.बी.सी. यानी एक्सट्रीम बैकवर्ड कास्ट यानी अति पिछड़ा वर्ग है। महा पिछड़ा वर्ग है। ये अपने आप में सबसे बड़ा वोट बैंक है जो पूरे राज्य में बिखरा  हुआ है। इसी तरह दलितों में महादलित एक अलग वर्ग है जो महापिछड़ों की तरह ही बिखरा हुआ है। बीजेपी अपर कास्ट के भरोसे हैं। नीतीश कुमार की नजर दलित वोटों  पर है। जीतन राम महादलितों के नेता हैं। मुकेश  सहनी महा पिछड़ा वोट बैंक से हैं। इस तरह सवर्ण, दलित, महादलित, महापिछड़ों को एक छतरी के नीचे लाने की कोशिश गठबंधन कर रहा है। हर एक फ्रैंड जरूरी होता है की तर्ज पर कहा जा सकता है कि बिहार में हर जाति जरूरी  होती है। यही वजह है कि नीतीश कुमार ने अपने हिस्से में से 5 सीटें महादलित जीतन राम मांझी को दी हैं। 

इसी तरह बीजेपी ने अपने हिस्से में  से 11 सीटें महा पिछड़े मुकेश सहनी को दी हैं, विकासशील इनसान पार्टी को। अब टिकट भी इसी हिसाब से दिए गए हैं। बीजेपी ने पिछले विधानसभा चुनाव में दो सीटों पर  मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे लेकिन इस बार एक भी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया है। ये टिकट न देना भी अपने वोट बैंक को पुख्ता करने की रणनीति के तहत ही है। उधर महागठबंधन  की बात करें तो इसमें लालू का राष्ट्रीय जनता दल, राहुल गांधी की कांग्रेस और वाम मोर्चा शामिल है। कांग्रेस की नजर अपर कास्ट और मुस्लिम वोटों पर है। पहले कांग्रेस बिहार में अपर कास्ट , दलित और मुस्लिम वोट के सहारे जीतती रही है। उधर लालू का एम.वाई. फैक्टर काम करता रहा है। मुस्लिम और यादव वोट। 

अगर हम बीजेपी, नीतीश कुमार और लालू यादव की बात करें तो तीनों ने अपने अपने वोट बैंक को पुख्ता ही किया है।  2010 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को अपर कास्ट के 56 फीसदी वोट मिले थे। 2015 में ये बढ़ कर 84 प्रतिशत हो गए। 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी को अपर कास्ट के 80 फीसदी वोट मिले। उधर नीतीश कुमार की बात करें  तो 2010 के विधानसभा चुनावों में दलितों और ओ.बी.सी. के 58 फीसदी वोट मिले। 2015 में इसमें कुछ कमी आई और 55 प्रतिशत वोट मिले लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों में दलित ओ.बी.सी. वोट प्रतिशत बढ़कर 80 हो गया। इसी तरह अगर हम लालू की पार्टी की बात करें तो 2019 के लोकसभा चुनावों में  उसे मुस्लिमों के 82 फीसदी और यादवों का पचास फीसदी वोट मिला। 

यही वजह है कि इन तीन दलों ने कुल मिलाकर अपने वोट प्रतिशत में इजाफा किया है। नीतीश कुमार की पार्टी की गठन 2000 में हुआ था। तब उसे 6.5 फीसदी वोट मिला था जो 2015 में बढ़कर करीब 17 प्रतिशत हो गया। इसी तरह बीजेपी को 1990 में 11.6  प्रतिशत वोट मिला था जो 2015 में बढ़कर 24.4 फीसदी हो गया। उधर लालू की पार्टी को 1990 में 25.6 प्रतिशत वोट मिला था जो 2015 में घटकर 18 फीसदी रह गया लेकिन जिस दौर से पार्टी गुजरी है और लालू जेल में हैं  उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि अपने कोर वोटर को अपने साथ जोडऩे में पार्टी कामयाब रही है। लेकिन यह बात कांग्रेस के लिए नहीं कही जा सकती। कांग्रेस का वोट प्रतिशत 1990 में करीब 25 प्रतिशत था जो 2015 में घटकर करीब सात फीसदी रह गया। 

इसी तरह पासवान की पार्टी एल.जे.पी. को 2005 में 12 फीसदी वोट मिला था जो 2015 में 5 फीसदी ही रह गया। इससे साफ होता  है कि कुल मिलाकर बिहार में नीतीश और बीजेपी ही अपने-अपने वोट बैंक में विस्तार कर रहे हैं। उनकी सोशल इंजीनियरिंग कामयाब हो रही है। इसका बहुत कुछ श्रेय नीतीश कुमार की छवि और मोदी की छवि को दिया जा सकता है।-विजय विद्रोही 
     

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