न्यायालय और चिकित्सालय जीवन रक्षा के असली केंद्र

Edited By ,Updated: 22 May, 2021 05:53 AM

courts and hospitals are the real centers of lifesaving

न्यायालय और चिकित्सालय जीवन रक्षा के असली केंद्र मुझे हमेशा लगते रहे हैं। मैं विधिवेत्ताओं, न्यायाधीशों और चिकित्सा विशेषज्ञों और चिकित्सकों का सर्वाधिक सम्मान करते हुए उनसे

न्यायालय और चिकित्सालय जीवन रक्षा के असली केंद्र मुझे हमेशा लगते रहे हैं। मैं विधिवेत्ताओं, न्यायाधीशों और चिकित्सा विशेषज्ञों और चिकित्सकों का सर्वाधिक सम्मान करते हुए उनसे संबंध रखने का प्रयास करता हूं। कोरोना के भयावह काल में तो उनकी सलाह, सहायता और सेवा से करोड़ों लोगों की जीवन रक्षा हो रही है। कुछ न्यायाधीशों ने इस संकट काल में सरकारों को न केवल फटकार लगाई बल्कि अपने आदेशों के तत्काल पालन की चेतावनी भी दी। 

इस संवेदनशील मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मु य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री आर.सी. लाहोटी जी सहित प्रमुख विधिवेत्ताओं ने न्यायपालिका की लक्ष्मण रेखा पर गंभीरता से विचार व्यक्त किए हैं। श्री लाहोटी ने पिछले वर्ष भी अपनी बिरादरी के लिए बहुत शानदार ढंग से समझाने का प्रयास किया था। लेकिन अब हमारे विभिन्न क्षेत्रों में पर परा, संस्कृति, लक्ष्मण रेखा का उल्लेख तक दकियानूसी और निरर्थक कहने वाले लोग सक्रिय हो गए हैं। समाज और राष्ट्र तरक्की जो कर रहा है। 

इस संदर्भ में कुछ सवाल उठते हैं। आने वाले दिनों में यदि अदालत यानी जज साहब स्वयं वैक्सीन, दवाई, अस्पताल में रखने की अवधि तय कर दे, किसानों के लिए उनकी फसल के खरीदी और बिक्री के मूल्य तय कर दें, सेना को किस सीमा पर अधिक तैनाती का आदेश देने लगे, किसी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री को सुप्रीम कोर्ट हर सप्ताह अदालत में आकर जवाब देने का निर्णय सुना दे, तब कैसे और कौन उन आदेशों का पालन कर सकेगा? 

न्यायमूर्ति लाहोटी जी ने इसीलिए मूलभूत सिद्धांत की याद दिलाई है कि हमारे लोकतांत्रिक संविधान में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकार और लक्ष्मण रेखा तय हैं। हम यह कैसे भूल सकते हैं कि जज नियुक्त होते हैं, उन्हें जनता चुनकर नहीं भेजती है। अदालतों के पास अपनी जांच एजैंसी नहीं होती है, जिससे जज किसी आरोप या मामले की पुष्टि कर सके। आजादी के वर्षों बाद अस्सी के दशक में सर्वोच्च अदालत ने जनहित याचिकाओं की सुनवाई की व्यवस्था दी। यही नहीं स्वयं न्यायाधीशों को किसी महत्वपूर्ण मामले को स्वयं संज्ञान लेकर कानूनों के आधार पर दिशा-निर्देश का प्रावधान भी रखा गया। 

जनहित याचिका के नाम पर अनावश्यक धंधे और ब्लैकमेल की स्थितियां तक दिखने पर अब अदालतों ने उस पर अधिक सावधानी तथा कड़ाई शुरू की है। फिर भी संविधान में ऐसा कोई संशोधन नहीं हुआ कि संवैधानिक नियमों प्रावधानों के बजाय अदालतें अपने विचार या रास्ते सरकारों अथवा समाज पर थोपने लगे। जज की अपनी शिक्षा दीक्षा पालन-पोषण से निजी धारणाएं हो सकती हैं। लेकिन न्याय के लिए उन्हें केवल संविधान प्रदत्त अधिकारों, नियमों-कानूनों की व्या या कर निर्णय देना चाहिए। 

एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि विधानसभा अथवा संसद अथवा सरकार के किसी निर्णय को सुधारा-संशोधित किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार ऐसे फैसले दिए हैं। लेकिन अदालत के फैसलों को आसानी से कार्यपालिका नहीं बदल सकती है। संविधान निर्माताओं ने लोकतांत्रिक सर्वोच्च संस्थाओं का कार्य विभाजन और संतुलन भी किया है। यदि न्यायाधीश भी सक्रिय अभियानकत्र्ता (एक्टिविस्ट) की तरह मांग और फरमान भी जारी करने लगें, तब सरकार के मंत्री ही नहीं अधिकारी भी अदालती पेशियों के लिए हमेशा उत्तर तैयार करने, सरकारी वकील और बाद में स्वयं उपस्थिति दर्ज कर अदालत में अपना पक्ष रखते रहेंगे। 

फिर गांव, जिले, प्रदेश, देश के लिए कार्यक्रमों-योजनाओं के अमल के लिए कितना समय देंगे और उनकी अपनी प्रशासनिक जि मेदारियों का निर्वहन कैसे करेंगे? आज केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार है और विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग दलों और उनके मु यमंत्रियों की सरकारें हैं। उनके कार्यकाल समाप्ति अथवा बहुमत के आकस्मिक संकट होने पर पांच वर्ष से पहले चुनाव हो सकते हैं। उनकी वैधानिक गलतियों, गड़बडिय़ों, भ्रष्टाचार या सत्ताधारी के किसी अपराध पर अदालती सुनवाई और प्रमाणों के आधार पर अदालतें सजा दे सकती हैं। लेकिन प्रशासनिक आदेश देने से तो अराजकता का खतरा हो जाएगा। 

समुचित आदर के साथ न्यायाधीशों के साथ इन दिनों क्रांतिवीर बने हुए राजनेताओं, अभियानकत्र्ता-एक्टिविस्ट के साथ एक और तथ्य की ओर ध्यान आकॢषत करना चाहता हूं। कृपया पिछले दशकों में हुए उन अदालती निर्णयों का अध्ययन करें, जिनका आज तक व्यावहारिक रूप से क्रियान्वयन नहीं हो सका। कुछ वर्ष पहले मैंने एक प्रमुख पत्रिका में एक विशेषज्ञ से ऐसे कुछ निर्णयों पर विस्तार से लिखवाया था। फिर चाहे वह प्रमुख राजमार्गों पर ढाबों-दुकानों से सड़क से दूरी का फैसला हो या जल अथवा वायु के प्रदूषण को लेकर किए गए हों। हां उन फैसलों से दबाव बनता है, लेकिन लागू तो सरकारें, प्रशासन ही करेगा। 

आदर्श स्थिति तो वह होगी कि जनता को समय पर श्रेष्ठ न्याय देने के लिए कार्यपालिका और न्यायपालिका में तालमेल बेहतर हो ताकि तहसील जिला स्तर से लेकर सर्वोच्च स्तर तक न्यायालय परिसर अधिक साधन स पन्न हों, अदालतों और न्यायाधीशों की संख्या आबादी के अनुपात में पर्याप्त हो, न्यायाधीशों की नियुक्तियों के प्रस्ताव आवश्यक पड़ताल प्रक्रिया की निश्चित समयावधि तय हो। 

पुलिस की तरह वकील अदालत के नाम पर साधारण गरीब अथवा अमीर भी घबराए नहीं और पूर्ण विश्वास रखे। भारत के लोकतंत्र और विधि वेत्ताओं को दुनिया भर में स मान से देखा जाता है। विश्व  में केवल महान भारत में हम अदालतों को न्याय का मंदिर कहते हैं। डॉक्टर और जज साहब को भगवान का रूप तक मानते हैं। इसलिए देवताओं को अपनी सीमाओं और गरिमा की रक्षा करनी होगी। इससे मंदिर का कलश और अधिक चमचमाएगा।-आलोक मेहता

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