शिक्षा के साथ संस्कार भी जरूरी

Edited By Updated: 10 May, 2023 05:38 AM

culture is also necessary along with education

शिक्षा मनुष्य के जीवन का सबसे कीमती तोहफा है, जो व्यक्ति के जीवन की दिशा और दशा दोनों बदल देती है और संस्कार मनुष्य के जीवन का सार हैं।

शिक्षा मनुष्य के जीवन का सबसे कीमती तोहफा है, जो व्यक्ति के जीवन की दिशा और दशा दोनों बदल देती है और संस्कार मनुष्य के जीवन का सार हैं। अच्छे संस्कारों द्वारा ही मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण और विकास होता है और जब मनुष्य में शिक्षा और संस्कार दोनों का विकास होगा, तभी वह परिवार, समाज और देश का विकास कर सकेगा। परन्तु आज के समय में शिक्षा सिर्फ  किताबी ज्ञान तक ही सीमित रह गई है, जबकि शिक्षा का असली उद्देश्य चारित्रिक ज्ञान है, जो आज की इस भागदौड़ वाली जिंदगी में हम भूल चुके हैं।

आज के माता-पिता और शिक्षकों का यह कर्तव्य होना चाहिए कि बच्चों को सदा सच्चाई के मार्ग पर चलना सिखाएं, उन्हें दूसरों की मदद के लिए प्रेरित करें, माता-पिता, शिक्षक और बड़ों का सम्मान करना सिखाएं, ईश्वर पर विश्वास रखना सिखाएं, उन्हें सहनशील, कर्तव्यनिष्ठ बनाएं तथा सभी से प्रेमपूर्वक व्यवहार करना सिखाएं। मनुष्य अपने जीवन में जो डिग्री हासिल करता है वह सिर्फ एक कागज का टुकड़ा मात्र है, जबकि व्यक्ति की असली डिग्री उसके संस्कार हैं, जो उसके व्यवहार में झलकते हैं।

प्राचीन काल से ही भारत में संस्कारों का पाठ पढ़ाया जा रहा है। विद्यार्थी को सबसे पहले मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्य देवो भव एवं अतिथि देवो भव की शिक्षा दी जाती थी, ताकि वह उम्रभर नेकी के रास्ते पर चल कर एक मर्यादित इंसान बने और अपने बड़ों का नाम रोशन करे, लेकिन आज की स्थिति बहुत गंभीर हो चुकी है। आज का विद्यार्थी भौतिकवादी प्रवृत्ति का बन चुका है। वह केवल पढ़ाई इसलिए करता है ताकि आने वाले समय में अपने जीवन में कुछ पैसे कमा सके। संस्कार उसको बाजारी शिक्षा से नहीं, बल्कि संस्कारों की शिक्षा से मिलेंगे और वह शिक्षा उसको अपने घर पर ही मिलेगी।

पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक पुलिस अधिकारी की अपने पुराने स्कूल में शिक्षिका के पैर छूते हुए तस्वीर काफी वायरल हुई थी। स्पष्ट था कि पुलिस अफसर बने छात्र ने अपने गुरु का मान रखा। उसने पढ़ाई के साथ संस्कारों के रास्ते को भी चुना था। प्राचीन समय में बच्चों को गुरु के आश्रम में शिक्षा के लिए भेजा जाता था। उस समय बालक पर पढ़ाई का किसी प्रकार का बोझ न डाल कर संस्कारों की शिक्षा दी जाती थी, क्योंकि मनुष्य के जीवन में संस्कार ही वह संपत्ति है, जो मनुष्य को एक सफल नागरिक बनाती है।

बच्चे को अगर उपहार न दिए जाएं तो वह कुछ समय तक रोएगा लेकिन अगर संस्कार न दिए जाएं तो वह जीवन भर रोएगा। शिक्षा लेना और शिक्षा खरीदना दो अलग-अलग विषय हैं। शिक्षा लेने पर संस्कार मिलते हैं, जबकि शिक्षा खरीदने पर विद्यार्थी सेवा का उपभोक्ता बन जाता है। ठीक उसी प्रकार, जब उपभोक्ता किसी वस्तु को खरीदेगा, तो उसका मोल-भाव करेगा ही। यह भी देखा जाता है कि माता-पिता अपने बच्चे को उसी कोङ्क्षचग सैंटर में दाखिला दिलवाते हैं जिसकी फीस अधिक होती है।

उनके अनुसार विद्या के वही सबसे अच्छे मंदिर हैं। उनको इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनका बच्चा वहां कैसी शिक्षा हासिल कर रहा है। क्या उसको वहां नैतिकता की शिक्षा मिल रही है? जवाब शायद न होगा। जिस विद्या से सिर्फ आजीविका चलाना सिखाया जाए और रट कर अंक लाए जाएं, वहां मानवीय मूल्यों और संस्कारों की शिक्षा का विचार करना दिन में सपने देखने जैसा है।

अभिभावकों को मालूम नहीं है कि कोचिंग सैंटरों से निकला बच्चा मोटी तनख्वाह तो हासिल कर लेगा, लेकिन वह संस्कार कहां से लेगा, जो गुरुकुल में मिलते थे, अपने घर के बड़े-बुजुर्गों से व घर पर आए मेहमानों एवं आस-पड़ोस के लोगों से मिलते थे।आज का विद्यार्थी उच्च शिक्षा हासिल करके अहंकारी बनता जा रहा है, जबकि सच्चाई यह है कि आप कितनी ही उच्च शिक्षा हासिल क्यों न कर लो, जब तक आपके संस्कार उच्च नहीं होंगे, आप जीती हुई बाजी भी हार जाओगे क्योंकि व्यवहार मनुष्य का एक ऐसा गुण है जिससे दुश्मन को भी अपना बनाया जा सकता है और आज के विद्यार्थियों में इसी गुण की कमी सबसे अधिक दिखाई देती है।

आज के विद्यार्थी में वे संस्कार नहीं हैं, जो देश और समाज का कल्याण कर सकें। भ्रष्ट आचरण का कारण भी शायद इसी प्रकार की संस्कारहीन शिक्षा है, जो समाज में व्यक्ति को सिर्फ  धन अर्जन करने के लिए मजबूर करती है। शिक्षा का बाजारीकरण होने से उस पैसे को वापस पाने की चाहत में उसका आचरण भ्रष्ट होता जा रहा है। 

अत: मनुष्य के जीवन में पढ़ाई ही सब कुछ नहीं, संस्कारों का भी महत्वपूर्ण स्थान है और संस्कार कहीं से खरीदे नहीं जाते। संस्कार किसी बड़े शिक्षा केंद्र या बाजार में किसी दुकान पर भी नहीं मिलते, बल्कि अच्छे संस्कार तो बच्चों को परिवार, अच्छे स्कूल व अच्छे वातावरण में रहकर ही मिलते हैं। -प्रि. डा. मोहन लाल शर्मा

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