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दफ्तरों में पालतू जानवर आ सकते हैं तो बच्चे क्यों नहीं

Edited By ,Updated: 04 Dec, 2023 05:49 AM

if pets can come in offices then why not children

बेंगलुरु में अब कम्पनियां ऐसे नियम बना रही हैं, जहां लोग अपने पालतू पशुओं को दफ्तर ला सकेंगे। इन्हें पैट पेरैंट्स यानी कि जानवरों के माता-पिता कहा जा रहा है। कम्पनियों का ध्यान इस तरफ तब गया जब लोगों ने इसकी मांग की। बड़ी संख्या में लोगों ने कहा कि...

बेंगलुरु में अब कम्पनियां ऐसे नियम बना रही हैं, जहां लोग अपने पालतू पशुओं को दफ्तर ला सकेंगे। इन्हें पैट पेरैंट्स यानी कि जानवरों के माता-पिता कहा जा रहा है। कम्पनियों का ध्यान इस तरफ तब गया जब लोगों ने इसकी मांग की। बड़ी संख्या में लोगों ने कहा कि वे अपने पालतू जानवरों को घर में अकेला नहीं छोडऩा चाहते हैं। लेकिन पालतुओं को दफ्तर लाने के लिए कुछ नियम-कायदों को भी मानना पड़ेगा। जैसे कि वे हमेशा बंधे हों। उनका टीकाकरण हो चुका हो और इसका प्रमाणपत्र दफ्तर में जमा करा दिया गया हो। जानवर दूसरों को परेशान न करें। उनके होने से काम और उत्पादन के घंटों पर कोई असर न पड़े। 

भोजनावकाश के दौरान अगर घुमाने ले जाएं तो इस बात का ध्यान रखें कि समय पर लौट आएं। इसके अलावा पालतुओं के छोड़े भोजन को उचित स्थान पर फैंकना होगा। उनकी फैलाई गंदगी को भी साफ करना होगा। अगर वे कोई नुकसान करेंगे तो उसकी भरपाई भी मालिक को करनी होगी। तो क्या जहां लोग काम करेंगे उनके पालतू भी उनके आसपास ही रहेंगे या  उनके रहने की कोई अलग व्यवस्था कम्पनियां करेंगी। लोग पालतुओं को अकेला नहीं छोडऩा चाहते, इसका मतलब है कि घर में उनके अलावा कोई और नहीं है। 

उन्होंने अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए ही किसी को पाला है। पति-पत्नी अगर हैं भी तो दोनों काम करते हैं। इसके अलावा अगर कम्पनियां कह रही हैं कि पालतू हमेशा बंधे हों तो ऐसा लगता है कि उनकी नजरों में पालतू का मतलब सिर्फ कुत्ते हैं। यह भी तो हो सकता है कि किसी ने गाय, बकरी या ऐसा ही कोई जानवर पाला हुआ हो। उन्हें दफ्तर कैसे लाया जाएगा। यही नहीं कई लोग सांप, बिच्छू भी पाल लेते हैं, क्या कंपनियां उन्हें भी लाने देंगी। लेकिन समस्या आए तब हल खोजे जाएं, उससे बेहतर है कि पहले ही उनके समाधान सोच लिए जाएं। लेखिका ने यूरोप में ऐसा बहुत देखा है। लोग अपने पालतू कुत्तों को होटल, रैस्टोरैंट में ले जाते हैं। वे साथ घूमने भी जाते हैं। यहां एक घटना का जिक्र करना मनोरंजक रहेगा। 

एक बार यह लेखिका यूरोप की सबसे ऊंची चोटी युंग फ्रो की तरफ जा रही थी। बर्फ के पहाड़ों को चीरती गाड़ी भागी जा रही थी। सामने की सीट पर एक लड़की बैठी थी। उसके पास एक बड़ा-सा थैला था। थैले का दायां हिस्सा कुछ खुला था। उसमें कुछ हलचल-सी दिखाई देती थी। ध्यान से देखा तो वह कुत्ते की नाक नजर आई। थैले में भी बार-बार वह हिल-डुल रहा था। जाहिर है लड़की उसे अपने साथ घुमाने ले जा रही थी। मगर यहां कुत्तों को बाकायदा प्रशिक्षित किया जाता है कि वे किसी पर भौंकें नहीं। अपने यहां भी ऐसा ही करना होगा।

कायदे से तो पहला कानून यह बनना चाहिए कि लोग अपने बच्चों को दफ्तर साथ ला सकें क्योंकि तमाम शोध यह बताते हैं कि बच्चे अगर माता-पिता की आंखों के सामने होते हैं, तो उनका काम में अधिक मन लगता है। जब कंपनियां कह रही हैं कि लोग अपने पालतुओं को दफ्तर लाएंगे, वे खेलेंगे-कूदेंगे तो लोगों का काम में मन अधिक लगेगा, अगर बच्चे आस-पास होंगे तब भी ऐसा ही होगा। बच्चों के लिए अगर दफ्तरों में अच्छी सुविधाओं वाले डे केयर सैंटर हों तो बहुत से माता-पिताओं की समस्या हल हो सकती है। अर्से से इसकी मांग की जाती रही है लेकिन इस ओर शायद ही कोई ध्यान देता है।-क्षमा शर्मा 
 

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