‘फेक न्यूज’ की समस्या से बचने के लिए इंटरनैट कम्पनियों पर लगाम जरूरी

Edited By Pardeep,Updated: 02 Sep, 2018 03:52 AM

internet companies need to rein in order to avoid the problem of fake news

क्या यह संभव है कि दुनिया की नजर में विश्व का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति भी कभी बेबस और लाचार हो सकता है? क्या हम कभी अपनी कल्पना में भी ऐसा सोच सकते हैं कि एक व्यक्ति, जो विश्व के सबसे शक्तिशाली देश के सर्वोच्च पद पर आसीन है, उसके साथ उस देश का...

क्या यह संभव है कि दुनिया की नजर में विश्व का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति भी कभी बेबस और लाचार हो सकता है? क्या हम कभी अपनी कल्पना में भी ऐसा सोच सकते हैं कि एक व्यक्ति, जो विश्व के सबसे शक्तिशाली देश के सर्वोच्च पद पर आसीन है, उसके साथ उस देश का सम्पूर्ण सरकारी तंत्र है और विश्व की आधुनिकतम तकनीक से लैस फौज है, उस व्यक्ति के खिलाफ भी कभी कुछ गलत प्रचारित किया जा सकता है? शायद नहीं? या फिर शायद हां? 

आज जब अमरीका के राष्ट्रपति गूगल, फेसबुक और ट्विटर पर अपने-अपने प्लेटफॉर्म से जनता के सामने अपने खिलाफ लगातार और बार-बार फेक न्यूज परोसने का इल्जाम लगाते हैं, जब ‘डोनाल्ड ट्रम्प’ जैसी शख्सियत कहती है कि गूगल पर  ‘ट्रम्प न्यूज’ सर्च करने पर उनके खिलाफ सिर्फ बुरी और नकारात्मक खबरें ही पढऩे को मिलती हैं। जब इंटरनैट पर  ‘ईडियट’ सर्च करने पर ट्रम्प, चाय वाला, फेंकू सर्च करने पर नरेन्द्र मोदी और पप्पू सर्च करने पर राहुल गांधी का चेहरा आता है तो क्या कहेंगे आप? 

‘फेक न्यूज’ आज से 2 साल पहले तक शायद ही किसी ने इस शब्द का प्रयोग किया हो लेकिन आज यह सम्पूर्ण विश्व के समक्ष एक चुनौती बनकर खड़ा है। अगर इसकी शुरूआत की बात करें तो इस शब्द का प्रयोग सबसे पहले हिलेरी किं्लटन ने 8 दिसम्बर 2016 को चुनाव के दौरान अपने एक भाषण में किया था जब उन्होंने सोशल मीडिया में दुर्भावनापूर्ण रूप से झूठी खबरों के प्रचार-प्रसार को फेक न्यूज और एक महामारी तक कहा था। 

इसके बाद जनवरी 2017 में ट्रम्प ने सी.एन.एन. की एक पत्रकार को फेक न्यूज कहकर संबोधित किया और उसके बाद से यह शब्द दुनिया भर के नेताओं और पत्रकारों से लेकर आम आदमी तक की जुबान पर ही नहीं आया बल्कि उनकी जिंदगी से भी खेलने लगा। खासतौर पर तब, जब इस देश के 40 बेकसूर लोग मॉब लिंचिंग के शिकार हो जाते हैं। कहना गलत नहीं होगा कि वर्तमान समय में सोशल मीडिया रोटी, कपड़ा और मकान की तरह हमारी जिंदगी का एक अहम हिस्सा बन चुका है। 

फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप जैसे सोशल प्लेटफॉम्र्स के बिना आज शायद जीवन की कल्पना करना भी असंभव है और कम्प्यूटर एवं इंटरनैट के जरिए जिस डिजीटल क्रांति का जन्म हुआ है, उसने राजनीतिक और अर्थव्यवस्था से लेकर हमारे समाज तक को प्रभावित किया है क्योंकि इसका सबसे खतरनाक पहलू यह है कि इन सोशल माध्यमों पर अगर एक बार संदेश प्रसारित हो गया तो उसका नियंत्रण हमारे हाथ में नहीं रह जाता है और इस प्रकार के अनियंत्रण का परिणाम आज विश्व का लगभग हर देश भुगत रहा है। 

यही वजह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने सोशल मीडिया के नियमन के लिए सरकार से कानून बनाने को कहा है। दरअसल निजी टी.वी. चैनलों पर कंटैंट का नियमन ‘कार्यक्रम एवं विज्ञापन संहिता’ करती है जबकि प्रिंट मीडिया नियमन के लिए पी.सी.आई. के अपने नियम हैं लेकिन सोशल मीडिया के नियमन के लिए कोई दिशा-निर्देश नहीं है और सोशल मीडिया पर काम करने वाली कम्पनियां भी यह कहकर बच जाती हैं कि इंटरनैट पर दूसरे लोग क्या पोस्ट करते हैं, इसके लिए वे जिम्मेदार नहीं हैं। आज जब हर प्रकार की सही-गलत जानकारी नैट पर डालने के लिए हर कोई स्वतंत्र है और सबसे बड़ी बात यह है कि अपने द्वारा दी गई गलत जानकारी के लिए माफी भी नहीं मांगी जाती, न जवाबदेही समझी जाती है, तो स्थिति पर नियंत्रण रहेगा भी कैसे? 

कहा जा सकता है कि यह दौर सिटीजन जर्नलिज्म का है, जहां हर व्यक्ति यह मानता है कि उसके पास जो सूचना है, चाहे गलत हो या सही, वह सबसे पहले उनके माध्यम से लोगों तक पहुंचनी चाहिए लेकिन हर बार इसकी वजह ‘सबसे पहले’ वाली सोच ही हो, यह भी आवश्यक नहीं है। कई बार जानबूझकर भी ऐसा किया जाता है। लेकिन अब जब इसके घातक परिणाम देश भुगत रहा है तो आवश्यक हो गया है कि सोशल मीडिया और इंटरनैट को नियंत्रित करने एवं इनका दुरुपयोग रोकने के लिए सरकार कुछ नियम-कानून बनाए। इसके लिए उन देशों से सीखा जा सकता है जो अपने देश में इस समस्या को कानून के दायरे में ले आए हैं। 

फेक न्यूज पर लगाम लगाने के उद्देश्य से हाल ही में मलेशिया में एंटी फेक कानून 2018 लागू किया गया है, जिसमें फेक न्यूज फैलाने का आरोप सिद्ध होने पर दोषी को 6 साल तक के कारावास और अधिकतम 1.30 लाख डॉलर तक के जुर्माने का प्रावधान है। इसके अलावा जर्मनी की संसद ने भी इंटरनैट कम्पनियों को उनके सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अवैध, नस्ली, निंदनीय सामग्री के लिए जिम्मेदार ठहराने वाला कानून पारित किया है। इसके तहत उन्हें एक निश्चित समयावधि में आपत्तिजनक सामग्री को हटाना होगा अन्यथा उन पर 50 मिलियन यूरो तक का जुर्माना लगाया जा सकता है। 

यह लोकतांत्रिक देशों में संभवत: अब तक का सबसे कठोर कानून है। खास बात यह है कि वहां जब इंटरनैट कम्पनियों ने इस कानून को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए खतरा बताया तो जर्मनी के न्याय मंत्री ने यह कहा कि ‘‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वहां समाप्त होती है जहां आपराधिक कानून शुरू होता है।’’ तो हमारे देश की  सरकार भी इन देशों से सीख लेकर इंटरनैट कम्पनियों पर लगाम लगाकर फेक न्यूज जैसी समस्या से जीत सकती है।-डा. नीलम महेन्द्र

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