कश्मीर समस्या शेख अब्दुल्ला के दोगलेपन और उनके ‘गुप्त एजैंडे’ की करुण-कथा

Edited By ,Updated: 21 May, 2017 11:06 PM

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वादी -ए-कश्मीर में कुछ वास्तविकताएं शीशे की तरह साफ हैं। पहले नम्बर पर....

वादी -ए-कश्मीर में कुछ वास्तविकताएं शीशे की तरह साफ हैं। पहले नम्बर पर महबूबा मुफ्ती के अंतर्गत पी.डी.पी.-भाजपा गठबंधन अब तक  गवर्नैंस के मामले में पूरी तरह विफल रहा है और कश्मीर गड़बड़-चौथ की तस्वीर पेश करता है। जोड़-तोड़ करके बनाए हुए इस कमजोर से गठबंधन को जिंदा रखने के मुद्दे को इज्जत का सवाल नहीं बनाया जाना चाहिए। यह गठबंधन बनाना पहले दिन से ही गलती था क्योंकि ये भाजपा के हितों के अति महत्वाकांक्षी प्रहरियों द्वारा किसी भी कीमत पर सत्ता सुख भोगने की प्रबल इच्छा में से ही यह तदर्थ भागीदारी अस्तित्व में आई थी। 

क्या राज्य सरकार को बेहतर कारगुजारी दिखाने के योग्य बनाने के लिए इसके हाथ मजबूत किए जा सकते हैं? या फिर क्या राष्ट्रपति शासन ही बेहतर विकल्प होगा? केन्द्र सरकार को बिल्कुल आवेशरहित होकर इन मुद्दों की पड़ताल करनी होगी और दृढ़ राय कायम करनी होगी। दूसरे नम्बर पर केन्द्रीय एजैंसियों को घाटी में बदल रही जमीनी हकीकतों का नए सिरे से आकलन करने और सैयद अली शाह गिलानी के नेतृत्व वाली हुर्रियत से अलग अलगाववादी नेताओं और शरारती तत्वों के नए वर्ग की शिनाख्त करने की जरूरत है। तीसरे नम्बर पर घाटी में नए-नए  प्रविष्ट हुए पाकिस्तानी एजैंटों की शिनाख्त करना  भी कोई कम महत्वपूर्ण नहीं क्योंकि गत कुछ समय से ये तत्व  घाटी में खुलेआम कोहराम मचा रहे हैं। 

चौथे नम्बर पर घाटी में शरारतें करने वाले विभिन्न वर्गों के वित्तपोषण के नए स्रोतों और तौर-तरीकों की भी स्पष्ट पहचान की जानी चाहिए। ताजा-तरीन गुप्तचर रिपोर्टें यह खुलासा करती हैं कि किस प्रकार हुर्रियत और अन्य संगठनों को महबूब अहमद सागर नामक एक जाने-माने आई.एस.आई. एजैंट के माध्यम से भारत विरोधी गतिविधियों के लिए पैसा मिल रहा है। मुझे नहीं लगता कि प्रधानमंत्री की नोटबंदी ने इस्लामाबाद तथा पश्चिम एशिया स्थित अन्य इस्लामिक  स्रोतों से आ रहे पैसे के प्रवाह को बाधित करने के मामले में कोई अधिक सहायता दी है।

घाटी में भारत विरोधी गतिविधियों के इस वित्तपोषण के मायाजाल को बेपर्दा एवं निष्प्रभावी करने के साथ-साथ नशीले पदार्थों की तस्करी के नए रास्तों की भी शिनाख्त करने की जरूरत है क्योंकि आतंकवाद के वित्तपोषण के लिए अवैध धन जुटाने का यह सबसे सशक्त साधन है। राज्य में नशीले पदार्थों की तस्करी का लम्बा-चौड़ा ताना-बाना काम कर रहा है। इसकी हर हालत में पहचान करके इसे तबाह किए जाने की जरूरत है। मुझे उम्मीद है कि भारतीय गुप्चर एजैंसियां अब तक की अपनी कारगुजारी की तुलना में भविष्य में बढिय़ा नतीजे दिखाएंगी। पांचवें नम्बर पर यह अत्यधिक जरूरी है कि सुरक्षा बल पत्थरबाजी करने वाले सिविलियनों से निपटने के लिए नई रणनीति और दाव पेंच तैयार करें।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसा करने वाले हमारे अपने ही लोग हैं। उनके साथ बहुत सावधानी से पेश आना होगा। आतंक विरोधी कार्रवाई के दौरान दोतरफा गोलीबारी में किसी सिविलियन की मौत हो जाना बहुत ही विस्फोटक मुद्दा बन जाता है। भारतीय सैनिक कमांडरों को सिविलियनों की मौतें टालने के लिए अवश्य ही कोई वैकल्पिक तरीका तलाश करना होगा, स्थिति चाहे कितनी भी भड़काऊ क्यों न हो। मुझे पूरा निश्चय है कि हमारा सैन्य नेतृत्व पत्थरबाजी करने वाले किशोरों से निपटने के लिए ऐसी कार्यशैली तैयार करने की क्षमता रखता है। इस मामले में सोशल मीडिया को भी पाकिस्तानी प्रोपेगंडा और जाली जानकारियों के प्रति विशेष रूप में सतर्क रहना होगा। 

केवल एक ही लक्ष्य रखना होगा कि सिविलियन भीड़ के साथ सीधा टकराव किसी भी कीमत पर नहीं होना चाहिए क्योंकि ऐसे टकराव में होने वाली मृत्यु श्रीनगर और दिल्ली दोनों में ही एक शृंखलाबद्ध प्रक्रिया तथा परेशानी को जन्म देती है। और सबसे अंत में, जिस बात की सबसे तात्कालिक जरूरत है, वह है जनता के व्यथित वर्गों के घावों पर मरहम लगाई जाए। हमें यह संज्ञान लेने की जरूरत है कि सामान्य कश्मीरी सम्मानजनक ढंग से अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए शांति तथा सौहार्दपूर्ण वातावरण चाहता है। 

युवा कश्मीरी रोजगार के मौके चाहता है। वास्तव में प्रचुर मात्रा में रोजगार सृजन ही पैसे के लिए पत्थरबाजी करने और आतंकियों का साथ देने से युवकों को दूर हटाने के मामले में सफलता की कुंजी है। जम्मू-कश्मीर में पुलिस के 5362 पदों के लिए 1.18 लाख युवकों द्वारा आवेदन किया जाना ही इस बात का प्रमाण है कि रोजगार सृजन ही आतंक के विरुद्ध लड़ाई में निर्णायक बदलाव ला सकता है। वैसे कश्मीर के अधिकतर राजनीतिज्ञ गिरगिट की तरह रंग बदलते रहते हैं। अलग अलग मौकों के लिए उनकी भाषा अलग अलग होती है। जब वे सत्ता में होते हैं तो भारत के प्रति वफादारी की कसमें खाते हैं और अपनी दुकानदारी चलाए रखने के लिए केन्द्र सरकार से गफ्फे तलाश करते हैं। लेकिन जब सत्ता से बाहर होते हैं तो भारत विरोधी राग अलापना शुरू कर देते है। 

आज घाटी में सत्ता और आतंकवाद बहुत बड़ा कारोबार बन गए हैं। इस दिशा में सबसे ताजा और उल्लेखनीय उदाहरण किसी अन्य द्वारा नहीं बल्कि पूर्व मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला द्वारा प्रस्तुत किया गया है। कभी वे भी दिन थे जब फारुक अब्दुल्ला भारतीयता में आस्था के प्रतीक थे। वह उन सब बातों की वकालत करते थे जो अंतर्राष्ट्रीय मंचों में भारत द्वारा पेश की जाती थीं। लेकिन आज तो उन्हें देखकर ऐसा लगता है जैसे वह ‘डबल एजैंट’ हों। मुझे यह सोचकर हैरानी होती है कि इनमें से फारुक अब्दुल्ला का कौन-सा रूप असली है। 

अतीत पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारी कश्मीर नीति अनेक छिद्रों से भरी हुई है। यह मुख्य तौर पर लोगों को सम्बोधित होने की बजाय किसी न किसी व्यक्तित्व के गिर्द ही घूमती आई है और इसका नतीजा यह हुआ है कि हम अपनी ही पैदा की हुई प्रेतों की छाया से घिर गए हैं। यह कोई नया घटनाक्रम नहीं है। इसका मूल शेख अब्दुल्ला के दौर में तलाशा जा सकता है। शेख अब्दुल्ला का असली रंग सामने आने में कोई लम्बा समय नहीं लगा था। वास्तव में कश्मीर समस्या शेख अब्दुल्ला के दोगलेपन और उनके गुप्त एजैंडे की करुण-कथा है। इसके बारे में मैंने अपनी पुस्तक ‘‘कश्मीर: ए टेल आफ शेम’’ (कश्मीर: एक शर्मनाक किस्सा) में बहुत विस्तार से किया है। 

जरा शेख द्वारा अपनाई गई नस्लीय नीति का ही उदाहरण लें। इस नीति ने ही घाटी में इस्लामी मूलवाद के प्रफुलित होने के लिए साजगार स्थितियां पैदा करने में सहायता दी थी। इसी नीति का लाभ उठाते हुए जमात-ए-इस्लामी और इसके अनुषांगिक संगठनों द्वारा घाटी में सम्प्रदायकवाद के बीज बोए गए थे। जमात-ए-इस्लामी मजहब को एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में प्रस्तुत करती है। इसमें सैकुलरवाद की भारतीय अवधारणा के लिए कोई स्थान नहीं। 

अरब देशों से आए हुए पैसे ने जमात को बड़ी संख्या में मदरसे स्थापित करने में सहायता दी और इन मदरसों ने अद्र्धशिक्षित तथा साम्प्रदायिक मानसिकता से भरी हुई एक पूरी की पूरी पीढ़ी तैयार कर दी। यही नौजवान हैं जो आतंकवाद की चक्की के लिए गल्ला बन रहे हैं। यही लोग कश्मीर घाटी से पंडितों को भगाने के लिए जिम्मेदार हैं। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने क्या इन पंडितों की दयनीय स्थिति पर कभी मगरमच्छ के आंसू भी बहाए हैं? पंडितों के मामले में कश्मीर का बहुचॢचत मानववाद और उदारवाद कहीं दिखाई क्यों नहीं देता?    

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