गुमशुदा बच्चों का ‘अपराधीकरण’ रोकने की आवश्यकता

Edited By ,Updated: 25 Jan, 2016 01:09 AM

missing children criminalization need to stop

इस सिद्धान्त में कोई संदेह या विवाद नहीं हो सकता कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं। किस बच्चे ने कितनी योग्यता अर्जित करने के बाद किस रूप में देश की सेवा करनी है

(अविनाश राय खन्ना): इस सिद्धान्त में कोई संदेह या विवाद नहीं हो सकता कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं। किस बच्चे ने कितनी योग्यता अर्जित करने के बाद किस रूप में देश की सेवा करनी है यह तो भविष्य ही बताएगा परन्तु आज के बच्चे संस्कारित हों, नैतिक हों तथा शैक्षणिक योग्यता और कला-कौशल में पारंगत हों इसे सुनिश्चित करना परिवार, समाज और सरकार की संयुक्त जिम्मेदारी है। प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चों के गुणों का विकास करने के लिए हर सम्भव प्रयास करते हैं। परन्तु हमें चिन्ता उन बच्चों की भी करनी चाहिए जो बाल्यावस्था में अपने माता-पिता के प्रेम से वंचित होकर गुमशुदा वातावरण में जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य हो जाते हैं। एक तरफ ऐसे बच्चे अपनी पहचान खो देते हैं और दूसरी तरफ उनके अपराधीकरण की सम्भावनाएं भी अधिक होती हैं। 

 
भारत में लापता बच्चों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। लोकसभा तथा राज्यसभा में अनेकों बार इस विषय पर चर्चा भी हो चुकी है कि लापता बच्चों का पता लगाने के लिए सरकारों को कुछ विशेष पुलिस अभियान प्रारम्भ करने चाहिएं। यह समस्या सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष भी कई बार जनहित याचिकाओं के रूप में सामने आई है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी बड़ी गम्भीरता के साथ बच्चों को अगवा किए जाने पर चिन्ता जताते हुए पुलिस को अनेकों बार कड़ी फटकार लगाई है क्योंकि पुलिस बहुतायत मामलों में बच्चों का पता लगाने में नाकाम रहती है। 
 
सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मानवाधिकार आयोग की वर्ष 2005 की रिपोर्ट में लापता बच्चों से संबंधित आंकड़े प्रस्तुत करते हुए यह कहा गया है कि प्रतिवर्ष लगभग 44 हजार बच्चे सारे देश में से लापता होते हैं जबकि लगभग 11 हजार बच्चों का पता ही नहीं चलता। अगस्त, 2014 में लोकसभा में इस विषय पर चर्चा के दौरान कहा गया कि प्रतिवर्ष लगभग 1 लाख बच्चे लापता होते हैं। एक चर्चा में यह भी कहा गया कि खुफिया तंत्रों की सूचनाओं के अनुसार भारत में लगभग 800 अपराधी गुट बच्चों को उठाने और उन्हें तरह-तरह के अपराधी कार्यों में लगाने के लिए कार्यरत हैं। 
 
इन सब आंकड़ों और चर्चाओं से यह स्पष्ट होता है कि हमारे देश में गुमशुदा बच्चों को ढूंढने का तंत्र पूरी तरह से सक्षम नहीं है। जब बच्चों को गली-मोहल्लों या विद्यालयों के आस-पास से उठा लिया जाता है तो उसके बाद ये अपराधी गुट इन मासूम बच्चों को अलग-अलग प्रकार के आपराधिक कार्यों में प्रयोग करना प्रारम्भ कर देते हैं। लड़कियों को वेश्यावृत्ति जैसे धंधों में जबरदस्ती धकेलना, लड़कों को हर प्रकार के अपराध और ङ्क्षहसा के कार्यों में प्रयोग करना, नशाखोरी तथा नशे के व्यापार में इन्हीं बच्चों को सहायक बना लिया जाता है और कुछ गुट तो गरीब बच्चों को भीख मांगने जैसे मार्ग पर धकेल देते हैं। 
 
अक्सर ऐसे आपराधिक मार्गों पर धकेले जाने के कुछ वर्षों बाद ये बच्चे उसी वातावरण को अपना परिवार और अपना जीवन स्वीकार कर लेते हैं और सारी उम्र उस आपराधिक नर्क में बिताने के लिए मजबूर हो जाते हैं। निठारी हत्याकांड जैसी घटनाओं से पर्दा उठने के बाद दर्जनों बच्चों के कंकाल मिलने पर पता लगा कि वे बच्चे आस-पास के क्षेत्रों से लगभग दो वर्ष से लापता थे।
यह सहज कल्पना की जा सकती है कि किसी बच्चे के गुमशुदा हो जाने के बाद उसके माता-पिता के मन पर क्या बीतती है। 
 
लम्बी अवधि बीत जाने के बाद भी उन्हें सदैव आस लगी रहती है कि शायद उनका बच्चा कभी वापस मिल जाए, परन्तु जैसे-जैसे वर्ष बीतते जाते हैं वैसे-वैसे ऐसे बच्चों के माता-पिता को मिलने की सम्भावनाएं भी कम होती जाती हैं। 
 
पुलिस कार्रवाई की सच्चाई यह है कि पुलिस बच्चे के गुमशुदा होने पर केवल सूचना मात्र दर्ज करती है, जबकि पुलिस को विधिवत एफ.आई.आर. दर्ज करके गम्भीर कार्रवाई करनी चाहिए। सारे देश की पुलिस को नियमित रूप से वेश्यालयों, आपराधिक गुटों और भिखारी गुटों पर कड़ी नजर रखनी चाहिए कि जैसे ही इनके पास नए लड़के और लड़कियां शामिल दिखाई दें, उन मामलों को बड़ी गम्भीरता और कड़ाई के साथ लेना चाहिए। हो सकता है कुछ बच्चे सुरक्षा की गारंटी महसूस करके अपनी पुरानी स्मृति से अपने परिवार का पता बता दें या वर्तमान घुटन से मुक्ति की इच्छा व्यक्त करें। इसलिए पुलिस तथा मानवाधिकार संगठनों को नियमित रूप से ऐसे बच्चों के साथ संवाद स्थापित करते रहना चाहिए तथा उनके लिए पुनर्वास की व्यवस्था करनी चाहिए।
 
गत वर्ष लोकसभा में गुमशुदा बच्चों पर ही चल रही एक चर्चा के दौरान एक संसद सदस्य ने यह विचार भी दिया था कि गुमशुदा बच्चों की समस्या से निपटने के लिए कितने सांसद विद्यालयों में मार्शल आर्ट प्रशिक्षण के लिए अपने कोष में से सहयोग देते हैं। कितने सांसद ऐसे हैं जो अपने क्षेत्र के बच्चों को विद्यालयों से घर पहुंचने तक की सुविधा एवं सुरक्षा सुनिश्चित कराने के लिए विद्यालयों को प्रेरित करते हैं। कितने सांसद ऐसे हैं जो गुमशुदा बच्चों के संबंध में उनके मां-बाप की शिकायतों पर कार्रवाई के लिए पुलिस पर दबाव बनाते हैं। यदि भारत का प्रत्येक सांसद और विधायक अपने-अपने क्षेत्र की पुलिस पर इस अपराध के लिए विशेष दबाव बनाए तो संभव है कि पुलिस समय रहते त्वरित कार्रवाई करने के लिए मजबूर हो जाए और इतनी बड़ी संख्या में गुमशुदा बच्चों की समस्या देश के लिए एक विकराल समस्या न बन पाए। 
 
मैंने हाल ही में राज्यसभा में इस विषय पर विस्तृत चर्चा के लिए सरकार को नोटिस दिया तो मेरे प्रश्नों के उत्तर में सरकार ने कई प्रावधानों का संदर्भ प्रस्तुत करते हुए एक आशाजनक योजना लागू करने का आश्वासन दिया है। 
 
यदि कोई व्यक्ति 7 वर्ष से अधिक समय तक लापता रहे तो उसे मृत ही स्वीकार कर लिया जाता है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-108 के अनुसार जो व्यक्ति इस सिद्धांत से इंकार करे उसे सिद्ध करना पड़ेगा कि लापता व्यक्ति जीवित है। आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-357ए के अनुसार प्रत्येक अपराध पीड़ित व्यक्ति को समुचित मुआवजा राज्य सरकार द्वारा दिया जाना चाहिए।
 
 राज्य सरकारों को इस प्रकार के मुआवजों के लिए एक अलग योजना तैयार करने तथा मुआवजे के लिए अलग कोष निर्धारित करने का निर्देश भी इस प्रावधान में दिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बार-बार निर्देश जारी करने के बाद अन्तत: राज्य सरकारों ने अपराध पीड़ित मुआवजा योजनाओं की घोषणा तो कर दी परन्तु इन योजनाओं में भिन्न-भिन्न अपराधों के लिए निर्धारित मुआवजा राशियों में बहुत अंतर है। जैसे अरुणाचल प्रदेश, गोवा, झारखंड, महाराष्ट्र, नागालैंड, राजस्थान, सिक्किम, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल में हत्या के अपराध से पीड़ित परिवार को 2 लाख रुपए के मुआवजे का प्रावधान है। 
 
बिहार, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा में यह राशि 1 लाख रुपया है। गुजरात, उड़ीसा में 1 लाख 50 हजार रुपया है। हरियाणा, कर्नाटक में 3 लाख रुपया है। केरल, चंडीगढ़, दादरा नागर हवेली, दमनदीव, पुड्डुचेरी में 5 लाख रुपया है।
 
सभी अपराधों से भिन्न लापता बच्चों की एक विचित्र समस्या यह है कि जिन बच्चों का पता ही नहीं लगा कि उनका अपहरण कब और किसने किया तो ऐसे अपराधों को लेकर कोई मुकद्दमा भी नहीं चलता। पुलिस की दृष्टि में भी यह केवल सूचना मात्र थी जिस पर अक्सर एफ.आई.आर. भी नहीं लिखी जाती। इसलिए गृह मंत्रालय को समस्त राज्यों के माध्यम से पुलिस व्यवस्था में यह निर्देश जारी करना चाहिए कि ऐसी घटनाओं की तत्काल एफ.आई.आर. लिखी जाए जिससे 7 वर्ष बाद इनके माता-पिता को कम से कम मुआवजे के रूप में सांत्वना तो अवश्य ही दी जा सके। 
 
अपराध पीड़ित परिवारों को मुआवजे की योजना विभिन्न राज्यों द्वारा घोषित तो की जा चुकी है परन्तु वास्तव में मुआवजा देने की प्रक्रिया हमेशा कोष के अभाव में धरी की धरी रह जाती है। गृह मंत्रालय ने मेरे चर्चा नोटिस के उत्तर में मुझे सूचित किया है कि केन्द्र सरकार सभी राज्य सरकारों द्वारा अपराध पीड़ित मुआवजों में अंतर को समाप्त करने का प्रयास करेगी। इसके लिए केन्द्रीय स्तर पर भी एक अपराध पीड़ित मुआवजा योजना तथा कोष का गठन करने पर विचार किया जा रहा है। केन्द्र सरकार प्रारम्भिक रूप से 200 करोड़ रुपए का एक केन्द्रीय कोष भी स्थापित करेगी जिससे राज्य सरकारों को अपराध पीड़ितों में मुआवजा बांटने में सहयोग किया जा सके। 
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