अब ‘राम मंदिर’ पर निर्णय का दारोमदार सुप्रीम कोर्ट पर

Edited By ,Updated: 03 Aug, 2019 03:20 AM

now on the supreme court the decision on ram temple

जैसी कि आशंका थी, वही हुआ। राम मंदिर पर मध्यस्थता का कोई नतीजा नहीं निकला। अब सुप्रीम कोर्ट में 6 अगस्त से नियमित सुनवाई होगी। कुल मिलाकर अब राम मंदिर पर अदालत को ही फैसला लेना होगा। आगे बात करने से पहले एक किस्सा सुनते हैं। एक बार एक बच्चा चॉकलेट...

जैसी कि आशंका थी, वही हुआ। राम मंदिर पर मध्यस्थता का कोई नतीजा नहीं निकला। अब सुप्रीम कोर्ट में 6 अगस्त से नियमित सुनवाई होगी। कुल मिलाकर अब राम मंदिर पर अदालत को ही फैसला लेना होगा। आगे बात करने से पहले एक किस्सा सुनते हैं। एक बार एक बच्चा चॉकलेट खाने की जिद कर रहा था। उसके पिताजी ने साफ  कर दिया कि चॉकलेट उसे नहीं मिलेगी। बच्चा चीखने-चिल्लाने लगा लेकिन उसके पापा फिर भी टस से मस नहीं हुए। बच्चे को लगा कि और जोर से चिल्लाना पड़ेगा तब शायद चॉकलेट मिल सके। डैडी इस रोने-धोने से इतने तंग हुए कि उन्होंने बच्चे को उठाकर अलमारी के ऊपर बिठा दिया। बच्चे ने अब चॉकलेट की जिद छोड़ दी और अलमारी से नीचे उतार देने की गुहार करने लगा। 

कुछ ऐसा ही कुछ महीने पहले सुप्रीम कोर्ट में हुआ था। भाजपा से लेकर संत समाज और संघ यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अदालत से यही प्रार्थना कर रहे थे कि राम मंदिर पर सुनवाई तेजी से हो और फैसला जल्द से जल्द आए लेकिन कोर्ट ने मध्यस्थता के लिए दो महीने दे दिए। कोर्ट ने तीन बड़ी शख्सियतों का पैनल तैयार कर दिया। श्रीराम, शंकर और  मोहम्मद को परमेश्वर पर बीच का रास्ता निकालने की जिम्मेदारी सौंपी गई। श्रीराम पंचु, श्री श्री रविशंकर और जस्टिस मोहम्मद इब्राहीम कलीफुल्ला को एक महीने का समय दिया गया। तब यह सवाल उठाया गया था कि जो विवाद दशकों से चल रहा है उसे क्या कुछ दिनों में सुलझाया जा सकता है,  वह भी तब जब  तीन पक्षकारों में से एक रामलला विराजमान अदालत की इस पहल का विरोध कर रहा है। वह भी तब जब मुस्लिम पक्ष को श्री श्री रविशंकर की निष्पक्षता पर शंका है। 

पहली कोशिश नहीं
इस पर बात करेंगे आगे, पहले आपको बताते चलें कि आपसी सहमति से राम मंदिर का हल निकालने की यह पहली कोशिश नहीं है। 2010 में जब इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने फैसला सुनाया था तो उससे पहले अदालत के बाहर आपसी सहमति की बात की थी लेकिन तब भी सभी पक्षों ने इससे इन्कार कर दिया था। सबसे गंभीर कोशिश चन्द्रशेखर के समय हुई थी जब वह देश के प्रधानमंत्री थे 1990-91 में।

चन्द्रशेखर ने तब के राजस्थान के मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शरद पवार और यू.पी. के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को विवाद सुलझाने की जिम्मेदारी दी थी। तीनों ने हिंदू और मुस्लिम संगठनों से मेल-मुलाकात भी की थी। 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने वाले दिन जयपुर में मेरी मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत से मुलाकात हुई थी तब उन्होंने बताया था कि कैसे उस समय विवाद करीब-करीब सुलझा लिया गया था। शेखावत जी का कहना था कि उस समय अगर अपने लोग ही बातचीत से नहीं मुकरते और बड़ा दिल दिखाते तो बात बन सकती थी। उन्होंने इससे ज्यादा कुछ कहने से इन्कार कर दिया था। 

आगे की बात करें तो 1992 मेें विवादित ढांचा गिरने के बाद उस समय के प्रधानमंत्री नरसिन्हा राव ने 67 एकड़ जमीन अधिगृहीत की। तब भी वहां मंदिर, मस्जिद, लाइब्रेरी, पार्क बनाने की बात हुई थी लेकिन आगे कुछ नहीं हुआ। अटल जी ने भी पी.एम. रहते समय अयोध्या प्रकोष्ठ बनाया लेकिन बात बनी नहीं। दो साल पहले चीफ जस्टिस खेहर सिंह ने ऐसी ही कोशिश की थी। उन्होंने भरी अदालत में कहा था कि वह खुद मध्यस्थ बनने के लिएतैयार थे लेकिन तीनों पक्ष आनाकानी करते रहे। खैर, यह इतिहास है जिसे हम बदल नहीं सकते। हम वर्तमान की बात करते हैं। वैसे देखा जाए तो दुनिया भर में आपसी सहमति से विवाद सुलझाने का सक्सैस रेट 85 फीसदी रहा है। सबसे बड़ा उदाहरण तो भारत और पाकिस्तान के बीच 1960 में हुई सिंधु जल संधि है। भारत से बहने वाली छह नदियों के पानी का बंटवारा हुआ था। विश्व बैंक इसमें मध्यस्थ बना था। इसराईल और मिस्र के बीच भी 1988 में बार्डर से जुड़ा विवाद सुलझाया गया था। अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता वाले एक पैनल ने यह मामला सुलझाया था। 

मालिकाना हक ही तय होना है
तो क्या हम मान कर चलें कि जब भारत-पाक के बीच नदियों के पानी का बंटवारा आपसी सहमति से हो सकता है तो फिर भारत के अंदर ही आस्था और करोड़ों लोगों की भावनाओं से जुड़े मामले में ऐसा क्यों नहीं हो सकता? आस्था और भावनाओं की बात हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि ऐसा सुप्रीमकोर्ट ने कहा है। आपको याद होगा कि जब जस्टिस मिश्रा के समय राम मंदिर मसले पर सुनवाई होनी थी तो कहा गया था कि अदालत यह देखेगी कि उस जमीन पर मालिकाना हक किसका है। तब अदालत ने साफ कर दिया था कि आस्था और भावनाओं के एंगल से इस केस को नहीं देखा जाएगा लेकिन  जब मध्यस्थता की बात आती है तो यही अदालत इसे आस्था और करोड़ों लोगों की भावनाओं से जुड़ा भी बता देती है। हो सकता है कि अदालत ने मध्यस्थता का एक मौका देने के लिए ऐसा कहा हो क्योंकि आखिर में तो मालिकाना हक ही तय होना है। 

हालांकि इस पर बहुत पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि कोई भी अदालत इस मसले पर साफ निर्णय नहीं सुना सकती है और अगर ऐसा हुआ तो भी उस पर अमल कर पाना किसी भी सरकार के लिए मुश्किल होगा। अब आप लोग सोच रहे होंगे कि मध्यस्थता में होता क्या है। कुल मिलाकर जब आपसी सहमति से कोई विवाद सुलझता है तो उसमें बीच का रास्ता ही निकाला जा सकता है। कुछ यह पक्ष झुके, कुछ यह पक्ष झुके और बीच का रास्ता निकल जाए। मध्यस्थता करने वालों के बीच यही मुख्य मुद्दा रहा होगा। 

यहां राम मंदिर पर बीच का रास्ता क्या हो सकता है? एक बात साफ  है कि राम मंदिर का गर्भ गृह तो वहीं बनना है जहां विवादित ढांचा था। अगर इस बात पर सहमति होती है  तो फिर आगे देखना होगा। सवाल उठता है कि क्या मुस्लिम पक्ष इस बात के लिए राजी हो जाएगा और अपना दावा छोड़ देगा? इस पर अगर कुछ सहमति बन गई तो आगे सवाल उठेगा कि मस्जिद कहां बनेगी। एक ही परिसर में अगल-बगल बनेगी, परिसर के बाहर किस जगह बनेगी, सरयू नदी के पार बनेगी या फिर कहीं नहीं बनेगी। मध्यस्थता का नतीजा क्यों नहीं निकला, इस पर दावे से कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन कयास यही लगाए जा सकते हैं कि ऐसा ही कुछ हुआ होगा। 

मध्यस्थता फेल क्यों हुई 
मध्यस्थता इसलिए भी फेल हुई क्योंकि एक, मध्यस्थता उन पक्षों के बीच हो रही थी जो पहले इसका विरोध करते रहे हैं। यहां तक कि अभी भी तीन पक्षों में से दो ही साथ हैं, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ  बोर्ड, रामलला विराजमान इससे दूर ही रहा। दो, एक मध्यस्थ थे श्री श्री रविशंकर, वह पहले ही साफ  कर चुके थे कि मुस्लिमों को अपना दावा छोड़ देना चाहिए और बड़ा दिल दिखाना चाहिए। मीडिया में तो यहां तक आया था कि श्री श्री रविशंकर ने कहा था कि जो पक्ष हारेगा वह इसे मानेगा नहीं और अतिवादी हो जाएगा। तीन, अदालत वैसे ही साफ  कर चुकी थी कि मध्यस्थता से जो हल निकलेगा उसे जरूरी नहीं है कि कानूनी जामा पहनाया ही जाए। सवाल उठता है कि जो बीच का रास्ता निकलेगा अगर उसे रामलला विराजमान मानने से इन्कार कर देगा तो फिर क्या होगा। 

चार, एक महीने का समय सुप्रीम कोर्ट ने दिया जो बहुत कम था। दशकों से चल रहा मामला दिनों में सुलझाया नहीं जा सकता। पांच, कुछ लोग इस सुझाव से सहमत ही नहीं थे। हिंदू महासभा साफ-साफ  इससे इन्कार कर चुकी थी। यहां तक कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यानी संघ भी सुप्रीमकोर्ट से सहमत नहीं था। उसे लगता था कि अदालत प्राथमिकता के आधार पर केस की सुनवाई नहीं कर रही है। संघ का कहना था कि हिन्दुओं को देश में नजरअंदाज किया जा रहा है। हैरानी की बात है कि एक तरफ संघ का कहना है कि उसका अदालत में पूरा विश्वास है तो दूसरी तरफ  उसका कहना है रास्ते के सभी रोड़े हटने चाहिएं और भव्य राम मंदिर का निर्माण उसी जमीन पर शुरू होना चाहिए। अब संघ की बातों का क्या मतलब निकाला जाए, यही कि अदालत ने राम मंदिर के पक्ष में फैसला दिया तो ठीक, नहीं दिया तो उसी जगह राम मंदिर का काम शुरू किया जाए। 

छह,मध्यस्थता से हल निकलना इसलिए भी मुश्किल था क्योंकि मुसलमानों को लगा होगा कि अगर आस्था और भावनाओं के आधार पर ही अदालत से बाहर ऐसे ही फैसले होते रहेंगे तो आगे चल कर हिंदूवादी संगठन मथुरा और काशी का मामला भी उठा सकते हैं। एक सवाल उठता है कि आखिर जब आस्था के आधार पर ही फैसले होने हैं और अदालत के बाहर ही होने हैं तो फिर संविधान की जरूरत क्या है, फिर यह मामला इतने लंबे समय तक क्यों लटकता रहा। खैर, अब सुप्रीम कोर्ट में नियमित सुनवाई होगी यानी हफ्ते में तीन दिन। मंगलवार, बुधवार और गुरुवार। 17 नवम्बर को चीफ  जस्टिस गोगोई को रिटायर होना है। देखना दिलचस्प होगा कि 17 नवम्बर से पहले क्या राम मंदिर पर फैसला आ जाएगा? एक बात साफ है कि फैसला जो भी आएगा, वह देश की राजनीति को बदल देने की क्षमता रखेगा।-विजय विद्रोही
 

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