विपक्ष अब 2019 के चुनाव को भूल जाए

Edited By ,Updated: 11 Mar, 2017 11:41 PM

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उमर अब्दुल्ला का कहना बिल्कुल सही है कि विपक्ष अब 2019 आम चुनाव को.....

उमर अब्दुल्ला का कहना बिल्कुल सही है कि विपक्ष अब 2019 आम चुनाव को भूल जाए। शनिवार को आई ‘मोदी सुनामी’ के बाद अब केन्द्र में भाजपा को दूसरा कार्यकाल मिलने से कोई नहीं रोक सकता। चुनावी नतीजों ने मोदी का करिश्मा फिर से पुख्ता कर दिया है। ज्योतिषियों और चुनावी विशेषज्ञों दोनों को ही धत्ता बताते हुए आम आदमी के साथ मोदी के सूत्र पहले ही की तरह मजबूत बने हुए हैं। 

आनन-फानन में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस में हुए गठबंधन के बावजूद यू.पी. में जिस प्रकार भाजपा ने विरोधियों का सफाया किया है, उससे यही संकेत मिलता है कि लोकसभा चुनाव में इसकी धमाकेदार कारगुजारी मात्र संयोग नहीं था। लोग मोदी पर भरोसा करते हैं। उनका विश्वास है कि मोदी सच्चे मन से उनकी हालत सुधारना चाहते हैं। अब नई ऊर्जा से भरे हुए मोदी विपक्ष द्वारा हर रोज खड़े किए जा रहे अवरोधों को धराशायी करते हुए आगे निकलने की उम्मीद  कर सकते हैं। 

विपक्ष बेशक पूरी तरह हतोत्साहित है और अब इसके पास कुछ समय के लिए ठंडा पड़ जाने और अपने घाव सहलाने का बहुत बढिय़ा बहाना है, फिर भी ऐसी कोई संभावना दिखाई नहीं देती कि जनता द्वारा लगभग सम्पूर्ण रूपेण ठेंगा दिखाए जाने के बावजूद वह कोई सबक सीखेगा। पंजाब में कांग्रेस राहुल के कारण नहीं बल्कि राहुल के बावजूद जीत हासिल कर पाई है। कै. अमरेन्द्र सिंह ने तो पंजाब में खुली छूट न दिए जाने के कारण पार्टी को अलविदा कहने की धमकी दे दी थी। वास्तविक मतदान से बिल्कुल कुछ दिन पूर्व तक कांग्रेस पार्टी के ‘महान खिवैया’ राहुल गांधी तो मुख्यमंत्री पद के पार्टी उम्मीदवार के रूप में अमरेन्द्र सिंह का नाम तक लेने को तैयार नहीं थे। वैसे कुछ भी हो, अकालियों की अलोकप्रियता के चलते कांग्रेस की विजय कोई आश्चर्यजनक नहीं है। 

चुनाव में किसको कितना नुक्सान हुआ, इसकी चर्चा करने से पूर्व ‘आप’ के बारे में चंद शब्द कहना अधिक प्रासंगिक होगा। पंजाब और गोवा के मतदाताओं ने वर्तमान पार्टियों की तुलना में इसके बेहतरीन होने के दावे को रद्द कर दिया है। दिल्ली के करदाताओं की खून-पसीने की कमाई को जिस प्रकार महंगे प्रचार और प्रापेगंडे के लिए बर्बाद किया गया, उसके विपरीत परिणाम ही निकले हैं। 

जनता टकराव और अवरोध की विवेकहीन राजनीति को पसन्द नहीं करती। जमीनी आधार पर कोई ठोस उपलब्धि दिखाए बिना दिल्ली में गत 2 वर्षों से ‘आप’ की सरकार सत्तासीन है। ऐसे में केवल मीडिया में धुआंधार प्रचार के सहारे केजरीवाल पंजाब में जीत कैसे हासिल कर सकते थे? टी.वी. पर इस ‘आम आदमी’ का अत्यंत महंगा अभियान यदि नफरत नहीं तो उपहास तो अवश्य ही पैदा करता है। 

चुनावों ने दूसरी बलि मायावती की ली है। मतपेटियों में हेरा-फेरी की बू सूंघने वाली बसपा सुप्रीमो को  इस बात पर मंथन करना होगा कि जाटव-मुस्लिम के हिचकोले खाते गठबंधन को धन-बल की राजनीति का सहारा देने की भी बहुत क्रूर सीमाएं हैं। दलित और मुस्लिम महिलाएं भी अपने ‘चूल्हे’ में सबसिडी की उसी कुकिंग गैस के सिलैंडर प्रयुक्त करती हैं जो मोदी सरकार ने पूरे प्रदेश उत्तर प्रदेश के एक छोर से दूसरे छोर तक करोड़ों गरीबों को उपलब्ध करवाए हैं। जातिगत पहचान की राजनीति की सीमाएं तब और भी सिकुड़ जाती हैं जब इसकी लक्षित जाति या समुदाय के लोग उन्हीं आधारभूत चीजों और सेवाओं की अभिलाषा करते हैं जो अपेक्षाकृत संभ्रांत वर्गों को उपलब्ध हैं। बेहतरी की अभिलाषा किसी एक जाति या समुदाय तक सीमित नहीं होती। 

सबसे बड़ी बलि तो कांग्रेस को देनी पड़ी है जिसमें नेतृत्व का संकट पैदा हो गया है। वैसे नेहरू-गांधी परिवार के ‘दरबारी राजनीतिज्ञ’ तो यू.पी. और उत्तराखंड में राहुल गांधी की हुई किरकिरी की ओर से आंखें मूंदने का प्रयास करेंगे लेकिन सच्चाई यह है कि नेहरू-गांधी परिवार के इस युवराज में से आधारभूत नेतृत्व कौशल के साथ-साथ व्यक्तिगत करिश्मा भी गायब है। ‘यू.पी. के लड़के’ (यानी अखिलेश और राहुल) रैलियों में काफी भीड़ जुटा लेते थे लेकिन जैसे ही अखिलेश का भाषण समाप्त होता था और राहुल बोलने के लिए उठते, जनता भी पंडाल से बाहर जाना शुरू कर देती थी। जब राहुल को ‘राष्ट्रीय नेता’ के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा था तो सार्वजनिक मंच पर उनके ‘कनिष्ठ भागीदार’ अखिलेश को इतनी अधिक वाहवाही क्यों मिलती थी, कांग्रेस इसका रहस्य नहीं समझ पाई। 

कांग्रेस यदि फिर से सुरजीत होना चाहती है तो यह जरूरी है कि नेहरू-गांधी परिवार इसे अपने शिकंजे में से बाहर निकलने दे। ऐसा किए जाने का एक विशेष कारण यह है कि पार्टी की दूसरी और तीसरी कतार तक में भी कोई ऐसा दमदार नेता नहीं जो इस परिवार के आगे बोलने की हिम्मत रखता हो। लेकिन चापलूसी को ही पुरस्कृत करने वाली इस पार्टी का संगठनात्मक ढांचा चरमरा चुका है और इसका भविष्य अंधकारमय है। यह धीरे-धीरे अटल मृत्यु की ओर बढ़ रही है लेकिन कयामत का यह पल नेहरू-गांधी परिवार के दरबारियों की कल्पना से कहीं जल्दी आ जाएगा। 

फिर भी कांग्रेस का जिंदा रहना हर किसी के हित में है। मोदी के अंतर्गत भाजपा दूर-दूर तक अपना विस्तार कर रही है लेकिन यदि कांग्रेस न रही तो यह खतरा है कि अपनी संकीर्ण दृष्टि और स्थानीय एजैंडे के सहारे क्षेत्रीय पाॢटयां राष्ट्रीय राजनीति को प्रदूषित करने से बाज नहीं आएंगी। उनकी कारगुजारियां देश की प्रगति के पहिए को उलट दिशा में घुमा सकती हैं। लोकतंत्र प्रणाली के सुचारू कामकाज के लिए हमें भारत भर में अस्तित्व रखने वाली कम से कम 2 पार्टियों की जरूरत है जिनके पास अपने-अपने स्पष्ट सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम और दृष्टिकोण हों।     

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