प्रधानमंत्री जी, ये ‘अच्छे दिन’ कैसे हो सकते हैं

Edited By ,Updated: 20 May, 2017 11:29 PM

prime minister how can these good days be

सत्ता के मुंह पर सच बोलने का गुण बहुत कम लोगों में होता ...

सत्ता के मुंह पर सच बोलने का गुण बहुत कम लोगों में होता है। मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रामण्यन में यह खूबी मौजूद है। अपने पूर्ववर्ती की तरह वह भी ‘इक्नॉमिक डिवीजन’ में मौलिक विचार लेकर आए हैं और अपने पूर्ववर्ती की तरह ही उन्हें भी अनेक विषयों पर बोलने की स्वतंत्रता है लेकिन उनके विपरीत अरविन्द से हमेशा सरकार परामर्श नहीं करती, जैसा कि नोटबंदी के दौरान देखा गया था। 

मैं अरविन्द का एक अर्थशास्त्री के रूप में बहुत सम्मान करता हूं। हाल ही में दो अवसरों पर उन्होंने बहुत कड़वी सच्चाई बयान की थी। पहला अवसर तो था प्रख्यात वी.के.आर.वी. राव मैमोरियल लैक्चर पर जब उन्होंने इस तथ्य पर दुख व्यक्त किया कि विशेषज्ञ समय बीतने के बाद सरकारी फैसलों में अजब-गजब खूबियां और गुण ढूंढते हैं।

संकट में विभिन्न क्षेत्र
16 मई, 2017 को उन्होंने अर्थव्यवस्था की स्थिति पर दो महत्वपूर्ण बयान दिए। अन्य बातों के बीच उन्होंने कहा कि ‘‘भारत की बेरोजगार स्थिति वर्तमान में विशेष रूप में कठिनाइयों भरी है। देश की तेज आर्थिक वृद्धि के वर्षों में सूचना टैक्नोलॉजी, कंस्ट्रक्शन एवं कृषि जैसे जो क्षेत्र रोजगार सृजन के मामले में अच्छी भूमिका अदा कर रहे थे, आज स्वयं कठिनाइयों में घिरे हुए हैं।’’ 

उन्होंने इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया कि रोजगार बढ़ाने के लिए बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है और कहा, ‘‘सर्वप्रथम हमें अर्थव्यवस्था में 8 से 10 प्रतिशत तक की वृद्धि दर लाने की जरूरत है क्योंकि हम जानते हैं यदि आप गतिशील होंगे तो रोजगार सृजन के मौके भी पैदा होंगे। रोजगार सृजन बेहद महत्वपूर्ण मुद्दा है लेकिन यदि अर्थव्यवस्था 3-4 प्रतिशत की दर से ही विकास करती है तो रोजगार के मौके पैदा नहीं किए जा सकते।’’ 

2004 से 2009 तक का समय तेज आर्थिक वृद्धि का दौर था जब औसत वृद्धि दर 8.4 प्रतिशत थी। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संकट के बाद भी सरकारी और गैर-सरकारी खर्च में वृद्धि के चलते अर्थव्यवस्था ने बहुत तेज गति से बढऩा जारी रखा। ऐसी स्थिति में रोजगार सृजन स्वाभाविक ही था, बेशक उतने रोजगार पैदा नहीं हुए जितने देश को चाहिए थे। आज यदि रोजगार पैदा नहीं हो रहे तो इसका कारण यह है कि हम उस गति से विकास नहीं कर रहे जिसके हमें सपने दिखाए गए थे।भारत में कृषि क्षेत्र लगभग 6 करोड़ किसान परिवारों और लगभग 2 करोड़ भूमिहीन मजदूर परिवारों के लिए उपजीविका का मुख्य स्रोत है। जबकि कंस्ट्रक्शन उद्योग 3.5 करोड़ लोगों को और आई.टी. क्षेत्र 37 लाख लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाता है तथा शिक्षित एवं उदीयमान मध्य वर्ग के लिए पसंदीदा विकल्प है। यदि ये तीनों क्षेत्र बुरी स्थिति में हैं तो नए रोजगारों का सृजन नहीं होगा। इस बात के पक्के प्रमाण हैं कि केवल आई.टी. क्षेत्र में ही गत कुछ समय दौरान 2 लाख से 6 लाख के बीच रोजगार समाप्त हो गए हैं। 

जनता क्या सोचती है
‘अच्छे दिन’ का अर्थ तो है सुरक्षा- यानी राष्ट्रीय सुरक्षा, आंतरिक सुरक्षा, व्यक्ति की भौतिक सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा, रोजगार सुरक्षा इत्यादि। मैं राष्ट्रीय और आंतरिक सुरक्षा के बारे में लिख चुका हूं और साथ ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता को मिल रही चुनौती के बारे में भी। ये तीनों विषय शायद बहुसंख्य भारतीयों के लिए बहुत दूर की चिंता हैं (जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है) लेकिन खाद्य सुरक्षा व रोजगार सुरक्षा ऐसी चिंताएं हैं जो प्रत्येक परिवार में बहुत गहराई तक महसूस की जाती हैं। 

यदि घर में पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं है तो ‘अच्छे दिन’ कैसे हो सकते हैं। यदि हर वर्ष श्रम बाजार में नव प्रविष्ट होने वाले करोड़ों लोगों के लिए पर्याप्त मात्रा में रोजगार नहीं हैं तो भी ‘अच्छे दिन’ नहीं आ सकते। मोदी सरकार का 3 साल का कार्यकाल पूरा होने पर यह सवाल मुंह बाय खड़ा है। सरकार के घनिष्ठ दोस्त माने जाते एक समाचार पत्र ने कुछ सवाल उठाए हैं जो कि खुद ही सारी कहानी बयान कर देते हैं: 

* क्या आपके शहर में स्वास्थ्य सुविधाओं और सेवाओं में सुधार हुआ है? 58 प्रतिशत ने कहा नहीं।
* क्या आपको लगता है कि महिलाओं और बच्चों के विरुद्ध अपराध कम हुए हैं? 60 प्रतिशत ने कहा नहीं।
* क्या आप महसूस करते हैं कि जरूरी वस्तुओं की कीमतें कम हुई हैं और जीवनयापन की लागत कम हुई है? 66 प्रतिशत ने कहा नहीं।
* क्या आपको लगता है कि बेरोजगारी की दर घटी है? 63 प्रतिशत ने 
कहा नहीं।
* क्या नोटबंदी के फलस्वरूप भ्रष्टाचार में कमी हुई है? 47 प्रतिशत ने कहा नहीं जबकि 37 प्रतिशत ने कहा हां।
उत्तरदाताओं से यह भी पूछा गया था :‘‘आपके विचार में सरकार का सबसे प्रभावी मिशन कौन-सा रहा है?’’ तो वृद्धि/रोजगार संबंधित स्कीमों में से केवल ‘मेक इन इंडिया’ का ही चयन किया गया था और यह चयन भी मात्र 8 प्रतिशत लोगों ने किया था। 

अर्थशास्त्री भी इन्हीं निष्कर्षों पर पहुंचेंगे यदि वे निम्नलिखित आर्थिक सूचकांकों पर दृष्टिपात करेंगे: सकल, अचल पूंजी निर्माण (जी.एफ. सी.एफ.) में कमी आई है; उद्योग को मिलने वाले ऋण की वृद्धि दर नकारात्मक हो गई है, भारी मात्रा में परियोजनाओं पर काम रुका हुआ है तथा कृषि क्षेत्र में बहुत बेचैनी पाई जा रही है (कृषि मजदूरी मात्र 4 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ रही है)। इससे तात्कालिक रूप में रोजगार परिदृश्य बुरी तरह प्रभावित हुआ है। नए रोजगारों का सृजन नहीं हो रहा है और पुराने बहुत से रोजगारों पर भी खतरा मंडरा रहा है। 

बेरोजगारी से निपटें
प्रधानमंत्री को व्यापक समर्थन हासिल है। इसके बावजूद हर महीना गुजरने के बाद रोजगारों के लिए दुहाई और भी ऊंची हो जाती है। लेकिन रोजगार हैं कहां? इसका अभी तक सिवाय 7.5 प्रतिशत की जादुई संख्या की हेकड़ी दिखाने के अलावा कोई अन्य उत्तर नहीं। स्पष्ट है कि मुख्य आर्थिक सलाहकार को इस संख्या पर कोई विश्वास नहीं। यदि यह स्थिति नहीं होती तो क्या वह इस तथ्य की ओर इंगित करते कि रोजगार सृजन नहीं हो रहा है और केवल 3-4 प्रतिशत की वृद्धि दर से नए रोजगारों का सृजन नहीं होगा? क्या वह किसी ऐसे सत्य की ओर इशारा कर रहे हैं जिसके बारे में वह तो जानते हैं लेकिन हमें अभी जानकारी नहीं है? मैं निश्चय से कह सकता हूं कि मुख्य आर्थिक सलाहकार यह जानते हैं कि इन प्रश्नों का उत्तर निम्नलिखित कदम उठाकर ही दिया जा सकता है: 

* निवेश का जी.डी.पी. से अनुपात (जो 2016-17 दौरान 29.22 प्रतिशत रहा है) उसे बढ़ाकर 2007-08 एवं 2011-12 में हासिल किए गए 34-35 प्रतिशत की दर तक उठाना होगा।
* सूक्ष्म, लघु और मझौले रोजगारों की नकारात्मक ऋण वृद्धि दर को उलटा घुमाना होगा।
* रुकी हुई परियोजनाओं (खास तौर पर आधारभूत ढांचे से संबंधित परियोजनाओं) को चालू करना होगा, जिनकी संख्या मार्च 2014 में 766 थी लेकिन मार्च 2016 में बढ़कर 893 हो चुकी है।
* पोंगापंथी मानसिकता को एक तरफ फैंकें और किसानों को राहत प्रदान करें एवं कृषि मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी में बढ़ौतरी की जाए।

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