जनभागीदारी से रुकेगा लोकतांत्रिक कद्रो-कीमतों का पतन

Edited By ,Updated: 20 Jul, 2021 06:08 AM

public participation will stop the fall of democratic prices

भारतीय लोकतंत्र आम जनता को अपनी मर्जी से प्रतिनिधि चुनकर सरकार बनाने का अवसर देता है। यह रियायत स्वतंत्रता संग्राम के दौरान देशभक्तों द्वारा दी गई बेमिसाल कुर्बानियों तथा अनथक कोशिशों के कारण

भारतीय लोकतंत्र आम जनता को अपनी मर्जी से प्रतिनिधि चुनकर सरकार बनाने का अवसर देता है। यह रियायत स्वतंत्रता संग्राम के दौरान देशभक्तों द्वारा दी गई बेमिसाल कुर्बानियों तथा अनथक कोशिशों के कारण संभव हुई है। हालांकि समय के फेर के साथ यह धीरे-धीरे कमजोर होता जा रहा है।

यदि यह प्रणाली सरकारें बनाने के लिए वास्तविक तौर पर लोगों की भागीदारी तथा सरकारों की लोगों के प्रति जवाबदेही यकीनी बनाती तो आजतक देश में ऐसी हुकूमत जरूर कायम हो सकती थी जिसकी नीतियों के कारण अंग्रेजी साम्राज्य द्वारा बर्बाद की गई ‘सोने की चिडिय़ा’ पुन: अपने असली रंग में आ जाती। अफसोस यह कि सत्ता पर विराजमान वर्गों ने ‘लोकराज’ की आंतरिक शक्ति को तबाह करके इसे लोगों से एक बड़े फासले पर ला खड़ा किया है। 

असल में वर्तमान समय में भारतीय लोकतंत्र की पर परा के अन्तर्गत लोकसभा/विधानसभा चुनाव राजनीतिक दलों के नेताओं द्वारा लोगों के साथ झूठे वायदे करके धोखा देने का मौसम है। आमतौर पर यह कार्य एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द केन्द्रित होकर पूरा किया जाता है। 

‘वायदे’ इतने बड़े कि उनके पीछे राजनीतिज्ञ पिछले समय दौरान किए सभी कुकर्मों, गुनाहों, भ्रष्टाचार, ठगियों तथा ज्यादतियों, सभी को ढांपने के सक्षम बन सकते हों। मु त बिजली देने, कर्ज माफ करने, घर-घर नौकरियां बांटने, मकान तथा शौचालय बनाने, विरोधियों के भ्रष्टाचारी कार्यों की जांच करके जेल में डालने, आटा-दाल स्कीमों में कुछ और किलो वजन बढ़ाने का लालच इत्यादि, सत्ता पर विराजमान या इसकी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे राजनीतिज्ञ दुनिया का कोई ऐसा वायदा नहीं, जिसे पूरा करने का झुनझुना दिखाकर वे वोटें बटोरने का जुगाड़ न करते हों। इन वायदों से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि आजादी के 74 सालों के बाद लोगों की रोजी-रोटी, कपड़ा तथा मकान जैसी बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं कर सकीं रंग-बिरंगी सरकारें। 

चुनाव लडऩे के लिए पूंजीपति दलों द्वारा उ मीदवारों की तलाश भी योग्यता, जन-हितैषी सिद्धांत के प्रति प्रतिबद्धता, सार्वजनिक सेवा के किसी छोटे-मोटे रिकार्ड या ईमानदार किरदार को देखकर नहीं की जाती बल्कि इसके विपरीत धनवान (चाहे किसी भी अनैतिक ढंग से बना हो), बाहुबली, किसी भी तरह से वोटें हासिल करने की चालाकी में महारथ तथा ‘सुप्रीमो’ की झोली में डाली जाने वाली ‘खैरात’ की मात्रा जैसे अवगुणों को ‘उम्मीदवारों की योग्यता’ मान लिया गया है। उपरोक्त सभी ‘अवगुणों’ को संबंधित पार्टी की विचारधारा, चुनाव मैनीफैस्टो या सच्चा/झूठा वायदा क्या समझा जाए यह मतदाताओं के मानसिक तथा विचारात्मक स्तर पर निर्भर करता है। अज्ञानता व्यक्ति को भुलक्कड़ तथा कमजोर भी बना देती है। अब तक यही होता रहा है। आजकल ‘दल-बदली’ को ‘कलंक’ या ‘राजनीतिक मौकापरस्ती’ नहीं समझा जाता बल्कि इसे समय अनुसार ‘बदलने’ तथा फायदा उठाने की ‘प्रवीणता’ आंक लिया जाता है। 

चुनाव मैनीफैस्टो जारी करना महज एक कागजी कार्रवाई या खानापूर्ति  बन गया है, जिस पर अमल करना तो दूर बल्कि कागज का वह टुकड़ा कभी दोबारा पढ़ा भी नहीं जाता। शासन करने वाले सभी राजसी पक्षों का यह झूठ का पुलिंदा ‘मैनीफैस्टो’ थोड़े-बहुत अंतर के साथ लगभग एक जैसा ही होता है। 

किसी समय ये राजनीतिक दल वोटों के लिए ग्रामीण तथा शहरी अमीर लोगों, कारखानेदारों, व्यापारियों, ठेकेदारों तथा काला धंधा करने वालों से चंदे के तौर पर धन इकट्ठा करके चुनाव लड़ते थे। अब शासक राजनीतिक दलों का चुनाव लडऩे के लिए ‘वित्तीय स्रोत’ सीधे रूप में कार्पोरेट घराने बन गए हैं जो करोड़ों, अरबों रुपए का चंदा ‘भेंट’ करते हैं। बदले में सत्ता प्राप्ति के बाद इन रकमों को कई गुणा करके ब्याज सहित कार्पोरेट घरानों का ‘कर्ज’ उतारा जाता है। कई कार्पोरेट घराने तो अब खुद ही चुनावों में हिस्सा लेकर सांसद बनना पसंद करते हैं ताकि वे अपने स्वार्थी हितों की पूॢत खुद कर सकें तथा अपने ‘हमदर्दों’ के किरदार को अपनी आंखों से देख सकें। इसलिए चुनाव जीतने हेतु पूंजीपति पाॢटयों के उ मीदवारों के लिए धन खर्च की कानूनी सीमा सिर्फ ‘कागजों’ तक ही सीमित है। जबकि हकीकत में यह रकम इससे कई हजार गुणा अधिक होती है। 

सत्ता पर काबिज पक्ष चुनावों के दौरान सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग ल बे समय से करता आ रहा है मगर मोदी सरकार द्वारा सत्ता स भालने के बाद सी.बी.आई., आई.बी., इंकम टैक्स विभाग जैसी एजैंसियों तथा चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संस्थानों को चुनाव जीतने के लिए एक कारगर हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है।

उपरोक्त स्थितियों में भारतीय लोकतंत्र को वास्तव में ‘लोगों का, लोगों के लिए तथा लोगों द्वारा’ का दर्जा देना खुद के साथ धोखा है। वास्तव में यह ‘धनवानों के लिए, धनवानों का’ लोकतंत्र है जिस पर मजबूर लोगों द्वारा सिर्फ मोहर ही लगाई जाती है। इसलिए हमारे लोकतंत्र की जड़ें अधिक गहरी नहीं बल्कि धन, धर्म, जातपात, अंध राष्ट्रवाद तथा जातिवाद के हवाई झोंकों के सामने लोकतंत्र का यह पौधा तिनके होकर बिखरने लगता है। 

लोकतंत्र का अस्तित्व वर्तमान शासकों के किरदार या इनके ‘राजनीतिक चौखटे’ के रहमो-कर्म पर नहीं छोड़ा जा सकता। इस कार्य की सफलता के लिए सामान्य लोगों का बड़े स्तर पर राजनीतिक तौर पर जागरूक होना तथा इस जागरूकता के आधार पर राजनीतिक क्षेत्र में बेझिझक खुली दखलअंदाजी करना आधारभूत शर्त है। 

पिछले 8 महीनों से जारी देशव्यापी किसान आंदोलन तथा हर राज्य में पीड़ित लोगों द्वारा किए जा रहे सार्वजनिक संघर्षों में जनसाधारण में एक नई राजनीतिक चेतना की रूह फूंकी है, जिसका इस्तेमाल वास्तविक लोकतांत्रिक प्रणाली की मजबूती के लिए किया जाना चाहिए। जनभागीदारी से ही कद्रो-कीमतों में आ रहे पतन को एक सीमा तक रोका जा सकता है। ऐसा न कर सकने की स्थिति में ‘तानाशाही’ का नंगा नाच ही देखने को बचेगा। वर्तमान लोकतांत्रिक प्रणाली की सीमाओं तथा बाध्यताओं के बावजूद इसे एक हद तक लोकहितों की पूर्ति तथा लोकतांत्रिक लहर की मजबूती के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।-मंगत राम पासला
 

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