सम्मानजनक मृत्यु भी उतनी ही महत्वपूर्ण, जितनी सम्मानजनक जिंदगी

Edited By Punjab Kesari,Updated: 21 Jul, 2017 10:37 PM

respectful death is equally important as much as respectable life

किसी को भी यह उम्मीद नहीं थी कि वह जिंदगी में दोबारा प्यानो भी बजा पाएगा....

किसी को भी यह उम्मीद नहीं थी कि वह जिंदगी में दोबारा प्यानो भी बजा पाएगा लेकिन पिछले वर्ष के अंत में जब मुम्बई के मैरीन ड्राइव में रहने वाला यह वृद्ध संगीतकार पंचतत्व में विलीन हुआ तो कुछ समय तक वह संगीत की खोई हुई खुशियों का फिर से आनंद ले सका था। मेरूदंड के कैंसर से पीड़ित इस संगीतकार के घर में से अक्सर संगीत की वेदनापूर्ण स्वर लहरियां गूंजती थीं। 

उसे रात सोते समय काफी तकलीफ होती थीऔर उसे लगने लगा था कि उसकी जीवनलीला अब जल्दी ही समाप्त होने वाली है। लेकिन मुम्बई की मनोवैज्ञानिक देव्यांशी मेहता की बदौलत इस संगीतकार को अपने अंतिम दिनों में अर्थपूर्ण ढंग से जीने का मौका मिला। देव्यांशी मुम्बई में रोमिला पैलीएटिव केयर के साथ मिलकर पाल केयर नामक संस्था का संचालन करती हैं। यह संस्था बीमारी के कारण मृत्यु के कगार पर पहुंचे हुए लोगों का इलाज करती है। मुख्य तौर पर ऐसे लोग कैंसर से पीड़ित होते हैं। इन दोनों ही संस्थाओं की स्थापना के पीछे संचालकों की व्यक्तिगत पीड़ाएं ही मुख्य प्रेरक रही हैं।

फिरोजा बिलीमोरिया के पति जिम्मी की 2013 में फेफड़ों के कैंसर से मृत्यु हो गई थी। वह टाटा ग्रुप की कम्पनी में शीर्ष कार्यकारी अधिकारी थे। फिरोजा को उन दिनों उम्मीद थी कि उनके पति तंदुरुस्त हो जाएंगे क्योंकि उन्हें पैसे की कोई कमी नहीं थी इसलिए वे एक अस्पताल से दूसरे तक भागदौड़ करते रहे। फिर भी अंत में जिम्मी की बहुत दुखदायी मौत हुई। फिरोजा बिलीमोरिया, जो अतीत में प्रकाशन प्रोफैशन में रह चुकी हैं, ने मुम्बई के परेल इलाके में दिसम्बर 2015 में टाटा समूह के न्यासों तथा उद्योगपति आनंद महेन्द्रा के सहयोग से मरणासन्न रोगियों की सेवा-संभाल के लिए ‘पाल केयर’ नामक संस्था शुरू की। 

यह संस्था रोगियों को उनके घर में ही सेवा-सुविधाएं उपलब्ध करवाती है। बिलीमोरिया का कहना है कि लोग अपने घर में परिजनों और स्नेहियों के बीच ही अंतिम सांस लेना चाहते हैं न कि अस्पताल में अनेक तरह के उपकरणों और ट्यूबों के बीच। परन्तु समस्या यह है कि केरल को छोड़कर पूरे देश और मुम्बई शहर में भी मरणासन्न रोगियों की सेवा-संभाल के लिए बहुत ही कम संस्थान उपलब्ध हैं। नैशनल कैंसर इंस्टीच्यूट के अनुसार देश भर में हर साल कैंसर के साढ़े 7 लाख नए रोगियों का खुलासा होता है जिनमें से 70 से 80 प्रतिशत रोगियों की बीमारी जानलेवा होती है लेकिन फिर भी हम मौत के बारे में उतनी ङ्क्षचता नहीं करते जितनी करनी चाहिए। 

सामाजिक उद्यमियों के नैटवर्क ‘अशोक इंडिया’ के अनुसार देश में लगभग 50 लाख लोग ऐसे हैं जिन्हें मृत्यु के कगार पर सेवा-सुविधाओं की जरूरत होती है ताकि वे चैन से अंतिम सांस ले सकें। लेकिन केवल 2 प्रतिशत लोगों को ही ऐसी सुविधा हासिल होतीहै। ‘पैलीएटिव केयर’ दर्द या दर्द की अलामतों का माॢफन इत्यादि जैसे दर्द निवारक टीकों के माध्यम से प्रबंधन करने तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह मरणासन्न व्यक्तियों की आत्माओं को कचोट रही आत्मग्लानि, अपराधबोध, आक्रोश व पश्चाताप जैसी भावनाओं का भी समाधान करती है। देव्यांशी मेहता ने बताया कि कैंसर के कारण अंतिम सांसें गिन रहे लोगों में अपने दुर्भाग्य को लेकर बहुत आक्रोश होताहै और वे सोचते हैं कि ‘‘ऐसा मेरे साथ ही होना था?’’ कई लोग तो यह सोचते हैं कि ऐसा जानलेवा रोगशायद उनसे हुए किसी अपराध या पाप का नतीजा है। 

देव्यांशी ने यह भी बताया कि उनका संगठन मृत रोगियों के परिवारों को मनोवैज्ञानिक सहायता उपलब्ध करवाता है ताकि वे पारिवारिक सदस्य खो जाने की पीड़ा और वेदना को सहन करने की शक्ति हासिल कर सकें। बहुत से रोगियों के परिजनों को पता ही नहीं होता कि जानलेवा स्थिति में पहुंच चुके कैंसर के मरीज के साथ कैसा व्यवहार करना है। उन्होंने बताया कि गरीब लोग उनके पास अधिक आसानी से पहुंच जाते हैं क्योंकि उनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं होता जबकि अमीर लोग उन तक सम्पर्क बनाने से पहले जगह-जगह इलाज करवाने के लिए खाक छानते रहते हैं। 

बिलीमोरिया की टीम में डाक्टरों और नर्सों सहित 15 लोग शामिल हैं और वर्तमान में वे 251 मरीजों को उनके घर पर ही इलाज सुविधाएं उपलब्ध करवा रहे हैं। सम्पूर्ण भारत में इस समय लगभग 269 ‘पैलीएटिव केयर’ सैंटर हैं जिनमें से लगभग 169 तो केवल केरल में ही हैं। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय स्तर पर ‘पैलीएटिव केयर’ कार्यक्रम शुरू होने से 25 वर्ष पूर्व ही डा. एम.आर. राजगोपाल ने केरल के कोझीकोड शहर के सरकारी मैडीकल कालेज के केवल एक कमरे में ‘पेन एंड पैलीएटिव केयर सोसायटी’ की नींव रखी थी। वर्तमान में वह ‘पैलियम इंडिया’ नामक संगठन का नेतृत्व कर रहे हैं जिसका मुख्यालय तिरुवनंतपुरम में है और यह संस्थान केरल के अंदर तथा बाहर 100 से भी अधिक पैलीएटिव केयर केन्द्रों का संचालन करता है। 

खेद और आश्चर्य की बात है कि ‘पैलीएटिव केयर’ का सबसे अधिक विरोध खुद मैडीकल प्रोफैशनलों द्वारा ही किया जाता है और अभी भी हमारे देश मेंयह विषय नहीं पढ़ाया जाता जबकि पश्चिमी देशों में यह मैडीकल पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा बन चुका है। डा. राजगोपाल का कहना है कि केरल में ‘पैलीएटिव केयर’ ने सर्वप्रथम एक सामुदायिक आंदोलन के रूप में जड़ पकड़ी थी और इसका वित्त पोषण आम लोगों से मिलने वाले दान या वालंटियरों द्वारा दी जाने वाली सहायता से होता था लेकिन शीघ्र ही सरकार ने नशीले पदार्थों से संबंधित कानून में कुछ बदलाव करते हुए उन्हें मरणासन्न रोगियों के लिए मार्फिन प्रयुक्त करने की अनुमति दे दी। 

केरल ही देश में ऐसा पहला राज्य था जिसने 2008 में ‘पैलीएटिव केयर पॉलिसी’ का मसौदा तैयार किया था। आज कर्नाटक और महाराष्ट्र में भी ऐसी नीति बन चुकी है लेकिन फिर भी इन दोनों राज्यों में इसका कार्यान्वयन केरल जैसे प्रभावी ढंग से नहीं हो रहा। ‘रोमिला पैलीएटिव केयर’ का संचालन डा. आर्मिदा फर्नांडीज द्वारा किया जाता है जो लोकमान्य तिलक जनरल हास्पिटल एंड मैडीकल कालेज की डीन रह चुकी हैं। उनकी अपनी बेटी की मृत्यु 2013 में कैंसर के कारण ही हुई थी। इसी सदमे ने उन्हें मौत की घडिय़ां गिन रहे अन्य मरीजों के लिए यह केन्द्र शुरू करने की प्रेरणा दी। वर्तमान में यह केन्द्र समाज के विभिन्न वर्गों से संबंधित 40 मरीजों को सेवा सुविधाएं उपलब्ध करवा रहा है। 

लेकिन डा. आर्मिदा खेद से कहती हैं कि पैलीएटिव केयर अभी समाज की वरीयता सूची का हिस्सा नहीं बनी। देव्यांशी मेहता का कहना है कि सम्मानजनक मृत्यु भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी सम्मानजनक जिंदगी। यदि मृत्यु के निश्चित कगार पर पहुंचे मरीजों के लिए हम छोटी-छोटी सुविधाएं और सेवाएं जुटा सकें तो हम उनके अंतिम पलों में बहुत बड़ा बदलाव ला सकते हैं।                              

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