Edited By ,Updated: 13 Dec, 2023 07:05 AM
प्रत्येक प्राणी का जन्म माता-पिता के संयोग से ही होता है। मनुष्य को 9 माह की पालना का अवसर प्रदान करते हुए एक मां कितने कष्ट सहती है, उसका विवरण आज तक कोई भी शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाया। जन्म के बाद भी माता-पिता दोनों मिलकर हर सम्भव प्रयास के...
प्रत्येक प्राणी का जन्म माता-पिता के संयोग से ही होता है। मनुष्य को 9 माह की पालना का अवसर प्रदान करते हुए एक मां कितने कष्ट सहती है, उसका विवरण आज तक कोई भी शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाया। जन्म के बाद भी माता-पिता दोनों मिलकर हर सम्भव प्रयास के द्वारा बच्चे को रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूल-भूत सुविधाओं के साथ-साथ शिक्षा रूपी सर्वोच्च सम्पत्ति भी देने के लिए हर सम्भव प्रयास करते हैं।
इस पृष्ठभूमि में कहा जा सकता है कि अगर ईश्वर की कोई भी कल्याणकारी भूमिका है तो वह केवल माता-पिता के माध्यम से ही प्राप्त होती है। माता-पिता द्वारा जन्म प्राप्त करने को यदि केवल मात्र एक प्राकृतिक और अचेतन घटना भी मान लिया जाए तो भी जन्म के बाद माता-पिता के द्वारा पूरी चेतनापूर्वक बच्चों के लिए जो कृपा और प्रेम बरसता है, उससे तो कोई भी मनुष्य इन्कार नहीं कर सकता। इन सभी कार्यों में अक्सर माता-पिता के साथ-साथ बच्चों की भी चेतना जुड़ जाती है। जिस प्रकार माता-पिता बच्चों से प्रेम करते हैं, उसी प्रकार बच्चे भी माता-पिता से चिपटकर अपने आपको सर्वोच्च सुरक्षा के दायरे में महसूस करते हैं।
समय के साथ माता-पिता की यह चेतना अर्थात बच्चों के प्रति प्रेम और लगाव तो बढ़ता जाता है, परन्तु बच्चों में यह चेतना और प्रेम अक्सर घटता हुआ ही देखा जाता है। इसका मनोवैज्ञानिक कारण भी है। बच्चे विद्यालय, महाविद्यालय में और उसके बाद कार्य स्थलों पर जब नए-नए साथी ढूंढते हैं और जीवन की युवावस्था के बाद जब वे भौतिक सुखों के सम्बन्ध में भी अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं, खुद कमाई करने लगते हैं तो वे स्वयं को स्वतंत्र और स्वयंभू मानने लगते हैं। माता-पिता के सब कष्टों और कृपाओं को भूलकर वे अपना ही एक मनोविज्ञान विकसित कर लेते हैं कि मैं स्वयं पढ़-लिखकर और मेहनत करके कितना योग्य बन चुका हूं। इस प्रकार शुरू होती है एक राजसिक अहंकार की यात्रा, परन्तु यह राजसिकता कभी-कभी तामसिकता में भी बदल जाती है, जब बच्चे माता-पिता के प्रति अपने कत्र्तव्यों को भूलकर उन्हें प्रताडि़त करने का दुस्साहस भी करने में संकोच नहीं करते।
कुछ समय पूर्व दिल्ली के एक ऐसे ही तामसिक पुत्र का किस्सा समाचार पत्रों में देखने को मिला। बेटा पढ़-लिखकर अमरीका में नौकरी करने लगा था, जबकि उसका पालन-पोषण करके शिक्षा देने वाली अकेली मां दिल्ली में रहने को मजबूर थी। एक दिन इस पुत्र ने मां को कहा कि दिल्ली वाला मकान बेचकर आपको मैं अपने साथ अमरीका ही ले चलता हूं। सहज कल्पना की जा सकती है कि मां के मन में कितना प्रेम और आशाएं हिलोरें मार रही होंगी। बेटा दिल्ली आया, कुछ दिन ठहर कर दिल्ली वाला मकान बेचा और मां को लेकर चल दिया दिल्ली एयरपोर्ट की तरफ। एयरपोर्ट पहुंचकर मां को बाहर एक बैंच पर बिठाते हुए कहा कि मैं अन्दर से आपकी टिकट खरीदकर लाता हूं। अब आप समझ सकते हैं कि उसने क्या किया होगा। कई घंटे की प्रतीक्षा के बाद एयरपोर्ट के सुरक्षा कर्मियों से सम्पर्क करने पर मां को बताया गया कि उसका पुत्र स्वयं अमरीका चला गया और मां को पूरी बेशर्मी के साथ बेघर और बेसहारा छोड़ गया और मां पड़ोसियों की मदद लेकर किसी की सेवा करके अपने रहने और जीने का सहारा ढूंढने के लिए मजबूर हो गई।
सामान्यत: देखा जाता है कि माता-पिता का सम्मान तभी तक होता है, जब तक सम्पत्ति उनके नाम चलती रहती है। इसलिए मेरा यह प्रबल विमर्श कानूनी प्रावधानों के साथ-साथ सामाजिक और पारिवारिक सुरक्षा की दृष्टि से भी हर माता-पिता के लिए है कि अपने जीते जी पारिवारिक सम्पत्तियों को बच्चों के नाम कभी न करें। बैंकों में जमा राशियां या गहने इत्यादि भी लाकरों में सुरक्षित रखें। सभी सम्पत्तियों की वसीयत बेशक कर दें, जिससे माता-पिता की मृत्यु के बाद ही यह सम्पत्तियां बच्चों को प्राप्त हों। इससे माता-पिता से कुछ प्राप्त करने का लालच कम से कम बच्चों को सेवा के लिए तो मजबूर करता ही रहेगा।
आजकल के बच्चे धार्मिक स्थलों पर जाकर धार्मिक क्रियाएं पूर्ण करके ईश्वर भक्ति का एहसास तो करवाते हैं, परन्तु वास्तविक ईश्वर भक्ति तो माता-पिता की सेवा के माध्यम से ही प्राप्त होगी क्योंकि जन्म से लेकर पालन-पोषण और शिक्षा की सारी ईश्वरीय कृपाएं उन्हें माता-पिता के माध्यम से ही प्राप्त हुई हैं। सभी स्कूलों, कॉलेजों में भी ऐसे विचार बच्चों को निरन्तर प्रेरणा की तरह दिए जाने चाहिएं, इसका अवश्य ही घर-घर में अच्छा प्रभाव पड़ेगा। इसी प्रकार का कार्यक्रम मैंने बाबा औघढ़ फतेहनाथ गल्र्स कॉलेज दोआबा में प्रारम्भ किया तो परिवारों से प्रतिक्रिया मिली कि पहले हमारे दादा-दादी के साथ अच्छा व्यवहार नहीं होता था, परन्तु इस सैमिनार में भाग लेने वाले बच्चों की प्रेरणा पर माता-पिता ने अपने बुजुर्गों का अच्छा सम्मान करना शुरू कर दिया। कुछ वर्ष पूर्व मैंने पंजाब के कुछ घरों में भी ऐसे ही तामसिक बच्चों की घटनाएं देखीं तो स्वाभाविक रूप से एक सामाजिक प्रेरणात्मक आन्दोलन प्रारम्भ हो गया- ‘सांभ लओ मापे, रब मिल जाऊ आपे।’ अर्थात् यदि हम माता-पिता की देखभाल करें तो भगवान हमें अपने आप ही मिल जाएगा।
मेरा विचार यह है कि यदि यह प्रेरणात्मक उद्घोष हर धार्मिक स्थल के बाहर और समाज में जगह-जगह प्रचलित कर दिया जाए तो अवश्य ही माता-पिता का सम्मान करने की परम्परा को घर-घर में पहुंचाया जा सकेगा। इस अभियान के अन्तर्गत हम आए दिन एक ऐसे परिवार को सम्मानित करते हैं, जहां माता-पिता स्वयं बढ़-चढ़कर अपने बच्चों के द्वारा सुन्दर देखभाल और मान-सम्मान का उल्लेख करते हुए नजर आते हैं। इस प्रकार के एक सम्मान समारोह से समाज के अनेकों युवा बच्चों को अच्छी प्रेरणाएं मिलती हैं। इसलिए पूरे समाज को अब यह विचार अपनी दैनिक संस्कृति की तरह स्वीकार करना चाहिए कि माता-पिता की पूरी देखभाल और उनका सम्मान ही ईश्वर की सबसे बड़ी पूजा है।
कानूनी परामर्श के तौर पर मैं एक बात और पाठकों के लिए कहना चाहता हूं कि आज के युग में सरकारों ने वरिष्ठ नागरिक ट्रिब्यूनल प्रत्येक राज्य में, प्रत्येक जिले में बनाए हैं। इन अदालतों में वरिष्ठ नागरिकों की जो समस्याएं अपने बच्चों के कारण उत्पन्न होती हैं, उनका समुचित समाधान किया जाता है। यदि किसी माता-पिता का मकान बच्चे अपने नाम पर करवा लेते हैं और उसके बाद उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते तो ऐसी परिस्थिति में उस मकान का परिवर्तन रद्द भी किया जा सकता है, ताकि वह मकान या सम्पत्ति पुन: माता-पिता के नाम आ सके और अदालत बच्चों को माता-पिता के लिए प्रतिमाह भरण-पोषण राशि देने के लिए आदेश कर सकती है।-अविनाश राय खन्ना