पाक चुनाव की दस्तक : ‘गधी फिर बरगद के नीचे ही आनी है’

Edited By Punjab Kesari,Updated: 26 Jun, 2018 04:22 AM

the knockout of pak elections gadhi will come only under the banyan

इस्लामी जम्हूरिया पाकिस्तान में हर पांचवें साल बाद कुछ सादे और भोले-भाले लोगों को उम्मीद की एक किरण नजर आती है लेकिन बदकिस्मती से यह किरण हकीकत में अपने साथ रोशनी कम और अंधेरा ज्यादा लाती है। इन दिनों में भी इस किरण के इंतजार का कुछ इस तरह का ही...

इस्लामी जम्हूरिया पाकिस्तान में हर पांचवें साल बाद कुछ सादे और भोले-भाले लोगों को उम्मीद की एक किरण नजर आती है लेकिन बदकिस्मती से यह किरण हकीकत में अपने साथ रोशनी कम और अंधेरा ज्यादा लाती है। इन दिनों में भी इस किरण के इंतजार का कुछ इस तरह का ही मौसम है। 

इस किरण की वजह कभी तो इलैक्शन होते हैं जिसमें नए और पुराने लीडर न जाने कैसे-कैसे सब्जबाग दिखाकर पाकिस्तान में तबदीली लाने के वायदे करते हैं। कभी कोई नया फौजी हाकिम तख्त पर बैठ कर कहता है, ‘‘इस मुल्क को सियासतदानों ने तबाह करके रख दिया है और इसका वजूद खतरे में पड़ चुका है। हम इसको बचाने के लिए आए हैं और हम ये-ये करेंगे।’’ अपने दावे की सच्चाई का सबूत देने के लिए ये फौजी हाकिम फौरी कुछ ऐसे लोक लुभावन कदम उठाते हैं जिनसे कुछ देर के लिए उनकी वाहवाह हो जाती है। फिर आहिस्ता-आहिस्ता गधी बरगद के नीचे आ जाती है। कुछ भी नहीं बदलता। 

पाकिस्तान के वजूद में आने से लेकर आज तक कुछ खानदान ही सत्ता की हर कुर्सी पर बैठे होते हैं। हर नई हुकूमत में भी यही मौजूद होते हैं जिसकी वजह से यह हुकूमती पार्टी तख्त नशीन होकर जो करतूत करती है उससे हर तरफ हाहाकार मच जाती है और कुछ ही दिनों में इस्लामी जम्हूरिया पाकिस्तान में पिछली से अगली कई गुना आगे बढ़ जाती है। रिश्वतखोरी, ला कानूनी, मजहबी फसाद, गुंडागर्दी और लूटमार और भी बढ़ जाती है। इस नई हुकूमत में पुरानी हुकूमत से आए कुछ नए दौलतबाज पैसे बनाने में लग जाते हैं। 

कोई भी ईमानदार और प्रतिष्ठित व्यक्ति जब इस भ्रष्टाचार की बात करता है तो उस पर इल्जाम लग जाता है कि वह समाज विरोधी है, गद्दार है, किसी दूसरे मुल्क का एजैंट है। अब बात यहां तक पहुंच चुकी है कि पाकिस्तान में अगर किसी इंसान में रत्ती भर भी ईमानदारी है तो वह इस बदनिजामी और लूटमार से इंकार नहीं कर सकता। हर लीडर जब इलैक्शन जीत कर इस मुल्क में अपेक्षाकृत तबदीली लाने की बात करता है तो उसकी बात को कोई भी सच तस्लीम नहीं करता। मैं कई बार सोचता हूं कि मुमकिन है यह लीडर वाकई सच कह रहा हो और इस मुल्क की भलाई व तरक्की के लिए कुछ करना भी चाहता हो लेकिन इसके किए वायदे सच साबित क्यों नहीं होते? 

इसकी बड़ी वजह यह है कि अगर यह लीडर चाहे भी तो फिर भी यह तरक्की और लोगों की भलाई के काम नहीं कर सकता क्योंकि यह लीडर इस मुल्क में लागू बदनिजामी के सामने बेबस होता है क्योंकि अमली तौर पर इस मुल्क के निजाम की बागडोर इस लीडर के हाथ में नहीं होती बल्कि इस लीडर की बागडोर इस मुल्क की बदनिजामी के हाथ में होती है। इस बदनिजामी के सामने यह बेबसी सिर्फ सदर या वजीर एवं संकल्प तक ही सीमित नहीं बल्कि उसका सामना हर ईमानदार, प्रतिष्ठित और सच्चे कौम परस्त जनरल, जज, पार्लियामैंटेरियन और अफसर को करना पड़ता है। कुछ देर इस बदनिजामी के साथ जोर-आजमाइश करने के बाद ये सारे के सारे उसके सामने हथियार डाल कर उसका हिस्सा बन जाते हैं। 

इस ड्रामे की असल वजह क्या है? इसकी एक वजह तो अन्तर्राष्ट्रीय है। आज लगभग सारी सरमायदार दुनिया लालच और खुदगर्जी के सैलाब में बहती जा रही है लेकिन तीसरी दुनिया में क्रप्शन और धोखा एक छूत की महामारी की तरह फैल कर हर अदारे और हर व्यक्ति को अपनी लपेट में ले चुके हैं। इसकी दूसरी खास वजह का ताल्लुक खास तौर से पाकिस्तान के साथ है। अगस्त 1947 में जब कायदे आजम ने पाकिस्तान के बतौर एक आजाद मुल्क वजूद में आने का ऐलान किया, उस वक्त तक यह मुल्क अमली तौर पर उपनिवेश ही था। 

तमाम अदारे और ओहदे वही थे जो हिन्दुस्तान में बतौर एक उपनिवेश के थे, और तो और कायदे आजम जिस कुर्सी पर आकर बैठे वह भी किसी आजाद मुल्क के सदर या वजीर-ए-आजम की कुर्सी नहीं थी बल्कि गवर्नर जनरल की कुर्सी थी और कायदे आजम ने बर्तानिया के ताज के साथ वफादारी का वही हलफ उठाया जो बर्तानिया का तैनात किया गवर्नर जनरल उठाता था, जो इस कुर्सी पर बैठ कर एक आजाद मुल्क नहीं चलाता था बल्कि एक कालोनी चलाता था। इसको चलाने के लिए उसके हाथ में जो तंत्र था वह एक आजाद रियासत को चलाने के लिए नहीं था बल्कि एक कालोनी को चलाने के लिए था। कायदे आजम की जिंदगी में ही लियाकत अली खान वजीर-ए-आजम बन गया। 

वजारतों की कुर्सी पर जागीरदार आकर बैठ गए। हिंदू, सिखों की छोड़ी नौकरियों की खाली जगह भरने के लिए दिल्ली और यू.पी. के उर्दू बोलते मुहाजिर आ गए। ये वे अफसर और मुलाजिम थे जिनको अंग्रेजों ने अपने साम्राज्यवादी स्वार्थों की रखवाली के लिए प्रशिक्षण दिया था और उन्होंने पाकिस्तान में आकर यही निजाम चलाया। मुहाजिरों की आमद के साथ पुनर्वास का महकमा खुल गया जिसे महकमा कम और कारोबार कहना ज्यादा मुनासिब है। इस महकमे का असल मकसद तो था कि हिंदुस्तान में सब कुछ छोड़छाड़ कर आए मुहाजिरों को पाकिस्तान में कोई विकल्प उपलब्ध कराया जाए, लेकिन विकल्प की सुविधा बहुत बड़ा कारोबार बन गई। हिंदू-सिखों की छोड़ी जायदादों की अलाटमैंट बिकने लग पड़ीं। पैसे दो और जो मर्जी अलाट करवा लो। 

क्रप्शन की जो महामारी 1947 में पुनर्वास महकमे से शुरू हुई, धीरे-धीरे फैलती हर महकमे पर हावी होकर उसका लाजिमी हिस्सा बन गई। यह पटवारीयत इस मुल्क का निजाम बन गई और इसने सारी अर्थव्यवस्था को अपनी चपेट में ले लिया। अब पाकिस्तान मुकम्मल तौर पर इसके कब्जे में है। पाकिस्तान में कई हुकूमतें आईं लेकिन इस निजाम को हरा न सके बल्कि इससे हार कर उसके अधीन हो गए। जब सत्ता से रुखसत हुए तो पीछे क्रप्शन या पटवारीयत के निजाम को और भी मजबूत करके छोड़ गए। कोई भी हुकूमत बदले गधी ने घूम-फिर कर तो बरगद के नीचे ही आना है।-सय्यद आसिफ शाहकार

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