लॉकडाऊन खोलें तो ‘संक्रमण’, न खोलें तो आर्थिक ‘संकट’

Edited By ,Updated: 11 Apr, 2020 03:03 AM

transition  if you open the lockdown if not open the economic  crisis

एक तरफ प्रधानमंत्री ने इस संकट में लम्बी लड़ाई के लिए देशवासियों को तैयार रहने को कहा और दूसरी ओर उत्पादन व उसके निर्यात के जरिए इस संकट को सुअवसर में तबदील करने की बात कही। उनकी बात में दम है परंतु यही सरकार भ्रमद्वंद्व में भी है। शुक्रवार देश के...

एक तरफ प्रधानमंत्री ने इस संकट में लम्बी लड़ाई के लिए देशवासियों को तैयार रहने को कहा और दूसरी ओर उत्पादन व उसके निर्यात के जरिए इस संकट को सुअवसर में तबदील करने की बात कही। उनकी बात में दम है परंतु यही सरकार भ्रमद्वंद्व में भी है। शुक्रवार देश के लिए सबसे भयानक दिन रहा क्योंकि कोरोना से मरने वालों की संख्या ही नहीं बल्कि नए रोगियों की संख्या में भी 24 घंटों में रिकॉर्ड इजाफा हुआ। लिहाजा लॉकडाऊन खोलने की संभावना शून्य है। 

हां, आज सरकार के सामने प्रश्न यह है कि वह 21 दिनों के बाद लॉकडाऊन कितना बढ़ाए और फिर कब खोले, कैसे खोले और कितना खोले, यानी यह एक ऐसे शेर की सवारी है जिसकी पीठ पर अचानक पीछे से आकर बैठ तो गए पर डर यह है कि उतरने पर असली खतरा सामने आएगा। अगर खोले तो क्या वह मकसद संकट में नहीं आ जाएगा जिसके लिए 139 करोड़ लोगों को घरों की चारदीवारी में कैद होना पड़ा और अगर न खोले तो क्या देश की जो तमाम आर्थिक-सामाजिक गतिविधियां लगभग ठहर सी गई हैं वे भारत को एक बड़े आर्थिक संकट में नहीं झोंक देंगी। 

केन्द्र और राज्य की सरकारों में इस मुद्दे पर अलग-अलग राय स्वाभाविक है क्योंकि जो दूरदृष्टि केन्द्र की हो सकती है वह राज्यों की नहीं, लेकिन राज्य की सरकारें ही कोरोना के दंश से जूझ रही हैं लिहाजा उनकी चिंता भी गलत नहीं कही जा सकती। 

रबी की फसल खेत में तैयार खड़ी है और अगर अगले 15 दिन में फसल न काटी गई तो वह सूख कर खेत में गिर जाएगी यानी बर्बाद हो जाएगी। फिर किसान के पास इतनी ताकत नहीं है कि वह उसे बाजारों/स्टोरों में रख सके क्योंकि उसे जीवन की अन्य गतिविधियों और कर्ज चुकता करने के लिए भी पैसे की जरूरत है। लिहाजा या तो मंडियां खोलनी पड़ेंगी या सरकारी गोदामों को दिन-रात खरीद के लिए तैयार करना पड़ेगा। इन दोनों में खतरा फिर वही है कि लोग नजदीक आएंगे जो संक्रामक कोरोना को खुली दावत होगी। ध्यान रहे कि सबसे कमजोर तबका है किसानों का जिनमें वे मजदूर भी हैं जो खेती का काम खत्म होने पर बाहर शहरों में कमाने निकल जाते हैं और जो आज क्वारंटाइन में सरकारी भोजन पर वक्त काट रहे हैं। रबी उत्पाद को खरीदने व तत्काल पेमैंट की मुकम्मल व्यवस्था करनी होगी और वह भी यह सुनिश्चित करते हुए कि कम से कम मानव संचरण हो। क्या राज्य सरकारों का भ्रष्ट और निष्क्रिय अमला यह करने में सक्षम होगा? 

निम्न वर्ग को फ्री अनाज के जरिए लॉकडाऊन की पीड़ा घटाएं  
सरकार के पास सरप्लस अनाज 77.6 मिलियन टन है जोकि जरूरत से 3 गुना ज्यादा है और नई आवक को रखने की जगह सरकार के पास नहीं है। अभी कुछ माह पहले ही विदेश मंत्रालय से खाद्य मंत्रालय ने प्रार्थना की थी कि ऐसे गरीब देश तलाशें जिन्हें मुफ्त अनाज दिया जा सके। दरअसल अगर यह अनाज कुछ महीने और गोदामों में रुक जाता तो इसके रखाव की कीमत अनाज की कीमत से ज्यादा हो जाती। वैसे भी ताजा इकोनोमिक सर्वे के सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जो गेहूं किसानों से सरकार ने 1700-1800 रुपए में खरीदा उस पर रख-रखाव और भंडारण का खर्च लगभग उतना ही हो गया है, यानी अब अगर यह अनाज गोदामों में रुका तो ‘नौ की लकड़ी, नब्बे खर्च’ हो जाएगा। लिहाजा सरकार को आसन्न भुखमरी से कमजोर तबके को बचाने के लिए समूचा अनाज राज्य की सरकारों को मुफ्त बांटने के लिए तत्काल देना होगा। इसका लाभ यह होगा कि सरकार में नैतिक ताकत होगी कि वह देश हित में लॉकडाऊन को और बढ़ा सके। 

गुजरात कोरोना के मामलों में 11वें स्थान पर है लेकिन औद्योगिक उत्पादन में पहले स्थान पर। ठीक उसके उलट दिल्ली जो कोरोना मामलों में तीसरे स्थान पर है औद्योगिक उत्पादन में 20वें स्थान पर है। तेलंगाना और केरल कोरोना संख्या में चौथे और 5वें स्थान पर लेकिन औद्योगिक उत्पादन में क्रमश: 13वें और 15वें स्थान पर हैं। यहां तक कि महाराष्ट्र जो सबसे ज्यादा इस बीमारी के मामले झेल रहा है और उत्पादन में दूसरे स्थान पर है वहां के औद्योगिक जिलों-रायगढ़ व औरंगाबाद में कोरोना का संकट काफी कम है। लिहाजा सरकार एक सम्यक और दूरदर्शी दृष्टि रखते हुए सभी सोशल डिस्टैंसिंग के नियम लागू करते हुए इन क्षेत्रों में उत्पादन शुरू करवा सकती है और जरूरत हो तो निर्यात से इन 21 दिनों की आर्थिक क्षति को भी पूरा करने की नीति बना सकती है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री की चेतावनी कि ‘हमारे पास लॉकडाऊन के अलावा कोई अन्य हथियार कोरोना से लडऩे का नहीं है लिहाजा यह जारी रखा जाए’ राज्य सरकारों की सीमित सोच प्रतिङ्क्षबबित करती है। वे यह नहीं समझ रहे हैं कि कोरोना से ही नहीं तो लोग आर्थिक विपन्नता में भूख से भी मर सकते हैं।-एन.के. सिंह
 

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