‘सैकुलर भारत’ में हिंसा से तय होती ‘अपराध की गंभीरता’

Edited By ,Updated: 07 Jul, 2022 04:25 AM

violence in  secular india  determines  serity of crime

अमरावती में उमेश और उदयपुर में कन्हैया लाल का ‘सिर तन से जुदा किसने किया? यदि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणियों की मानें, तो 28 जून को उदयपुर में दर्जी कन्हैया लाल ..

अमरावती में उमेश और उदयपुर में कन्हैया लाल का ‘सिर तन से जुदा किसने किया? यदि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणियों की मानें, तो 28 जून को उदयपुर में दर्जी कन्हैया लाल की नृशंस हत्या के लिए भाजपा से निलंबित नूपुर शर्मा अकेले जिम्मेदार हैं, जिन्होंने 26 मई को टी.वी. चर्चा के दौरान उकसाने पर इस्लामी मान्यताओं पर असहज और कटु टिप्पणी कर दी थी। कन्हैया से पहले 21 जून को दवा-विक्रेता उमेश कोल्हे की भी जेहादियों ने गला रेतकर हत्या कर दी थी। प्रश्न है कि क्या नूपुर शर्मा ने कन्हैया लाल व उमेश को मारा? 

सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश द्वारा की गई टिप्पणी के गंभीर अर्थ होते हैं। आश्चर्य है कि जब नूपुर ने अपने विरुद्ध देश में दर्ज कई प्राथमिकियों को एकबद्ध और दिल्ली हस्तांतरित कराने हेतु शीर्ष अदालत में याचिका दाखिल की, तो उसे न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला की खंडपीठ ने मात्र एक-दो पंक्तियों में लिखित रूप से रद्द करते हुए जो ‘मौखिक अवलोकन’किया, उसने 3 मुद्दों पर अपनी राय प्रकट कर दी। 

पहला, नूपुर ‘ईशनिंदा’और कन्हैया लाल की हत्या के लिए ‘दोषी’ हैं। दूसरा, नूपुर को जिस प्रकार जान से मारने की धमकी मिल रही है, जोकि कोई जुमला या कोरी चेतावनी नहीं है, उस पर खंडपीठ ने न केवल नितांत चुप्पी साधे रखी, अपितु उसके लिए भी नूपुर को जिम्मेदार ठहरा दिया। तीसरा, नूपुर का समर्थन किए जाने पर उमेश, कन्हैया का सिर तन से जुदा कर दिया गया है। 

यदि नूपुर के पक्ष में अपनी बात रखने वाले लोगों को इस तरह मारा जा रहा है, तो नूपुर के प्राण पर कितना बड़ा संकट है, इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं। बकौल जांच एजैंसियां, कन्हैया लाल की हत्या का निर्देश जेहादियों को पाकिस्तान से मिला था। नूपुर पर खतरा इसलिए भी अमार्जनीय है, क्योंकि कमलेश तिवारी को वर्ष 2015 में पैगंबर साहब पर ओछी टिप्पणी करने और वर्ष 2016 में 10 माह जेल में बंद रहने के बाद 2019 में मौत के घाट उतार दिया गया था। 

शीर्ष अदालत की खंडपीठ का मानना था कि नूपुर के वक्तव्य ने देश में आग लगा दी, इसलिए उसने नूपुर को राष्ट्र से माफी मांगने की ‘मौखिक सजा’ सुना दी। क्या वाकई नूपुर का बयान ‘ईशनिंदा’ है? मामला न्यायालय में कई प्राथमिकियों को एकबद्ध करने का था, तो अदालत इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंची। ऐसे कई मामले समक्ष आ चुके हैं, जिसमें समान आरोपों पर एक से अधिक प्राथमिकियां दर्ज हुईं और अदालत द्वारा या तो शेष प्राथमिकियों को निरस्त या फिर उन्हें नत्थी कर दिया गया। नूपुर पर अदालती टिप्पणी के खिलाफ 15 सेवानिवृत्त न्यायमूर्तियों, 77 पूर्व नौकरशाहों और 25 पूर्व सैन्य अधिकारियों ने खुला पत्र लिखा है। 

लगभग डेढ़ दशक पहले दिवंगत चित्रकार एम.एफ. हुसैन के खिलाफ भारत-माता और हिंदू देवियों की अश्लील तस्वीर बनाने को लेकर आपराधिक मामला दर्ज करने के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई हुई थी। तब सितंबर 2008 को तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालाकृष्ण ने यह कहकर अर्जी को निरस्त कर दिया था कि ‘ऐसे कई चित्र मूर्तियां मंदिरों में भी हैं।’ 

इसी प्रकार वर्ष 2014 में जब आमिर खान अभिनीत फिल्म ‘पी.के.’पर हिंदू आस्था का उपहास करने और नग्नता फैलाने के कारण प्रतिबंध लगाने की याचिका दाखिल हुई, तब तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आर.एम. लोढा की खंडपीठ ने यह कहकर उसे निरस्त कर दिया, ‘यदि आपको यह पसंद नहीं है, तो फिल्म न देखें। इस पृष्ठभूमि में क्या यह सत्य नहीं कि नूपुर ने जो टिप्पणी की है, उसकी बानगी अक्सर इस्लामी विद्वानों की तकरीरों में मिलती है और उसका उल्लेख भी इस्लामी वांग्मय है। 

नूपुर की विवादित टिप्पणी का देश-विदेश में तीखा विरोध हुआ। हिंसक प्रदर्शन करते हुए मुसलमानों की हिंसक भीड़ ने देश के विभिन्न क्षेत्रों में जमकर आगजनी और पत्थरबाजी करते हुए न केवल ‘गुस्ताख-ए-रसूल’की एक ही सजा ‘सिर तन से जुदा’ नारा लगाया, अपितु उसे उदयपुर और अमरावती में यथार्थ में भी परिवर्तित किया। इन उग्र-हिंसक प्रदर्शनों को वाम-उदारवादियों का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन प्राप्त था। 

यदि नूपुर ‘मुस्लिम भावना को ठेस पहुंचाने’की ‘अपराधी’हैं, तो उसी आधार पर हिंदू आस्था को आहत करने के लिए एम.एफ. हुसैन और फिल्म ‘पी.के.’को क्यों कटघरे में खड़ा नहीं किया गया? क्या इसका कारण हिंदू समाज द्वारा ऐसे ‘दुस्साहसों’पर शांतिपूर्वक विरोध करना और हिंसा का मार्ग नहीं अपनाना है? यदि नूपुर मामले में शीर्ष अदालत की मौखिक टिप्पणी को आधार बनाएं, तो किसी भी मजहबी आस्था से खिलवाड़ करने का ‘अपराध’तब ही ‘गंभीर’या फिर ‘आग लगाने वाला’माना जाएगा, जब तक उसके विरोध में हिंसक प्रदर्शनों और हत्याओं का दौर न चले। क्या इस प्रकार के न्यायिक विवेक से सभ्य समाज सुरक्षित रह सकेगा? 

सच तो यह है कि नूपुर के नाम का उपयोग मजहब प्रेरित संहार के वास्तविक कारणों को छिपाने हेतु किया जा रहा है। आखिर इस विकृति का क्या कारण है? समावेशी भारतीय सनातन संस्कृति में मतभिन्नता और बहुलतावाद अनादिकाल से स्वीकार्य रहा है। यही कारण है कि भगवान गौतम बुद्ध, श्री गुरु नानक देवजी, कबीर और स्वामी दयानंद सरस्वती से लेकर गांधीजी और डा. भीमराव अंबेदकर आदि ने कई स्थापित परंपराओं पर प्रश्न उठाए, तब उनका उत्पीडऩ तो दूर, भारतीय समाज ने उन्हें सम्मान दिया। 

इस समरसत्ता को ग्रहण ‘एकेश्वरवादी’ सिद्धांत से लगा, जो सदियों पहले भारत पहुंचा और उसने कालांतर में यहां का सांस्कृतिक-भौगोलिक स्वरूप ही बदल डाला। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंगलादेश और कश्मीर इसका जीवंत प्रमाण हैं। नूपुर घटनाक्रम के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि यह विषाक्त चिंतन, शेष खंडित भारत को भी अपने नागपाश में जकडऩे लगा है, जिसे वामपंथी, सैकुलर-उदारवादी कुनबे का आशीर्वाद प्राप्त है। कुछ सैकेंड की टिप्पणी पर नूपुर का ‘सिर तन से जुदा’करने की धमकी और नूपुर का समर्थन करने वालों की नृशंस हत्या, इसका उदाहरण है। (पूर्व राज्यसभा सांसद और भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष)-बलबीर पुंज
 

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