सुखबीर सिंह बादल पर ‘विश्वास’ क्यों नहीं

Edited By ,Updated: 01 Oct, 2020 03:23 AM

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हैरानी की बात है कि शिरोमणि अकाली दल (बादल), जो कई दशकों से सिखों और अन्य पंजाबियों का प्रतिनिधित्व करने के दावे के साथ उनका नेतृत्व करता चला आ रहा है, आज उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल पर कोई विश्वास करने के लिए तैयार दिखाई नहीं दे रहा।...

हैरानी की बात है कि शिरोमणि अकाली दल (बादल), जो कई दशकों से सिखों और अन्य पंजाबियों का प्रतिनिधित्व करने के दावे के साथ उनका नेतृत्व करता चला आ रहा है, आज उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल पर कोई विश्वास करने के लिए तैयार दिखाई नहीं दे रहा।

हालांकि कृषि बिलों के सवाल पर उन्होंने पंजाब के किसानों के साथ खड़े होने के दावे के साथ न केवल स्वयं ही केंद्रीय सरकार के विरुद्ध मोर्चा खोला, अपितु अपनी पत्नी हरसिमरत कौर से केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिलवा, उन्हें भी अपने साथ मैदान में उतार लिया। इसके बावजूद पंजाब के किसानों ने उन पर विश्वास नहीं किया जिसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें किसानों के आंदोलन के प्रति अपनी वफादारी  साबित करने के लिए एन.डी.ए. से अलग होने और दशकों से भाजपा के साथ चले आ रहे गठजोड़ को भी तोडऩे की घोषणा करनी पड़ी। इतना कुछ करने के बावजूद वह पंजाब के  किसानों का विश्वास जीत नहीं पाए। 

दूसरी ओर दिलचस्प बात यह है कि शिरोमणि अकाली दल (बादल) के वर्तमान संरक्षक प्रकाश सिंह बादल, जो अपने अध्यक्षता-काल से लेकर अब तक देश के कानूनों को ‘धत्ता’ बताते, दल के दो संविधानों, जिनमें में एक के सहारे, वह शिरोमणि गुरुद्वारा कमेटी और दिल्ली गुरुद्वारा कमेटी के चुनाव तथा दूसरे के सहारे देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं, लोकसभा, विधानसभा एवं स्थानीय निकायों आदि के चुनाव लड़ते चले आ रहे हैं, के साथ राजनीति कर रहे हैं। ‘दो नावों’ पर सवार होकर, चलते आने के बावजूद, दोनों पक्षों के चुनाव आयोगों में से किसी ने भी उनकी ‘ईमानदारी’ पर शंका प्रकट नहीं की और न ही किसी अदालत ने उन पर कोई सवाल ही खड़ा किया। 

राजनीतिक विशेषज्ञ : अकाली राजनीति से जुड़े राजनीतिज्ञों का मानना है कि प्रकाश सिंह बादल ‘दो नावों’ पर सवार होकर भी बहुत ही संतुलित बयान देते हुए, कानूनी पंजे से बचते चले आ रहे हैं। जबकि सुखबीर सिंह बादल एक तो असंतुलित बयान देते हैं, दूसरा वह अपने बयान का परिणाम तुरन्त ही अपने पक्ष में आया देखना चाहते हैं। जब उन्हें अपनी यह आशा पूरी होती दिखाई नहीं देती, तो वह तुरन्त ही नया बयान दाग देते हैं। 

इन राजनीतिज्ञों के अनुसार, जब सुखबीर सिंह बादल ने हरसिमरत कौर के इस्तीफे का सार्थक प्रभाव होता न देखा, तो तुरन्त एन.डी.ए. से अलग होने और भाजपा से नाता तोडऩे की घोषणा कर दी। जब उनका यह तीर भी निशाने पर न बैठा, तो उन्होंने झट से किसान आंदोलन से जुड़ी चली आ रहीं, ‘आप’ और कांग्रेस आदि पाॢटयों पर हल्ला बोल दिया। उनके इस हल्ले की स्याही सूखी भी नहीं थी कि उनका नया बयान आ गया कि ‘2022 में हमारी सरकार ला दो, कृषि बिल लागू नहीं होने देंगे।’ इन राजनीतिज्ञों का कहना है कि उनके इन बयानों का लोगों में सीधा संदेश यह चला गया कि सुखबीर सिंह किसान आंदोलन को सफल बनाने में उसे सहयोग देने नहीं, अपितु 2022 में पंजाब में अपनी सरकार बनाने के लिए जमीन तैयार करने मैदान में उतरे हैं। 

अविश्वास का एक और कारण : अकाली राजनीति से संबंधित राजनीतिज्ञ, सुखबीर पर विश्वास न किए जाने का एक कारण यह भी मानते हैं कि सुखबीर ने कृषि बिलों का विरोध करने के लिए मैदान में उतरने से पहले कृषि अध्यादेश का समर्थन करने के लिए कई प्रैस कांफ्रैंसें कीं और हरसिमरत कौर ने भी कृषि अध्यादेश के पक्ष में कई बयान जारी किए, जिनमें विरोधियों को भी लम्बे हाथों लिया गया। विशेषज्ञों के अनुसार, दोनों के इन बयानों पर आधारित वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं और उन्हें शेयर कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाया जा रहा है। बताया जा रहा है कि सुखबीर सिंह बादल के राजनीतिक सचिव और दल के उपाध्यक्ष सिधवां ने दल की प्राथमिक सदस्यता से दिए गए इस्तीफे में भी यह शंका प्रकट की कि सरकार और एन.डी.ए. से अलग होने तथा भाजपा से नाता तोडऩे का फैसला, सुखबीर के किसी निजी स्वार्थ पर आधारित हो सकता है। 

सिख धर्म बनाम राजनीतिक सत्ता : एक प्रमुख सिख इतिहासकार ने  सत्ता में आने पर मनुष्य की क्या दशा होती है? इस सवाल का विश्लेषण करते हुए कहा कि जब कोई व्यक्ति समाज में विशेष स्थान या पद प्राप्त कर जाता है और उसके फलस्वरूप वह विशेष अधिकारों और सुख-सुविधाओं का आनंद भोगने लगता है, तो उसके अंदर से धीरे-धीरे राष्ट्रीय भाईचारे की भावना दम तोडऩे लगती है। 

सत्ता की लालसा ने सिखों को कहां से कहां पहुंचा दिया, इसका जिक्र करते हुए वह कहते हैं कि ‘सत्ता हाथों में आते ही  खालसे के अंदर की आपसी प्यार और सहयोग की भावना कमजोर पड़ गई और इसकी जगह आपसी विरोधों, शंकाओं और जलन ने ले ली। खालसे की संगठित भावना निज-वाद और अहं (अहंकार) ने निगल ली।’ संभवत: यही कारण है कि बीते लम्बे समय से सिख जगत में यह बात बड़ी तीव्रता से महसूस की जा रही है कि यदि सिख धर्म के स्वतंत्र अस्तित्व और सिखों की अलग पहचान को बचाए रखना है तो धर्म और राजनीति को एक-दूसरे से जुदा करना ही होगा। 

इस सोच के धारनी सिखों की मान्यता है कि सिख एक विद्रोही और बागी कौम है, जिसने संकीर्ण धार्मिक सोच, कर्म-कांडों, पाखंडों आदि के साथ ही जबर और जुल्म के विरुद्ध जूझने का संकल्प किया हुआ है। दूसरी ओर राजसत्ता न तो जुल्म और अन्याय का सहारा लिए बिना कायम हो सकती है और न ही इनके बिना कायम रखी जा सकती है। इन्हीं सिखों के अनुसार सिख धर्म की मान्यताओं और मर्यादाओं की रक्षा तभी की जा सकती है जबकि उसे राजनीतिक सत्ता-लालसा से मुक्त रखा जाए क्योंकि राजनीति में तो गैर-सैद्धांतिक समझौते किए जा सकते हैं, परन्तु धर्म के मामले में किसी भी तरह का गैर-सैद्धांतिक समझौता किया जाना संभव नहीं हो सकता। 

...और अंत में : इन्हीं दिनों दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के सत्ताधारी, शिरोमणि अकाली दल (बादल) के एक वरिष्ठ सदस्य ने सोशल मीडिया पर पोस्ट डाल कमेटी के मुखियों से पूछा कि उन्होंने अपने लम्बे सत्ताकाल के दौरान कोई अस्पताल बनाया है? कोई नया स्कूल, कालेज अथवा तकनीकी संस्थान कायम किया है? गुरुद्वारा कमेटी और अपने प्रबंधाधीन शैक्षणिक संस्थानों के कर्मचारियों को समय पर वेतन देने का प्रबंध किया है? शैक्षणिक संस्थाओं के प्रबंध और उनमें दी जा रही शिक्षा के स्तर में कोई सुधार किया है? आदि सवाल पूछने के बाद उन्होंने स्वयं ही उनका जवाब देते हुए कहा है कि यहां दिए गए हर सवाल का जवाब ‘ना’ में है। इसके बाद वह कहते हैं कि जब आपने लम्बे सत्ताकाल दौरान दिल्ली के सिखों के लिए किया ही कुछ नहीं, तो क्या वे अपने ऐतिहासिक गुरुद्वारों की सेवा-संभाल की जिम्मेदारी तुम्हें सौंप पछता नहीं रहे होंगे।-न काहू से दोस्ती न काहू से बैर जसवंत सिंह ‘अजीत’

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