‘...हां यह समय भी गुजर जाएगा’

Edited By ,Updated: 14 Feb, 2021 06:00 AM

yes this time will pass

एक ऐसा देश जहां पर राजनेता शायद ही अपने जीवन के विवरणों को याद करने या राजनीति पर टिप्पणी करने जिसका वह हिस्सा थे, कभी संस्मरण लिखते हैं। पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी द्वारा लिखित एक आत्म कथा स्वागत योग्य घटना है। हालांकि जो हामिद अंसारी

एक ऐसा देश जहां पर राजनेता शायद ही अपने जीवन के विवरणों को याद करने या राजनीति पर टिप्पणी करने जिसका वह हिस्सा थे, कभी संस्मरण लिखते हैं। पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी द्वारा लिखित एक आत्म कथा स्वागत योग्य घटना है। हालांकि जो हामिद अंसारी की किताब को वास्तव में खास बनाता है वह है उनका कई बार मुखर होना जिसके साथ उन्होंने प्रचलित स्थिति के बारे में लिखा है। 

वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पहले तीन वर्षों के कार्यकाल के दौरान अंसारी उपराष्ट्रपति थे। नतीजतन उनकी पुस्तक न केवल प्रासंगिक है बल्कि सामयिक भी है। इसके अतिरिक्त, ‘‘बाय मैनी ए हैप्पी एक्सीडैंट’’ ने मोदी के भारत के कई चिंतित पहलुओं को छुआ है जिनके बारे में अन्य लोगों ने लिखने से हिचकिचाहट की है। 

इसलिए इसकी सभी दिशाओं से सराहना होने की संभावना नहीं है। आइए अंसारी के 2019 के लोकसभा चुनावों के दृष्टिकोण के साथ बात शुरू करते हैं जिसका मुझे विश्वास है कि यह एक टॄनग प्वाइंट था जो 2014 का चुनाव नहीं था। वह लिखते हैं कि यह लोक लुभावनवाद की सफलता है जो सत्तावाद, राष्ट्रवाद और अधिनायकवाद द्वारा सहायता प्राप्त थी। ये दोनों साहसिक और सरल हैं मगर वास्तव में वह ज्यादा स्पष्ट होते हैं जब वह परिणाम का विश्लेषण करते हैं। आज हमारे पास राष्ट्रवाद का एक संस्करण है जो सांस्कृतिक प्रतिबद्धताओं को उसके मूल में रखता है और असहनशीलता तथा अभिमानी देशभक्ति को बढ़ावा देता है। 

यह राजनीतिक और सांस्कृतिक परिदृश्य पर हावी हो गया है। इसने देश को एक नाजुक राष्ट्रीय अहंकार के साथ जोड़ दिया है जो किसी भी निर्दोष असंतुष्ट को धमकी देता है। अंसारी ‘अति राष्ट्रवाद’ शब्द का विशेषरूप से उपयोग करते हैं। अंसारी की भाषा हमेशा ही सतर्क और सही होती है। उन्होंने उसमें रंगीन विशेषण और अति रंजित सुझाव नहीं दिए हैं। फिर भी उसके वास्तविक अर्थ को छेडऩा मुश्किल नहीं है। हालांकि उन्होंने इसे कई शब्दों में व्यक्त किया है। एक धर्मनिरपेक्ष देश से हम तेजी से एक ङ्क्षहदू राष्ट्र बनते जा रहे हैं। यहां पर दो अन्य परिणाम भी हैं जिन्हें अंसारी ने पहचाना है। उनका कहना है कि कानून के नियम के प्रति हमारी प्रतिबद्धता गंभीर खतरे में है जो  राज्य के संस्थानों की प्रभावकारिता में ध्यान देने योग्य गिरावट से उत्पन्न होती है। इसकी बजाय हम मनमाने ढंग से निर्णय ले रहे हैं और यहां तक कि भीड़ शासन कर रही है। 

अंसारी न्यायपालिका को दोषी ठहराने से भी नहीं कतराते। हालांकि उन्होंने इसे बड़े बेहतर ढंग से कहा है। किताब में वह लिखते हैं कि बेहतर न्यायपालिका का दृष्टिकोण एक प्रतिष्ठित संस्था को बहुत कम श्रेय देता है और जनता के विश्वास को नुक्सान पहुंचाता है। दूसरा परिणाम अधिक चिंताजनक है। अंसारी लिखते हैं कि ‘‘हमारे समाज में दोषपूर्ण रेखाएं दिखाई देती हैं।’’ इससे अधिक वह नहीं कहते मगर क्या उन्हें इसे कहने की जरूरत थी। निश्चित तौर पर चेतावनी के तौर पर यह काफी है? तो क्या अंसारी भारत के भविष्य को लेकर आशंकित हैं? वह सवालों के सीधे जवाब नहीं देते मगर ऐसे कारण हैं जिन्हें उन्होंने स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है। उनके आखिरी अध्याय में एक वाक्य है। वास्तव में इस पृष्ठ पर वह सुझाव देते हैं कि सुरंग के अंत में प्रकाश अभी भी चमक रहा है जिसे मंद करना मुश्किल साबित हो सकता है। 

कड़े राष्ट्रवाद और झूठों पर आधारित इसके भ्रामक लाभ भी लम्बे समय तक नहीं रह सकते। जैसा कि मैंने उन शब्दों को पढ़ा तो मुझे लगा कि मैं भी उनकी आवाज को सुन सकता हूं। धीरे से लेकिन आश्वस्त होकर। यह समय भी गुजर जाएगा। लेकिन कब? यह मेरे जीवनकाल में होगा? या मोक्ष एक फल है जो बाद की पीढिय़ों के लिए आनंद लेने हेतु पक जाएगा मगर तब तक कितना नुक्सान हो चुका होगा?मुझे इस तथ्य से आराम महसूस होता है कि भारत जिसे मैं प्यार करता हूं एक बार फिर से उठेगा लेकिन मैं इस सोच से दुखी हूं कि मैं इसका हिस्सा नहीं हो सकता।-करण थापर 
 

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