चुनाव प्रचार में चीन से क्यों बच रही है भाजपा

Edited By ,Updated: 03 May, 2024 05:22 AM

why is bjp avoiding china in election campaign

भाजपा का चुनावी फोकस हाल के चीन तनाव से हटकर 1962 के संघर्ष के दौरान नेहरू के कार्यों को उजागर करने पर केंद्रित हो गया है। चीन आम तौर पर अब तक चुनावी घोषणापत्रों और प्रचार से गायब रहा है। पूर्व सेना प्रमुख जनरल नरवणे ने हाल ही में अजमेर में एक...

भाजपा का चुनावी फोकस हाल के चीन तनाव से हटकर 1962 के संघर्ष के दौरान नेहरू के कार्यों को उजागर करने पर केंद्रित हो गया है। चीन आम तौर पर अब तक चुनावी घोषणापत्रों और प्रचार से गायब रहा है। पूर्व सेना प्रमुख जनरल नरवणे ने हाल ही में अजमेर में एक साहित्यिक उत्सव में चीन को भारत के लिए प्राथमिक खतरा बताया था।  एल.ए.सी. पर टकराव को जोडऩा एक अच्छी बात थी क्योंकि इससे यह जमीनी हकीकत सामने आ गई थी जिसे स्वीकार करने में दिल्ली को शर्म आ रही थी। विदेश मंत्री एस.जयशंकर और विशेष रूप से रक्षा सचिव गिरधर अरमाने ने बीजिंग का निर्दयी संदर्भ दिया है। 

नरवणे ने अपनी किताब ‘फोर स्टार्स ऑफ डैस्टिनी’ में भारत-चीन टकराव के बारे में विस्तार से लिखा है जो उनकी देख-रेख में शुरू हुआ था। यह खुफिया जानकारी की एक गंभीर विफलता थी जिसने चीन को उनकी 1956 की दावा रेखा के अनुरूप राष्ट्र के भारतीय पक्ष के लगभग 2000 वर्ग कि.मी. क्षेत्र पर कब्जा करने की अनुमति दी। गलवान में टाली जा सकने वाली त्रासदी और 21 दौर की सैन्य वार्ता (21 फरवरी को अंतिम दौर) के बाद भी चीन द्वारा अप्रैल 2020 की यथास्थिति बहाल करने से इन्कार ने भारत को गंभीर संकट में डाल दिया है। 1998 में भारत ने चीन को परमाणु परीक्षण करने का कारण बताया, जिससे चीन नाराज हो गया और तत्कालीन विदेश मंत्री जसवन्त सिंह को ‘गांठ खोलने’ के लिए बीजिंग की यात्रा करनी पड़ी। 

मैं बीजिंग में इस बात का गवाह था, तब भी जब हमारी सेना टोलोलिंग हाइट्स, कारगिल पर कब्जा कर रही थी। सिंह को कहना पड़ा कि चीन कोई खतरा नहीं है। बाद में तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस ने चीन को नंबर एक खतरा बताया। हालांकि इसे ‘नंबर 1 दुश्मन’ के रूप में गलत तरीके से पेश किया गया। इससे एक कूटनीतिक हंगामा खड़ा हो गया क्योंकि चीन किसी भी देश द्वारा खतरे के रूप में देखे जाने या इससे भी बदतर खतरे के प्रति बेहद संवेदनशील है। सरकार चीन पर अपनी अभिव्यक्ति में सावधानी बरत रही है क्योंकि उसे कूटनीतिक रूप से पूर्ण विघटन सुनिश्चित करने की उम्मीद है। लेकिन  फरवरी/मार्च में हालात बदल गए। 

जयशंकर ने रायसीना डायलॉग में बोलते हुए कहा कि चीन को माइंड-गेम खेलने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए जिसका मुकाबला करने के लिए भारत को बेहतर संतुलन हासिल करने के लिए अन्य तरीकों (अमरीकी मदद) का इस्तेमाल करना चाहिए। उनकी यह टिप्पणी दिल्ली में इंडस-एक्स फोरम में अरमाने द्वारा अभूतपूर्व रूप से बीजिंग को धमकाने वाला कहे जाने के एक दिन बाद आई है, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘‘हमें उम्मीद है कि अगर हमें उनके समर्थन की जरूरत होगी तो हमारा मित्र अमरीका वहां मौजूद रहेगा।’’ 1962 के बाद से हमने स्पष्ट रूप से अमरीकी सैन्य समर्थन नहीं मांगा है। इससे चीन का परेशान होना लाजिमी है। इससे भी बुरी बात यह है कि किसी भी भारतीय अधिकारी ने कभी भी चीन को धौंसिया नहीं कहा। आश्चर्य की बात है कि चीन ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। 

प्रकाशकों द्वारा ऑप्रेशन स्नो लेपर्ड नाइट 29/30 अगस्त 2020 के अंशों को प्रसारित करने के बाद सरकार ने नरवणे की पुस्तक और उसके अंशों को क्षति नियंत्रण के लिए रोक दिया है, जिसमें युद्ध में सरकार के राजनीतिक नियंत्रण को कमतर बताया गया है और अग्निवीर पर विस्फोटक टिप्पणियां की गई हैं। चुनावी रैलियों के दौरान जहां विदेश नीति एक मुद्दा है विपक्ष चीन और अग्निवीर में सरकार को निशाना बना रहा है। आर्मी इंटैलीजैंस ने पुस्तक के प्रकाशन के लिए कैसे मंजूरी दी यह एक रहस्य है। 10 फरवरी 2021 को संसद में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने उत्तरी पैंगोंग त्सो झील ङ्क्षफगर्स क्षेत्र में वापसी के बारे में संसद को जानकारी दी थी। लेकिन उन्होंने कैलाश हाइट्स से वापसी का कोई उल्लेख नहीं किया, जो संभवत: ‘पारस्परिक वापसी’ में निहित था। लेकिन सिंह ने कहा, ‘‘चीनी पक्ष एक इंच भी क्षेत्र नहीं लेने-देने के हमारे संकल्प से अवगत है।’’ 

पूर्व एन.एस.ए. (राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार) शिव शंकर मेनन ने अपने लेखन में कहा है, ‘‘हम नहीं जानते कि दक्षिणी छोर (कैलाश हाइट्स) में क्या हुआ, जैसा कि हम उत्तरी छोर (पैंगोंग त्सो झील) के बारे में जानते हैं।’’ हाल ही में कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने स्वायत्त लद्दाख हिल डिवैल्पमैंट काऊंसिल के चुशुल काऊंसलर कोनचोक स्टैनजिन के एक एक्स पोस्ट का हवाला देते हुए कहा कि रेजांगला युद्ध स्मारक 1962 को नष्ट कर दिया गया था क्योंकि यह कैलाश हाइट्स के खाली होने के दौरान चीन के साथ बातचीत के दौरान ‘बफर जोन’ में आता था। भारतीय क्षेत्र में निर्विवाद कैलाश हाइट्स को बफर जोन बना दिया गया था, यह एक रहस्योद्घाटन है कि सरकार ने संसद को कभी भी सूचित नहीं किया।

उस महत्वपूर्ण रात को कैलाश हाइट्स में विकसित ऊध्र्वाधर और क्षैतिज वृद्धि से भरी गंभीर परिचालन स्थिति में, सी.सी.एस./आर. एम./पी.एम. द्वारा नरवणे को कोई राजनीतिक मार्गदर्शन प्रदान नहीं किया गया था, जो सिंह के साथ तत्काल आदेश मांगने पर उनकी बातचीत से स्पष्ट हो गया। नरवणे की किताब और उसके कुछ अंशों के विमोचन पर रोक लगने के बाद, यह किताब कभी भी सफल नहीं हो पाएगी क्योंकि इसमें युद्ध जैसी स्थिति की राजनीतिक दिशा को खराब रोशनी में दिखाया गया है। लेकिन नरवणे को पता होगा कि वह सी.डी.एस. क्यों नहीं बने, जबकि कैलाश की महत्वपूर्ण ऊंचाइयां हमेशा के लिए खो गई हैं। 

चुनाव अभियान में, किसी भी भाजपा नेता ने अब तक गलवान या कैलाश की पहाडिय़ों का उल्लेख नहीं किया है, जो चीन के खिलाफ बल के वीरतापूर्ण उपयोग का उदाहरण थे क्योंकि इससे कई खतरे पैदा हो सकते थे। नरवणे को मैदान से बाहर रखते हुए, विपक्ष 2000 वर्ग कि.मी. भूमि के साथ-साथ 65 गश्ती बिंदुओं में से 26 को खोने के लिए सरकार पर हमला कर रहा है। 12 अप्रैल को पुणे में प्रचार करते हुए और मीडिया से बात करते हुए जयशंकर ने इस बात पर जोर दिया कि ‘‘चीन द्वारा कोई अतिक्रमण नहीं किया गया; इसने हमारी किसी जमीन पर कब्जा नहीं किया; लेकिन स्थिति संवेदनशील, प्रतिस्पर्धी और चुनौतीपूर्ण है।’’ प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और रक्षामंत्री सभी ने क्षेत्र के नुकसान से इन्कार किया है। 

न्यूजवीक के साथ अपने साक्षात्कार में चीन पर एक सवाल के जवाब में, पी.एम. मोदी का संक्षिप्त उत्तर था, ‘‘बीजिंग के साथ नई दिल्ली के संबंध महत्वपूर्ण हैं और सीमा पर लंबे समय से चली आ रही स्थिति पर तत्काल गौर किया जाना चाहिए ताकि सीमाओं पर शांति और अमन-चैन बहाल किया जा सके।’’  चीनियों ने बयान का स्वागत करते हुए कहा कि मजबूत और स्थिर संबंध आम हित में हैं। भारत की मांग के अनुसार एल.ए.सी. की अप्रैल 2020 से पहले की स्थिति चीन कभी बहाल नहीं करेगा। किसी समझौते के फार्मूले की कल्पना करना कठिन है। नतीजतन, चीन शब्द भाजपा के चुनावी विमर्श से लगभग गायब है। बातों को बड़ी चतुराई से 1962 में नेहरू की मूर्खताओं की ओर मोड़ दिया गया। लेकिन नरवणे प्रशंसा के पात्र हैं।(लेखक एक सेवानिवृत्त मेजर जनरल हैं। यह उनके निजी विचार हैं)-अशोक के. मेहता

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