Edited By Lata,Updated: 29 Aug, 2019 01:11 PM
हम ऐसे समय में जी रहे हैं जब सफलता के लिए कोई भी कीमत बड़ी नहीं लगती है। आखिर सफलता की सीमा क्या है और कैसे जानेंगे
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हम ऐसे समय में जी रहे हैं जब सफलता के लिए कोई भी कीमत बड़ी नहीं लगती है। आखिर सफलता की सीमा क्या है और कैसे जानेंगे कि आप सफल हुए या फिर सफलता की परछाईं ही टटोलते रह गए? शब्द की बनावट पर जाएं तो सफल का अर्थ फल से युक्त और असफल फल से विहीन है। फल की प्राप्ति के विषय में गीता का ज्ञान है कि फल की चिन्ता किए बिना कर्म करते जाओ।
वर्तमान में कई मायनों में यह अनुपयुक्त लगता है। आज जिसे देखिए वह फल प्राप्ति के उद्देश्य से ही कर्म करता है। जिसे वांछित फल नहीं मिलता है उसके द्वारा की गई कोशिश, उसके अनुभव के बारे में कोई पूछता तक नहीं। असफल लोगों के लिए समाज सहानुभूति तो प्रकट कर सकता है, उसके चरित्र का अनुकरण नहीं करता।
आज के समय में यह मानना कठिन है कि सफलता पाने के बाद भी व्यक्ति सीमित संसाधनों में जीवन जी सकता है क्योंकि सफलता की परिभाषा है लक्ष्मी, आलीशान गाडि़यां, बड़ा घर और जिनके पास यह सब नहीं है, वे बेशक मन की प्रसन्नता के लिए कार्य कर लें सफल तो किसी भी परिस्थिति में नहीं कहे जा सकते।
ऐसे व्यक्ति का ध्यान कर्म की उत्कृष्टता पर रहता है। इस प्रकार के कर्म को धन से सौ गुना कीमती वस्तु प्राप्त होती है जिसे ‘मान’ कहते हैं। धन और मान के महत्व को आचार्य चाणक्य 3 श्रेणियों में बांटकर समझाते हैं। तीसरी यानि निम्न श्रेणी के लोग सिर्फ धन की कामना करते हैं और दूसरी श्रेणी के लोग धन और मान दोनों की चाहत रखते हैं परन्तु प्रथम यानि उत्तम श्रेणी के व्यक्ति सिर्फ मान यानि सम्मान को प्राथमिकता देते हैं।
तामसिक व्यक्ति आवेश और क्रोध में कर्म करता है। उसके लिए फल सब कुछ है, अर्थात लक्ष्य के लिए चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े, वह तैयार रहता है। आमतौर पर इस लक्ष्य में पावर, पोजीशन पाने की कामना रहती है। सफलता नहीं मिलने अर्थात अपना उद्देश्य प्राप्त नहीं होने पर इन्हें दुख या अवसाद भी थोक के भाव में जकड़ता है।