इस विधि से करें पितृ दोष एवं सर्व दोष का वैदिक शांति विधान

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 29 Apr, 2020 08:50 AM

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श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण के वचन के अनुसार मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार ही फल प्राप्त होते हैं। तब मनुष्य के मन में प्राय: यह प्रश्न उठता है कि कोई मनुष्य निरंतर पापकर्म के पश्चात भी उचित दंड कर्म फल के सिद्धांत के अनुसार नहीं पा रहा...

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

Pitra dosh: श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण के वचन के अनुसार मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार ही फल प्राप्त होते हैं। तब मनुष्य के मन में प्राय: यह प्रश्न उठता है कि कोई मनुष्य निरंतर पापकर्म के पश्चात भी उचित दंड कर्म फल के सिद्धांत के अनुसार नहीं पा रहा है। वस्तुत: हमारी जितनी दृष्टि, जितनी क्षमता है, हम उतना ही देख पाते हैं। हम क्षितिज के पार नहीं देख पाते। हम क्षितिज के पास जाते हैं तो वह आगे खिसक जाता है। वस्तुत: हम क्षितिज के पास जा ही नहीं पाते। क्षितिज दूर ही रहता है।

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हम उस मनुष्य के वर्तमान को ही देखते हैं। हम प्राय: ऐसा पाते हैं कि कोई पापकर्मी अपने जीवन का बड़ा भाग भौतिक सुखों में व्यतीत कर रहा दिखता है, लेकिन उसके भीतर कोई भीषण मानसिक, आत्मिक पीड़ा चलती रहती है।

हमारी दृष्टि की सीमा यहीं आकर समाप्त हो जाती है। वैदिक दर्शन शास्त्र पुनर्जन्म की धारणा व्यक्त करता है। वह पुनर्जन्म के रहस्यों को जान चुका है, जबकि विश्व के अनेक धर्मों के दर्शन आत्मोन्नति के इस सोपान का दर्शन भी नहीं कर सके। इसीलिए उन्हें पुनर्जन्म की अवधारणा स्वीकार्य ही नहीं है क्योंकि सत्य को किसी स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होती। पुनर्जन्म की अवधारणा को प्रमाणित करने वाले असंख्य प्रमाण विदेशी शोधकर्ताओं ने भी एकत्र किए हैं।

यदि कोई पापकर्मी पूरा जीवन सुखपूर्वक व्यतीत कर अंतिम श्वास ले लेता है, तो उसका पुनर्जन्म कहां होगा? वह अपने पूर्व कर्मों का फल भोगने के लिए कहां भेजा जाएगा? इसे जानने का उपाय हमारे पास नहीं है। किंतु किसी सांसारिक अस्तित्वगत प्रमाण के अभाव में सत्य लुप्त नहीं हो सकता। किसी शृंखलाबद्ध समस्या की एक कड़ी सुलझने पर शेष पूरी समस्या का समाधान हो जाता है। पुनर्जन्म का प्रामाणिक सिद्ध हो जाना ही इस बात का प्रमाण है कि कर्म और फल का अटूट संबंध है।

यही कर्म-फल अनेक प्रकार के दोषों के रूप में मनुष्य के सम्मुख आता है। ज्योतिष में यह दोष कालसर्प दोष के रूप में, वास्तु शास्त्र में यही दोष वास्तुदोष के रूप में और अध्यात्म में यही दोष पितृ के रूप में दृष्टिगोचर होता है।

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पितृदोष या अन्य दोष निवारण के अनेक उपाय हैं। ज्योतिष विज्ञान के अनुसार जिस लग्न में आने वाला प्रश्न करे, वही दोष उसका होता है। जैसे-
मेष :
कुलदेवता का दोष या कुलदेवी का दोष

वृषभ : पितृ दोष, पूर्वजन्मकृत दोष

मिथुन : प्रेत या प्रेतनी दोष

कर्क : भूत-प्रेत बाधा अथवा दोष

सिंह : मातृ दोष या परिवार की अन्य वृद्ध स्त्री का दोष

कन्या : चंडिका देवी का दोष

तुला : मातृवत्सा नारी दोष

वृश्चिक : ऊपरी बाधा, पितृ अभी भी भटक रहे हैं

धनु : देव या देवी दोष

मकर : स्थान दोष, वास्तु दोष

कुंभ : कुल्टा स्त्री या बदचलन पुरुष का दोष

मीन : वायु प्रकोप

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ये सभी दोष अनुष्ठान करने के माध्यम से समाप्त हो जाते हैं, अनुष्ठान का विधान
सभी अनुष्ठानों में देवपूजा सर्वप्रथम आती है जिसमें संकल्प, स्वस्तिवाचन, गणेशपूजन, कलश पूजन, त्रिदेव पूजा, लोकपाल एवं दिकपाल आदि का पूजन भी सम्मिलित है। इनका पूजन विधि-विधान से बहुत कम विद्वान कर पाते हैं क्योंकि सभी प्राचीन पुस्तकें संस्कृत में हैं और यदि कोई हिंदी में भी मिलती है, तो उसकी भाषा या उसमें दिया गया ढंग प्रामाणिक नहीं है।

अनेकों विद्वान यहां अभी तक भी गलती करते हैं कि पूजा हवन आदि के समय यजमान को सपत्नीक दक्षिण-हस्त बैठाने की अपेक्षा वाम-हस्त में बैठा देते हैं जबकि शास्त्रों में लिखा है कि धार्मिक कार्य करते समय पत्नी दाहिने ही बैठती हैं।
वृत वन्ये विवाहे च चतुर्थी सहयोजने।
ब्रते दाने मखे श्राद्धे पत्नि तिष्ठति दक्षिणे।।
सीमन्ते धर्म कार्य च पत्नि कुर्याच्च दक्षिण।।

इसके अतिरिक्त यजमान का तिलक, पूजा के अंत में करते हैं जबकि पूजा के प्रारंभ में ही यजमान द्वारा आचार्य को तिलक करके मौली बांधनी चाहिए अर्थात आचार्य का वरण करें अर्थात उस कर्म के लिए अपनी ओर से आचार्य निश्चित करें। ब्राह्मण वरण एवं पूजन विधि निम्रानुसार है।

सर्वप्रथम गणपति पूजने के पश्चात तिलक करके मौली बांधकर आचार्य निश्चित किया जाता है। इसके पश्चात आचार्य यजमान को तिलक करके मौली (कलावा) बांधे। कन्या को जब तक वह कन्या की संज्ञा में हैं तब तक उसके दाहिने हाथ में कलावा बांधना चाहिए। विवाह में कन्यादान से पूर्व कन्या की संज्ञा कन्या होती है। विवाहित स्त्री के बाएं हाथ में मौली बांधनी चाहिए। देवपूजा क्रम भी निश्चित हैं।

देवताओं का पूजन षोडषोपचार (आवाहन, आसन, पाद्यं, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र यज्ञोपवीतम्, गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, प्रदक्षिणा, पुष्पांजलि) से कराते हैं। यदि इसमें बाधा आती है तो दशोपचार (पाद्यं, अर्थ, आचमन, स्नान, व , गंध, पुष्प, धूप, दीप नैवेद्य) (पंचोपचार गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य) अगर कुछ भी न हो तो हाथ जोड़कर नमस्कार करने से भी पूजा पूर्ण हो जाती है।

ग्रहों की शांति के लिए वेदी का भी साधारण प्रकार है। वेदी के ऊपर की तरफ पूर्व दिशा, नीचे पश्चिम दिशा, दाहिने दक्षिण दिशा और बाएं उत्तर दिशा होती है। पूर्व दक्षिण के मध्य अग्निकोण, दक्षिण पश्चिम के मध्य नैर्ऋत्यकोण, पश्चिम उत्तर में वायव्य कोण और उत्तर में वायव्य कोण और उत्तर पूर्व में ईशान कोण होता है। ग्रहों की स्थिति इस प्रकार है- इंद्र वायु, शुक्र पूर्व में, चंद्र एवं चौषठ योगिनी अग्निकोण में, मंगल यम, नाग दक्षिण में, राहु नैर्ऋत्यकोण में, शनि पश्चिम में, केतु वायव्य में, गुरु, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, अग्नि, षोडषमातृका, सप्तघृत मातृका, उत्तर में और बुद्ध, कलश, गणेश और श्री:ईशान में स्थापित करें। सूर्य की स्थापना वेदी के मध्य में करें। रंग ग्रहों के रंगों के अनुसार भरें। चंद्र-श्वेत, मंगल-लाल, बुध-हरा, गुरु-पीला, शुक्र-श्वेत, शनि-काला, राहु-नीला और केतु काला-नीला रंग भरें।

सरल पूजन पद्धति सब कार्यों में सर्वप्रथम प्रयोग की जाती है। कोई भी कार्य करें सबसे पहले संकल्प-स्वस्ति वाचन-गणेश पूजन-त्रिदेव पूजन-षोडषमातृका एवं नवग्रह आदि का पूजन अवश्य आता है और अन्य कार्य इसके बाद किए जाते हैं।

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