Ramnami Community: छत्तीसगढ़ का एक ऐसा समुदाय जिनके शरीर के हर हिस्से पर लिखा है राम का नाम

Edited By Prachi Sharma,Updated: 05 Feb, 2024 11:15 AM

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छत्तीसगढ़ में कसडोल में पिछले सौ सालों से भी अधिक समय से महानदी के किनारे हर साल तीन दिनों का, अपनी तरह का अनूठा भजन-मेला ‘बड़े भजन मेला’

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Ramnami Community: छत्तीसगढ़ में कसडोल में पिछले सौ सालों से भी अधिक समय से महानदी के किनारे हर साल तीन दिनों का, अपनी तरह का अनूठा भजन-मेला ‘बड़े भजन मेला’ लगता है। इस साल 21 से 23 जनवरी तक इस मेले का आयोजन किया गया। इस मेले में तीनों दिन हजारों लोग अलग-अलग और सामूहिक रूप से रामायण का पाठ करते हैं। समझ लीजिए कि पूरा माहौल राममय रहता है।

इस मेले में छत्तीसगढ़ के रामनामी समुदाय के लोग पूरे उत्साह से हिस्सा लेते हैं जिनकी पहचान पूरी देह पर राम-राम के स्थाई गोदना या टैटू के कारण है। राम-राम का यह गोदना उनके सिर से लेकर पैर तक शरीर के हर हिस्से पर गुदवाया जाता है। इस समुदाय में सुबह के अभिवादन से लेकर हर काम की शुरुआत राम-राम से होती है।

मूर्ति पूजा में आस्था नहीं
मूर्ति पूजा में आस्था नहीं रखने वाले रामनामी समुदाय के पास राम के निर्गुण स्वरूप की आराधना के सुंदर भजन हैं, जिनमें मानस की चौपाइयां भी शामिल हैं। मध्य भारत में निर्गुण भक्ति के तीन बड़े आंदोलन माने जाते हैं, जिनका केंद्र छत्तीसगढ़ बना रहा। इन तीनों ही आंदोलनों में ज्यादातर समाज का वह वर्ग जुड़ा, जिसे तब कथित रूप से अछूत माना जाता था।

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मध्य प्रदेश के बांधवगढ़ के रहने वाले शिष्य गुरु धरमदास और उनके बेटे गुरु चुरामनदास को मध्य भारत में कबीर पंथ के प्रचार-प्रसार और उसे स्थापित करने का श्रेय जाता है। छत्तीसगढ़ के दामाखेड़ा में कबीरपंथियों का विशाल आश्रम है। कबीरधाम जिले में भी कबीरपंथी समाज का एक बड़ा केंद्र है। छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ को मानने वालों की संख्या लाखों में है। इसी तरह कबीर के ही शिष्य जीवनदास की ओर से 16वीं शताब्दी में उत्तर प्रदेश में सतनाम पंथ की स्थापना के प्रमाण मिलते हैं।

हालांकि कुछ इतिहासकारों का मानना है कि दादू दयाल के शिष्य जगजीवन दास ने सत्रहवीं शताब्दी में सतनाम पंथ की स्थापना की थी लेकिन छत्तीसगढ़ में 1820 के आसपास बाबा गुरु घासीदास ने सतनाम पंथ की स्थापना की। कबीरपंथ और सतनामी समाज की स्थापना के आस-पास ही कहा जाता है कि अछूत कह कर मंदिर में प्रवेश करने से मना करने पर परशुराम नामक युवा ने माथे पर राम-राम गुदवा कर इस रामनामी सम्प्रदाय की शुरुआत की।

हालांकि रामनामी संप्रदाय के कुछ बुजुर्ग बताते हैं कि 19वीं शताब्दी के मध्य में जांजगीर-चांपा जिले के चारपारा गांव में पैदा हुए परशुराम ने पिता के प्रभाव में मानस का पाठ करना सीखा लेकिन 30 की उम्र के होते-होते उन्हें कोई चर्म रोग हो गया। उसी दौरान एक रामानंदी साधु रामदेव के संपर्क में आने से उनका रोग भी खत्म हुआ और उनकी छाती पर राम-राम का गोदना स्वत: उभर आया। इसके बाद से उन्होंने राम-राम के नाम के जाप को प्रचारित-प्रसारित करना शुरू किया।

कहते हैं कि उनके प्रभाव में आ कर गांव के कुछ लोगों ने अपने माथे पर राम-राम गुदवा लिया और खेती-बाड़ी के अलावा बचे हुए समय में मंडलियों में राम-राम का भजन करना शुरू किया। इन लोगों ने दूसरे साधुओं की तरह शाकाहारी भोजन करना शुरू किया और शराब का सेवन भी बंद कर दिया। रामनामी संप्रदाय की यह शुरुआत 1870 के आसपास हुई। इस संप्रदाय के लोगों ने अपने कपड़ों पर भी राम-नाम लिखना शुरू किया। चादर, गमछा, ओढ़नी, सब जगह राम-राम लिखने की परंपरा शुरू हुई।

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रामनामी समुदाय के चैतराम कहते हैं, हमारे बाबा बताते थे कि माथे पर और देह पर राम-राम लिखे होने से नाराज कई लोगों ने रामनामियों पर हमले किए, उनके राम-राम लिखे गोदना को मिटाने के लिए गरम सलाखों से दागा गया, कपड़ों को आग के हवाले कर दिया गया लेकिन राम-राम को कोई हमारे हृदय से भला कैसे मिटाता ? प्रतिरोध स्वरूप, इसके बाद पूरे शरीर पर राम-राम का स्थाई गोदना गुदवाने की परंपरा शुरू हुई।

रामायण से साक्षरता
गुलाराम रामनामी बताते हैं, तब के समाज में जो वर्ण व्यवस्था थी, उसमें कथित शूद्रों को मंदिर में प्रवेश का अधिकार नहीं था, राम नाम जपने का अधिकार तक नहीं था। रामनामी समुदाय की शुरुआत के बाद हमें राम को भजने का अधिकार मिला। इसके साथ ही रामायण के कारण, हमारे पूर्वजों ने पढ़ना-लिखना सीखा। स्कूलों में जाने का अधिकार तो शूद्रों के पास था ही नहीं, ऐसे में रामायण साक्षरता का एक बड़ा कारण बनी।

गुलाराम बताते हैं कि राम का नाम लेने के कारण उनके पूर्वजों को अदालत तक के चक्कर लगाने पड़े। आरोप था उनके द्वारा राम का नाम लेने से, राम का नाम अपवित्र हो रहा है। गुलाराम का कहना है कि हमारे लोगों ने अदालत में तर्क दिया कि हम जिस राम को जपते हैं, वह अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र राम नहीं, बल्कि वे राम हैं, जो चर-अचर सबमें व्याप्त है। हमारा सगुण राम से कोई लेना-देना नहीं है।

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रायपुर के सैशन जज ने अंतत: 12 अक्तूबर, 1912 को फैसला सुनाया कि रामनामी न तो किसी के मंदिर में प्रवेश कर रहे हैं और न ही हिंदू प्रतीकों की पूजा कर रहे हैं। ऐसे में उन्हें अपने धार्मिक कामों से नहीं रोका जा सकता। इसके अलावा रामनामियों के मेले में सुरक्षा व्यवस्था के भी निर्देश बाद में जारी किए गए।

रामनामी समाज में पंडित या महंत की परंपरा नहीं है। इस समाज में मंदिर या मूर्ति पूजा का भी स्थान नहीं है। समाज में गुरु-शिष्य परंपरा भी नहीं है। यहां तक कि भजन जैसे आयोजनों में भी स्त्री-पुरुष भेद नहीं है। रामनामी समाज के एक बुजुर्ग बताते हैं कि उनके समाज में कुछ दशक पहले राम रसिक गीता भी लिखी गई थी लेकिन बात राम-राम पर अटक गई और उनके समाज में ही यह गीता चलन से बाहर हो गई।

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वे कहते हैं, हम अपने भजनों में मानस या रामायण भी पढ़ते हैं लेकिन उसके बहुत सारे हिस्सों से हम सहमत नहीं हैं। हमारी दिलचस्पी कथानक में नहीं है। हम बालकांड में नाम महात्म और उत्तरकांड में दीपकसागरइसलिए गाते हैं क्योंकि उसमें राम के नाम का महत्व दर्शाया गया है।

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दूर हो रही नई पीढ़ी
रामनामियों में पूरे शरीर पर गोदना कराने की परम्परा धीरे-धीरे कम होती जा रही है। पूरे शरीर पर गोदना करवाने में लगभग एक महीने का समय लग जाता है। पूरे शरीर पर गोदना करवाने वालों को ‘नख शिख’ कहा जाता है। गोदना का यह काम भी रामनामी समाज के लोग ही करते हैं। नई पीढ़ी भजन में तो शामिल होती है लेकिन गोदना नहीं कराना चाहती।                   

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