भगवान के पास Recorded है आपकी ये चीज़ें

Edited By Jyoti,Updated: 07 Jun, 2018 10:04 AM

religious concept based on karma

यदि व्यक्ति छिपकर, अकेले में बुरे कर्म करता है और सोचता है कि उसे कोई देख नहीं रहा, तो यह उसका भ्रम है। उन कर्मों की रिकोडिंग, संस्कार रूप में उसकी आत्मा में स्वत: होती जाती है। इस प्रकार वह स्वयं कर्ता और स्वयं ही अपनी करनी का गवाह बन जाता है।

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यदि व्यक्ति छिपकर, अकेले में बुरे कर्म करता है और सोचता है कि उसे कोई देख नहीं रहा, तो यह उसका भ्रम है। उन कर्मों की रिकोडिंग, संस्कार रूप में उसकी आत्मा में स्वत: होती जाती है। इस प्रकार वह स्वयं कर्ता और स्वयं ही अपनी करनी का गवाह बन जाता है। ये संस्कार ही उसके आगे के जीवन में उसकी उन्नति-अवनति, लाभ- हानि, प्रेम- नफ़रत आदि को आकर्षित करते हैं। दूसरा, भगवान से भी कोई कुछ छिपा नहीं सकता। कर्मों के दो निरीक्षक सदा हमारे साथ हैं, एक हम स्वयं और दूसरा परमात्मा, इसलिए कभी भी बुरा कर्म न करें। कहा गया है-


पाप छुपाया न छुपे....तो मोटो भाग।


दाजी दूबी न रहे....लपेटी आग।।


भावार्थ- यही है कि पाप कर्म को छिपाना, दबाना या उसके प्रभाव को नष्ट करना उसी प्रकार असंभव है जैसे कि रूई में लपेटकर आग को छिपाना असंभव है।

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कर्म प्रत्यक्ष, भावनाएं अप्रत्यक्ष हम प्रतिदिन जो भोजन खाते हैं, शरीर में जाकर, पाचन क्रिया के द्वारा उसकी दो श्रेणियां बनती हैं। एक श्रेणी है उसका सूक्ष्म भाग, जो रक्त में मिलकर शरीर का एक हिस्सा बन जाता है और दूसरा है उसका मोटा भाग, जो उत्सर्जन क्रिया द्वारा शरीर से बाहर फैंक दिया जाता है। इसी प्रकार जब हम कोई भी कर्म करते हैं तो उसके भी 2 पहलू हैं। एक है प्रत्यक्ष पहलू और दूसरा है उस कर्म के समय की मन की भावना, जो अप्रत्यक्ष होती है। मान लीजिए, हमने किसी व्यक्ति को एक कीमती खिलौना दिया। खिलौना प्रत्यक्ष है परन्तु खिलौना देते समय मन की भावनाएं कैसी थीं? अहंकार की थी, दया की थी, दिखावे की थी, मान-इज्जत पाने की थी या नेकी कर दरिया में डाल- इस प्रकार की थी? खिलौना तो नश्वर है, प्रकृति का बना है, प्रकृति के जगत में ही रहेगा परन्तु उसको आधार बनाकर हमारी जो भावनाएं निर्मित हुईं, वे हमेशा हमारे साथ रहेंगी। ये भावनाएं ही कर्म की सच्ची कमाई हैं। कर्म के बदले मिलने वाली आर्थिक कमाई अल्पकाल तक साथ रहेगी परन्तु कर्म करते समय या करने के बाद निर्मित भावनाएं किसी भी हालत में हमसे जुदा नहीं होंगी, न इस जन्म में, न अगले जन्म में।
 

सुप्रसिद्ध लुकमान हकीम बचपन में गरीबी के कारण किसी जमींदार के पास गुलाम के रूप में बिक चुका था। उसका मालिक धन के नशे में चूर होकर दिन-रात पाप करता था। मालिक की कठोर यातनाओं से लुकमान दुखी था, परन्तु लुकमान को रहम भी आता था कि यह किसी तरह सन्मार्ग पर आए।
 

आखिर मालिक के विश्वासपात्र लुकमान को एक युक्ति सूझ गई। जब वर्षा ऋतु आई, मालिक ने लुकमान को खेतों में गेहूं बोने का आदेश दिया परन्तु लुकमान ने नौकरों से जौ की बिजाई करवा दी। एक दिन मालिक ने पूछा, लुकमान गेहूं बो दिए? लुकमान ने कहा, जी मालिक। मालिक ने कहा, लुकमान, नौकर तो कह रहे हैं कि जौ बोए गए हैं, तुम झूठ बोल रहे हो या ये नौकर!
 

लुकमान बोला, मालिक जब खेती पकेगी तो हम गेहूं ही प्राप्त करेंगे। गुस्साया मालिक खेतों की ओर चल दिया और देखा, सब खेतों में जौ ही जौ हैं, गेहूं कहीं नजर नहीं आए। उसने नौकरों को डांटा। नौकरों ने कहा, मालिक, लुकमान ने हमें जो आदेश दिया, हमने तो वही किया है।

लुकमान से पुन: पूछा गया तो उसने कहा, मालिक, समय आने पर हम गेहूं ही काटेंगे। लुकमान को झूठ बोलते देख मालिक को और ज्यादा गुस्सा आ गया, उसे आश्चर्य भी हुआ कि इसने यह नादानी कैसे की, इतनी हिम्मत हुई कैसे इसकी? 


लुकमान रोनी-सी सूरत बनाकर बोला, ‘‘हुजूर, मान लो जौ बो दिए गए पर काटेंगे तो गेहूं ही न।’’ 


अब तो मालिक और अधिक आग-बबूला होकर चिल्लाया, ‘‘पागल हो गए हो तुम, बबूल बोकर कभी किसी ने आम खाए हैं?’’ 

लुकमान गंभीर होकर बोला, ‘‘मेरे मालिक, आपको रुष्ट होने की आवश्यकता नहीं है, हम जौ बो कर भी गेहूं ही काटेंगे।’’


अब तो मालिक आपे से बाहर हो गया और उसके सिर में दो थप्पड़ मारकर, अफसोस करते हुए बोला, ‘‘मेरा लुकमान इतना समझदार था, आज पता नहीं यह क्यों बकवास कर रहा है? अरे अब भी गलती स्वीकार कर ले।’’

लुकमान बोला, ‘‘मैंने सोच-समझ कर ही जौ बोने का आदेश दिया है मालिक। यदि आप दिन-रात क्रूरता, अन्याय, अधर्म का पक्ष लेते हैं, बिना बात क्रोध-अहंकार दिखाते हैं और फिर भी स्वर्ग की सीट पाने का स्वयं को हकदार समझते हैं, तो फिर मेरे लिए जौ बो कर गेहूं काटने की आशा रखना क्या बुरी बात है?’’

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लुकमान की इस तर्कसंगत बात का मालिक के दिल पर गहरा प्रभाव पड़ा। उसे पश्चाताप हुआ, उसने अपने आपको बदला। इसके बाद उसकी वाणी में मिठास आ गई। अत्याचार, अन्याय बंद हो गए। लुकमान को उसने धन्यवाद दिया कि तुमने समय रहते मेरी आंखें खोल दीं।
 

हमारा कर्म, हमारा नसीब
हर घड़ी हमारे सामने प्रश्र आते हैं। कुछ छोटे होते हैं, कुछ बड़े। बड़े प्रश्रों के उत्तर ढूंढते समय हमें सावधानी बरतनी है। किसी भी समस्या के कम-से-कम 2 उत्तर होते हैं। समस्या को सुलझाने में हमने अगर तात्कालिक लाभ के लिए ऐसा उत्तर चुना जिससे नैतिकता, विवेक, सुविचार पांवों तले आ गए तो हमने गलत कर्म किया। इसकी जगह अगर भौतिक नुक्सान को भी स्वीकार कर विवेक, सुविचार, नैतिकता को शिरोधार्य करने वाला उत्तर चुना तो हमने सही कर्म किया, उचित निर्णय लिया। उससे हमारा नसीब उजला हो गया।

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बात है उचित-अनुचित की, आर्थिक लाभ-हानि की नहीं। कर्म उचित किया जाए तो नसीब अवश्य बदलता है। हमारे नसीब के शिल्पकार हम ही हैं। हमारा कर्म ही हमारा नसीब है। लुकमान ने क्रूर मालिक पर रहम किया। उसकी कठोरता को अपने रहम से पिघला दिया। दिल की सच्ची शुभ भावना कि ‘मालिक पाप से बचे’ रंग लाई। परिणाम यह निकला कि गुलाम लुकमान दुनिया का प्रसिद्ध हकीम बन अपना यश दुनिया में फैला गया। उसकी रहमदिली, नेकदिली ने उसका नसीब बदल डाला।


दंड कौन देता है
ईश्वर को अलग से न तो किसी को दंड ही देना है और न ही किसी को पुरस्कृत ही करना है क्योंकि मनुष्य के हृदय के भाव ही उसे दंडित व पुरस्कृत करते रहते हैं। ऐसा विधान है कर्म का कि चाकू पर हाथ मारने वाला लहूलुहान होगा ही, उसे चोट खाने से कोई रोक नहीं सकता। इसी तरह जो व्यक्ति अन्य के प्रति गलत भाव रखता है, उसका वह गलत भाव ही उसे चैन नहीं लेने देता।

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एक ओर ईश्वर के प्रति श्रद्धा-भक्ति रहे, दूसरी ओर ईश्वर के बच्चों के प्रति गलत भाव रखें, किसी को कटु वचन कहने से अटकाव न आए, किसी का हक मारकर स्वयं को मोटा बनाए, ऐसा व्यक्ति कष्ट पाएगा ही। ईश्वरीय शक्ति उस व्यक्ति की कोई सहायता नहीं कर सकती इसलिए अपने कर्मों के निर्णयक स्वयं बनो। कर्म फल से पहले कर्म रूपी बीज पर ध्यान दो।
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