Shri Krishna: आपको भी लगता है दुःख में भगवान मदद नहीं करते...

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 08 May, 2020 12:10 PM

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गीता में भगवान कहते हैं, ‘‘हे भारत! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को और सनातन परधाम को प्राप्त होगा।’’

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गीता में भगवान कहते हैं, ‘‘हे भारत! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को और सनातन परधाम को प्राप्त होगा।’’

सब प्रकार से भगवान की शरण होने के लिए बुद्धि, मन, इंद्रियां और शरीर इन सबको सम्पूर्ण रूप से भगवान के अर्पण कर देने की आवश्यकता है परन्तु यह अर्पण केवल मुख से कह देने से ही नहीं हो जाता, इसलिए इसके अर्पण का स्वरूप समझना आवश्यक है।

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बुद्धि का अर्पण
भगवान ‘हैं’ इस बात का बुद्धि में प्रत्यक्ष की भांति नित्य-निरंतर निश्चय रहना, संशय, भ्रम और अभिमान से पूर्णत: रहित होकर भगवान में परम श्रद्धा करना, बड़ी से बड़ी विपत्ति पड़ने पर भी भगवान की आज्ञा से तनिक भी न हटना यानी प्रतिकूल भाव न होना तथा पवित्र हुई बुद्धि के द्वारा गुण और प्रभाव सहित भगवान के स्वरूप और तत्व को जानकर उस तत्व और स्वरूप में बुद्धि का अविचल भाव से नित्य-निरंतर स्थिर रहना-यह बुद्धि का भगवान में अर्पण करना है।

मन का अर्पण
प्रभु की इच्छा और उनकी प्रसन्नता से ही प्रसन्न होना, प्रभु के मिलने की मन में उत्कट इच्छा होना, केवल प्रभु के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, रहस्य और लीला आदि का ही मन से नित्य-निरंतर चिंतन करना, मन प्रभु में रहे और प्रभु मन में वास करें-मन प्रभु में रमे और प्रभु मन में रमण करें। यह रमण अत्यंत प्रेमपूर्ण हो और वह प्रेम भी ऐसा हो कि जिसमें एक क्षण का भी प्रभु का विस्मरण जल के वियोग में मछली की व्याकुलता से भी बढ़कर मन में व्याकुलता उत्पन्न कर दें। यह भगवान में मन का अर्पण करना है।

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इंद्रियों का अर्पण
कठपुतली जैसे सूत्रधार के इशारे पर नाचती है, उसकी सारी क्रिया स्वाभाविक ही सूत्रधार की इच्छा के अनुकूल ही होती है, इसी प्रकार अपनी सारी इंद्रियों को भगवान के हाथों में सौंप कर उनकी इच्छा, आज्ञा, प्रेरणा और संकेत के अनुसार कार्य होना तथा इंद्रियों द्वारा जो कुछ भी क्रिया हो उसे मानो प्रभु ही करवा रहे हैं ऐसे समझते रहना-अपनी इंद्रियों को प्रभु के अर्पण करना है।

इस प्रकार जब सारी इंद्रियां प्रभु के अर्पण हो जाएंगी तब वाणी के द्वारा जो कुछ भी उच्चारण होगा, सब भगवान के सर्वथा अनुकूल ही होगा अर्थात उसकी वाणी भगवान के नाम-गुणों के कीर्तन, भगवान के रहस्य, प्रेम, प्रभाव और तत्वादि के कथन, सत्य, विनम्र, मधुुर और सबके लिए कल्याणकारी भाषण के अतिरिक्त किसी को जरा भी हानि पहुंचाने वाले, दोषयुक्त या व्यर्थ वचन बोलेगी ही नहीं। उसके हाथों के द्वारा भगवान की सेवा, पूजा तथा इस लोक और परलोक में सबका यथार्थ हित हो, ऐसी ही क्रिया होगी। इसी प्रकार उसके नेत्र, कर्ण, चरण आदि इंद्रियों के द्वारा भी लोकोपकार आदि क्रियाएं भगवान के अनुकूल ही होंगी और उन क्रियाओं के होने के समय अत्यंत प्रसन्नता शांति, उत्साह और प्रेम विह्वलता रहेगी। भगवत्प्रेम और आनंद की अधिकता से कभी-कभी रोमांच और अश्रुपात भी होंगे।

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शरीर का अर्पण
प्रभु के चरणों में प्रणाम करना, यह शरीर प्रभु की सेवा व उनके कार्य के लिए ही है। ऐसा समझ कर प्रभु की सेवा में व उनके कार्य में शरीर को लगा देना, खाना-पीना, उठना-बैठना, सोना-जागना सब कुछ प्रभु के कार्य के लिए ही होना यह शरीर का अर्पण है। जैसे शेषनाग जी अपने शरीर की शय्या बनाकर निरंतर उसे भगवान की सेवा में लगाए रहते हैं, जैसे राजा शिवि ने अपना शरीर कबूतर की रक्षा के लिए लगा दिया, जैसे मयूर ध्वज राजा के पुत्र ने अपने शरीर को प्रभु के कार्य में अर्पण कर दिया। वैसे ही प्रभु की इच्छा, आज्ञा, प्रेरणा और संकेत के अनुसार लोकसेवा के रूप में या अन्य किसी रूप में शरीर को प्रभु के कार्य में लगा देना ही शरीर का प्रभु के अर्पण करना है।

जो व्यक्ति सब प्रकार से अपने आप को भगवान के अर्पण कर देता है, उसकी भी सारी क्रियाएं पतिव्रता स्त्री की भांति स्वामी के अनुकूल होने लगती हैं। वह अपनी इच्छानुसार कोई कार्य कर रहा है परंतु ज्यों ही उसे पता लगता है कि स्वामी की इच्छा इससे पृथक है, उसी क्षण उसकी इच्छा बदल जाती है और वह स्वामी के इच्छानुकूल कार्य करने लगता है। चाहे वह कार्य उसके बलिदान का ही क्यों न हो वह बड़े हर्ष के साथ उसे करता है। स्वामी के पूर्णत: शरण होने पर तो स्वामी के इशारे मात्र से ही उनके हृदय का भाव समझ में आने लगता है। फिर तो वह प्रेमपूर्वक आनंद के साथ उसी के अनुसार कार्य करने लगता है।

दैवयोग से अपने मन के अत्यंत विपरीत भारी संकट आ पड़ने पर भी उस संकट को अपने दयामय स्वामी के दयापूर्ण विधान को पुरस्कार समझकर अत्यंत प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करता है।

यही भगवान की अनन्य शरण है और यही अनन्य भक्ति है। इस प्रकार भगवान की शरण होने से मनुष्य भगवान के यथार्थ तत्व, रहस्य, गुण, महिमा और प्रभाव को जानकर अनायास ही परमपद को प्राप्त हो जाता है।

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