श्रीमद्भगवद्गीताः एेसे लोग कहलाते हैं प्रभु के सच्चे भक्त

Edited By Jyoti,Updated: 03 May, 2018 10:46 AM

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श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद  अध्याय 7: भगवद्ज्ञान  तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते। प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।। 17।।

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप
व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद 
अध्याय 7: भगवद्ज्ञान 


तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।। 17।।


अनुवाद एवं तात्पर्य-
इनमें से जो परमज्ञानी है और शुद्ध भक्ति में लगा रहता है वह सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि मैं उसे अत्यंत प्रिय हूं और वह मुझे प्रिय है।


भौतिक इच्छाओं के समस्त कल्मष से मुक्त आर्त, जिज्ञासु, धनहीन तथा ज्ञानी ये सब शुद्धभक्त बन सकते हैं। किंतु इनमें से जो परमसत्य का ज्ञानी है और भौतिक इच्छाओं से मुक्त होता है वही भगवान का शुद्धभक्त हो पाता है। इन चार वर्गों में से जो भक्त ज्ञानी है और साथ ही भक्ति में लगा रहता है, वह भगवान के कथनानुसार सर्वश्रेष्ठ है। ज्ञान की खोज करते रहने से मनुष्य को अनुभूति होती है कि उसकी आत्मा उसके भौतिक शरीर से भिन्न है। अधिक उन्नति करने पर उसे निर्विशेष ब्रह्म तथा परमात्मा का ज्ञान होता है। जब वह पूर्णतया शुद्ध हो जाता है तो उसे ईश्वर के नित्य दास के रूप में अपनी स्वाभाविक स्थिति की अनुभूति होती है। इस प्रकार शुद्ध भक्त की संगति से आर्त, जिज्ञासु, धन का इच्छुक तथा ज्ञानी स्वयं शुद्ध हो जाते हैं। किंतु प्रारंभिक अवस्था में जिस व्यक्ति को परमेश्वर का पूर्णज्ञान होता है और साथ ही जो उनकी भक्ति करता रहता है, वह व्यक्ति भगवान को अत्यंत प्रिय होता है। जो भगवान की दिव्यता के ज्ञान में स्थित होता है, वह भक्ति द्वारा इस तरह सुरक्षित रहता है कि भौतिक कल्मष उसे छू भी नहीं पातें।

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