Edited By Niyati Bhandari,Updated: 27 Nov, 2020 07:50 AM
सारी सृष्टि पांच महाभूतों से बनी है। हमारा शरीर भी उन्हीं पांच महाभूतों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से निर्मित हुआ। हम अग्नि और आकाश को प्रदूषित नहीं कर सकते। पृथ्वी, जल और वायु का प्रदूषण तो हो
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
Sri Sri Ravi Shankar: सारी सृष्टि पांच महाभूतों से बनी है। हमारा शरीर भी उन्हीं पांच महाभूतों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से निर्मित हुआ। हम अग्नि और आकाश को प्रदूषित नहीं कर सकते। पृथ्वी, जल और वायु का प्रदूषण तो हो ही रहा है। पेड़ों को काटने से ऊंची-ऊंची लोहे, कंकड़ पत्थर की इमारतें बनाने से नगरों का मौसम बदल जाता है और उससे वहां का तापमान (अग्नि तत्व) भी प्रभावित होता ही है। और हां, आकाश में वायु तो है ही। यदि वायु का प्रदूषण होता है तो आकाश का प्रदूषित होना स्वाभाविक ही है। इस तरह अग्नि और आकाश तत्व परोक्ष रूप से प्रदूषित हो रहे हैं। प्रत्यक्ष प्रदूषण तो तीन तत्वों अर्थात पृथ्वी, जल और वायु का हो रहा है। मनुष्य-जीवित या मृत-दोनों रूपों से पृथ्वी को प्रदूषित कर रहा है।
कौन इस पृथ्वी को प्रदूषण से बचा सकता है? केवल जागृत मनुष्य, जिसके ज्ञान चक्षु खुल गए हों, जिसमें समझने की सामर्थ्य हो और जो धरती मां का आदर करता हो। किसी जड़ पदार्थ को आदर देने के लिए सचमुच बहुत ही विशाल हृदय चाहिए। पहले प्राणियों के प्रति आदर भाव रखना आए, फिर पशु-पक्षियों के प्रति और फिर जड़ पदार्थ के प्रति आदर भाव पनप सकता है।
जब आप जीवंत को सम्मान देना सीख जाते हैं तो जड़ वस्तुओं को भी सम्मान देना सहज हो जाता है किन्तु इस दृष्टि के लिए चेतना का विकसित स्तर
अनिवार्य है।
जल जीवन का आधार है। जल के बिना जीवन नहीं हो सकता। पुरातन काल में, वैदिक युग में पानी को पवित्र मानकर पूजा जाता था। प्रत्येक नदी पवित्र, अत: पूज्नीय थी। परंतु पिछली सदी में लोगों को पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इन महाभूतों की पूजा करना पड़ा दकियानूसी लगने लगा। अत: उन्होंने इन धारणाओं और परम्पराओं को पुराना कह कर जीवन से हटा ही दिया।
जल को पवित्र मानने, उसकी पवित्रता समझने और उसे पवित्र बनाए रखने की बहुत आवश्यकता है। ऐसा ही वायु के लिए भी चाहिए। वायु के लिए संस्कृत में शब्द है ‘पवन’। पवन का अर्थ है पवित्र करने वाली जो वनस्पति जगत को भी पवित्र कर देती है। अग्नि भी पावक है, यदि उसका प्रयोग ठीक ढंग से किया जाए। नहीं तो वह अग्नि, जो पावक है, वह प्रदूषण का कारण भी बन सकती है।
मन सकारात्मक विचारों से अपने आसपास सुखद वातावरण बना सकता है। वही मन नकारात्मक विचारों से अपने आसपास दुखद वातावरण बना सकता है। मन के इस स्वभाव को जरा सजग होकर देखें, थोड़ी पैनी दृष्टि से देखें तो पता चलेगा कि अपने भावों से हम आसपास के वातावरण को प्रभावित करते हैं। अब इस ओर भी मानव चेतना सजग हो रही है कि पर्यावरण को रासायनिक और भौतिक प्रदूषण के साथ-साथ भावात्मक प्रदूषण से भी बचाना है। यह तभी संभव है, जब हम अपने मन को ध्यान, ज्ञान और साधना के साबुन से शुद्ध करते रहें।
मन का दुखी हो जाना, दूषित और नकारात्मक भावों का आना कोई अस्वाभाविक घटना नहीं, यह तो बहुत ही स्वाभाविक है। सीखना या जानना केवल यह है कि कैसे दुखी और दूषित मन को जल्दी से जल्दी पुन: आनंद और आत्मिक लयबद्धता की ओर लौटाया जा सके। इसीलिए साधना, ध्यान और प्राणायाम की प्रक्रियाओं का महत्व है। इन प्रक्रियाओं के द्वारा तुम अपने भीतर और आसपास सकारात्मक और प्रेमपूर्ण तरंगें उत्पन्न कर सकते हो।